क्यों खोई-खोई सी है ये पृथ्वी

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

पृथ्वी से आखिर झूठ कौन बोल रहा है, कभी खुद से सवाल करके देखिये तो पता चल जाएगा कि इंसान झूठ और सच का फर्क कब का भूल चुका है। वह लगातार जिस गृह पर रह रहा है, उससे ही झूठ बोले जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर कब तलक तुम झूठ बोलोगे? एक न एक दिन तो खुद का सच स्वीकार करना पड़ेगा और यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हम निरंतर अपने ग्रह से झूठ बोल रहे हैं। वैसे तो इसे पृथ्वी माँ कहकर पूरी दुनिया ही पुकारती है लेकिन पृथ्वी को केवल माँ कह भर देने से हमारी सारी प्रतिबद्धताएं, जिम्मेदारियाँ समाप्त नहीं हो जातीं।

पृथ्वी दिवस जब पिछले वर्ष मनाया जा रहा था तो संयुक्त राष्ट्र महासचिव के कहा था कि हमारे पास केवल एक ही माँ पृथ्वी है, और उसकी रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयास किए जाने होंगे। अब एक साल बाद हमने पृथ्वी की रक्षा कितनी की, इसका आंकलन कर लें तो सब पता चल जाएगा कि एक वर्ष पहले जो पृथ्वी दिवस था वह इस साल बस आ गया है बदला कुछ भी नहीं। पृथ्वी माँ और ज्यादा खतरे में आ गयी है। सवाल यह है कि क्या आह्वान हमारे पृथ्वीवासियो के लिए एक आवाज़ है, उसका कोई आशय नहीं है? सवाल यह भी है कि प्रकृति के दोहन के साथ हमें जलवायु की चिंता बिलकुल नहीं है कि हम पृथ्वी के लिए केवल अतिक्रमण करने वाले बनकर रह गए हैं?आज संयुक्त राष्ट्र में सतत विकास लक्ष्य-2030 हासिल करने की पूरी कवायद है। एक वर्ष पहले की एक बात और मैं यहाँ संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की उद्धृत करना चाहूँगा। उन्होंने कहा था कि प्रसन्न व स्वस्थ ज़िन्दगियों की आधारशिलाएँ– स्वच्छ जल, ताज़ा वायु, एक स्थाई और प्रत्याशित जलवायु–  अव्यवस्था के शिकार हैं, जिससे टिकाऊ विकास लक्ष्यों के लिए भी ख़तरा उत्पन्न हो गया है।

एक वर्ष बाद जब पृथ्वी दिवस पर यही बातें दुहराई जा रही हैं तो किसी भी देश के राष्ट्राध्यक्ष से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि वे इस दिशा में एक वर्षों में क्या किए और यदि नहीं किए तो क्यों नहीं किए। पृथ्वी तो सबकी है। हर जीवन जी रहे की है। हर वनस्पतियों की है और हर जीव-जन्तु की है। इस पृथ्वी से जुड़े उन सभी संसाधनों से भी पृथ्वी के रिश्ते हैं तो फिर सोचना यह है कि बौद्धिक होकर इंसान इस पृथ्वी को अम्लीय क्यों बना रहा है? वह पृथ्वी के लिए इतना घातक क्यों होता जा रहा है? जब इतना सारा अतिक्रमण और पृथ्वी का प्रतिकार करने से इंसान नहीं चूक रहा है तो वह आखिर उसे चिंता क्यों होने लगी है अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए? कभी पृथ्वी के ऊपर ही विचार करके देखना चाहिए कि आखिर क्यों खोई-खोई सी है ये पृथ्वी?

