गोस्वामी तुलसी दास की 526वी जयंती पर विशेष : जीवन जीने की कला सिखाता है ‘रामचरितमानस’

  • तुलसी के मानस से मिली स्वाधीनता संघर्ष को दिशा
  • समाज को लेकर सत्ता चलेगी तो होगा रामराज्य
बलराम कुमार मणि त्रिपाठी
बलराम कुमार मणि त्रिपाठी

युग कोई भी हो दैत्यों और देवताओं का संघर्ष हर युग मे चला है‌। सत्ता का संघर्ष स्वर्ग लोक मे जैसे चल रहा,ऐसे ही मृत्युलोक में‌।यहां पहले से राजतंत्र था पर आजादी के बाद वर्तमान मे लोकतंत्र का शासन है। जनता ही भगवान की भूमिका निभा रही,यद्यपि उसे अपने ऊपर भगवान होने का विश्वास नहीं। नये तंत्र मे भी कुछ विकृतियां जन्म लेरहीं जो लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों से परे हैं। इसका समय समय पर विलेषण जरुरी है। पिता की आज्ञा से श्रीराम ने चौदह वर्ष का वनवास भोगने के बाद अयोध्या लौटे तो उन्होंने भले महाराजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण राज सत्ता मिली। परंतु उन्होने लोक को महत्व देकर लोकतंत्र का श्रीगणेश उसी समय कर दिया था।

एक बार रघुनाथ बुलाये।गुरु द्विज पुरबासी सब आए।
बेठे गुरु मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले वचन भगत भव भंजन।।
सुनहु सकर पुरजन मम बानी।कहहुं न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई।सुनहु करहु जो तुम्हहिं सोहाई।।
सोइ सैवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।
जौ अनीति कछु भाषौ भाई। तौ मोहिं बरजहु भय विसराई।।

अन्यथा ऐसी घोषणा किसी राजा ने सार्वजनिक रूप मे नहीं कही होगी। मुगलशासन काल मे गोस्वामी तुलसी दास पैदा हुए। अकबर का प्रजा मे बड़ा दबदबा था। उसके शासनकाल मे आम जनता पर तमाम तरह की प्रताड़नाये होती थी‌। स्वयं निरपराध तुलसी को चमत्कार न दिखाने पर अकारण जेल मे बंद कर दिरा गया। भले ही उसके दरबार मे नव रत्न रहे हों। पर इतनी प्रजावत्सलता उसमें नहीं देखी गई। जो राम मे थी और न इस प्रकार का शासन अन्य युग में कोई शासक देसका । इसलिए गोस्वामी ने श्रीराम के शासन को आदर्श माना। जो सच भी था। इसलिए रामचरित लेखन का उन्होंने संकल्प लिया।

गोस्वामी तुलसी दास के जीवन काल में दो समस्यायें प्रबल रूप मे विद्यमान थी। पहला-देश को शासन सत्ता की प्रताड़ना से कैसे राहत मिले। दूसरा-धार्मिक कृत्य करते हुए लोग शांतिमय ढंग से कैसे जी सकें। ऐसे मे पौराणिक ग्रंथो मे राम के जीवन से उन्हें प्रकाश की किरण मिली और रास्ता दिखता नजर आया। चूंकि शिक्षा के अभाव मे उस समय संस्कृत की जानकारी आम जनता को नहीं थी, गिने चुने लौग संस्कृत विद्वान थे। ऐसे मे बाल्मीकि रामायण का आधार लेकर उन्होंने सभी पुराणो का सार लोक भाषा अवधी मे लिखकर रामचरित मानस मे समेट दिया। जिससे पौराणिक आख्यान और उपदेश जन सुलभ हुए। साथ ही राम के जीवन चरित्र से जनता को दिशा मिलने लगी। आपसी विद्वेष और भाई भाई मे फूट को खराब समझा जाने लगा। लोगो मे अच्छाई के प्रति सकारात्मक रुख होने लगा। आपसी संबंधो में भी फर्क पडा।

‘सिया राम मय सब जग जानी। करउं प्रनाम जोरी जुग पानी।’
वैर करु काहू सन कोई । राम प्रसाद विषमता खोई।’
इन वाक्यो का लोगो पर खासा असर पड़ा।

जैसे उन्हें मालूम हो कि भविष्य मे समाज पर आधारित सत्ता ही टिकेगी। राजसत्ता का अंत होजाएगा। क्योंकि महापराक्रमी राजा दशरथ को भी परिवार मे उभरे षड़यंत्र का शिकार होकर कैकेयी के कहने पर मन के विपरीत निर्णय लैना पड़ा,जिससे समर्थ और सुयोग्य पुत्र को चौदह वर्ष का वनवास भोगना पड़ा‌। अंग्रेजों के आगमन के बाद जब स्वाधीनता के लिए जनता मे तड़फड़ाहट पैदा हुई त़ो गीता और रामचरित मानस ही संघर्ष के आधार बने। भले 1857से आजादी की लड़ाई शुरु हुई हो। सन1918 में गांधी जी को स्वाधीनता की लड़ाई का नेतृत्व मिला तो उन्होंने काफी कुछ अध्ययन किया । उन्होंने एक जगह कहा कि जनता की शक्ति का एहसास तो राम के चरित्र से लगा, अत; रामराज्य स्थापित करना ल‌क्ष्य बना। जो रामचरित मानस से मुझे मिला। रामचरित मानस और गीता के अध्ययन से ही सत्याग्रह आंदोलन को दिशा मिली।

लोक भाषा मे लिखे जाने से कम पढ़े लिखे लोग भी स्वयं पढ़ कर धर्म और उपदेश सहजता से समझने के लायक हुए। इस तरह तुलसी ने लोक को जीने की दिशा दिखाई । हमारे भीतर भी अच्छे और बुरी भावनाओ का अंतर्द्वंद्व मचा है‌। बुराईयां अच्छाईयों पर रह रह कर हाबी होजाती है। उनसे निजात पाने के लिए रामचरित मानस अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ। इसके अलावा मानव जीवन का लक्ष्य क्या है,मानस पढ़ करके आसानी से समझ मे आया। जीवन मे संघर्षों को झेलते हुए जब कोई रास्ता नजर नही आता फिर ईश्वर के पास मनुहार के अलावा कोई चारा नहीं बचता।परिवार हो या समाज ,रामचरित मानस ने हमे जीवन जीने की कला समझा दी।

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