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जोशीमठ की त्रासदी को शायद भारत के लोग अभी स्मरण रखे हों। दरअसल, यहाँ की समस्या यही है की जब मीडिया में बातें होती हैं, जब मीडिया में परिचर्चा होती है तो लोग ज्यादा चिंतित दिखाई देने लगते हैं। बहस का विषय बदला लोगों का ध्यान उस ओर चला जाता है। पूरी तरह से असंवेदनशील होने का यह लक्षण है। पृथ्वी दिवस पर इसी तरह लोग दिवस भी मना लेते हैं और बाद में उनके जेहन से चीजें ज्यों की त्यों रह जाती हैं। यही विडम्बना है हमारे लिए। अकुशलता का यही कारण भी है। संसार में ऐसे अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जहां पृथ्वी के लिए शोक की भांति चिंताएँ जाहीर कर दी जाती है लेकिन एक-एक व्यक्ति का क्या दायित्व है उसे भुला दिया जाता है। वैज्ञानिकों की ओर से चेतावनी है कि कार्बन उत्सर्जनों में 2030 तक 45 प्रतिशत की कटौती करनी होगी लेकिन यह एक एजेंडे में शामिल करने और उस लक्ष्य को हासिल करने का मामला है। सतत विकास लक्ष्य के मामले में पूरी पृथ्वी पर यदि फर्जी रिपोर्ट्स तैयार की जाती रहेगी तो पृथ्वी की रक्षा हमारे लिए केवल नारों तक सीमित रह जाएगी, कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं होगा। पृथ्वी के लिए हमारे संकल्प किस प्रकार पूरे हों, इसके लिए इसलिए ज्यादा विचार करने की आवश्यकता है और एक कुशल एजेंडे के तहत काम करने की ज़रूरत है जिसे आज से ही और अभी से ही अपने दैनिक-जीवनचर्या में शामिल किया गया तो ही कुछ हो सकता है।

पृथ्वी की अम्लीयता को कम करने की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि हमारी पृथ्वी ऊसर होती जा रही है। पोलिथीन का प्रयोग हम करते हैं लेकिन बिना सोचे समझे उसे जहां-तहां फेंक देते हैं लेकिन क्या ऐसा करना सही होता है, इस पर विचार कोई नहीं करता। जलवायु परिवर्तन हो, प्रदूषण की बढ़ोतरी हो या पृथ्वी के भीरतर बढ़ती गर्मी हो, सबकी चिंता करने से पृथ्वी बचेगी। हमारा ग्रह सुरक्शित होगा। हमें खुद से झूठ बोलने की जो आदत हो गयी है, इसीकारण से हमने बहुत कुछ खोया है। सिकुड़ती पृथ्वी के साथ भी हमारी झूठ की परत है। इस परत को हम इतना मजबूत बना चुके हैं कि पृथ्वी की परत ही दरकने लगी है। और हम कहते हैं कि पृथ्वी ही हमारे साथ धोखा कर रही है। अरे, ऐसी बात नहीं है धोखा तो पृथ्वी से हम कर रहे हैं।

पृथ्वी पर आए संकट के कारण हमारी ग्रीन इकोनोमी भी संकट में है। पृथ्वी के हरीतिमा को समाप्त करके हम अपने आर्थिक संकट को आम्न्तृत कर रहे हैं। अधिकांश क्षेत्रों में वनों की कटाई हो रही है और अपने कॉर्पोरेट माइंडसेट से हम पृथ्वी का दोहन करने लगे हैं। इसका असर तो हम मनुष्यों पर आयेगा ही। संसार में जितने भी संकट हैं, उसे हम बहुत ही गंभीरता से लेते हैं लेकिन यदि हमारा ग्रह ही नहीं बचेगा तो हम रहेंगे कहा? अब तो दुनिया में परमाणु कार्यवाही के लिए परमाणु हथियारों का उत्पादन और परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ा रहे हैं। आप सोचिए कि जब एक देश परमाणु प्रक्षेपण करके खुद को सशक्त होने का दंभ भरता है तो वह उसका परीक्षण पृथ्वी पर किसी कोने में कर रहा होता है। उसका असर किस पर होता है कभी वे देश विचार नहीं करते। ऐसी अनेकों मानवीय कमजोरियाँ रेखांकित नहीं की जा रही हैं जिससे हमारा जलवायु संकट हमारे लिए और हमारी पृथ्वी के लिए खतरा बनता जा रहा है। ऐसे में, पृथ्वी को हानी पहुँचने वालों के लिए दंड का भी विधान आवश्यक हो गया है लेकिन इसका निर्धारण कौन करेगा और कौन किस पर दोष मढ़ने और दंड सुनिश्चित करने की स्थिति में है, इस पर विचार कीजिये। पृथ्वी को हमें बचाने के लिए जन-जन से अपील करने का हक़ है। सरकारों से भी अपील करने का हक़ है लेकिन अपनी सुविधानुसार यदि समय-समय पर पृथ्वी पर हो रहे अतिक्रमण को अनदेखा करने की आदत हो जाएगी तो हम कोई भी सही व सार्थक उपलब्धि की आशा करने योग्य नहीं हैं, यह भी हमें पहले ही समझ जाने की जरूरत होगी।


लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं. आप अहिंसा आयोग और अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं।

पता: UGC-HRDC, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 मध्य प्रदेश

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