सनातन यात्रा के सौ वर्ष
गीताप्रेस शब्द जेहन में आते ही एक ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आती है मानस को भारतीयता से भर देती है। भारत वर्ष की महान प्राचीन गौरवशाली परम्परा और आधार ग्रंथो के बारे में यदि पूरी दुनिया आज कोई भी जानकारी पा सकती है तो यह इस महान संस्था की ही देन है। गीता प्रेस केवल एक मुद्रण और प्रकाशन संस्थान भर नहीं है बल्कि एक ऐसी राजधानी बन चुका है जहा से अपनी जानकारी पुख्ता कर के ही भारतीय सनातन समाज संतुष्ट हो पाता है। यहां से कल्याण पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है। 1923 में स्थापित गीताप्रेस अपने शताब्दी वर्ष को आज पूरा कर चुका है। इसी परिसर में 29 अप्रैल 1955 को लीला चित्र मंदिर का तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद द्वारा उद्घाटन हुआ था। यहां भगवान् श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, इनके जीवन कथालीला से जुड़े विविध प्रसंगों और देवी-देवताओं के हाथ से चित्र दर्शनीय हैं। सनातन वैदिक हिन्दू संस्कृति में स्थापित देवी-देवताओं के स्वरूपों की प्रामाणिक जानकारी देने का बहुत बड़ा काम गीताप्रेस ने किया है।
पर्व त्यौहारों से लेकर लघुसिद्धान्त कौमुदी, पुराणो, उपनिषदों और सभी आर्ष ग्रंथों की प्रमाणिकता तब तक सिद्ध नहीं मानी जाती जब तक उनकी पुष्टि गीता प्रेस से नहीं हो जाती। आम भारतीय अपनी हर आस्तिक और आर्ष जिज्ञासा को शांत करने के लिए गीता प्रेस की ही शरण में आता है। वह चाहे मानस के अनुत्तरित प्रश्न हों या गीता और श्रीमद भागवत के गूढ़ रहस्य, या फिर उपनिषद् की मीमांसा या फिर लघुसिद्धान्त कौमुदी और भारतीय व्याकरण के सूत्र या फिर दैनिक पूजा पाठ की समस्या , या फिर कोई भी ऐसी शंका जिसको जाननं जरुरी है, सभी का समाधान गीता प्रेस से ही हो सकता है। गीताप्रेस पूर्व में वेद के किसी पुस्तक का प्रकाशन नहीं करता था। अब यहाँ शुक्ल यजुर्वेद के प्रकाशन पर कार्य शुरू किया जा रहा है।
भारतीयता की गंगोत्री : वास्तव में गीता प्रेस वह विन्दु बन चुका है जिसे भारतीयता की गंगोत्री कह सकते हैं क्योकि मानस की कथा हो या कृष्ण चरित्र की गाथा या फिर गीता का ज्ञान , हर कथामृत रुपी गंगा इसी गंगोत्री से होकर गुजरती है. कल्पना कीजिये गीता प्रेस न होता तो रामचरित मानस और श्रीमद्भगवतगीता जैसे ग्रन्थ हर हिन्दू को कैसे उपलब्ध हो पाते। यह कोई सामान्य घटना नहीं है की लगभग एक हज़ार साल के गुलाम भारत के मानस को उसके प्राचीन गौरव से जोड़ कर आज ऐसा भारत बनाया जा चुका है जहा से पूरी दुनिया आध्यात्म, संस्कृति और सदाचार की शिक्षा ले रही है। आज यदि दुनिया योग दिवस मना रही है तो इसके पीछे भी पतांजलि के योग सूत्र से जुड़े हर साहित्य की उपलब्धता ही है जिसे इसी संस्था ने संभव बनाया है। भारत को आज की दुनिया जिन कारणों से पसंद करने लगी है उनमे से प्रमुख कारण इसकी आध्यात्मिकता ही है।
70 करोड़ पुस्तके : यह अद्भुत है कि आज के इस घोर आर्थिक युग में कोई संस्था किसी लाभ के 70 करोड़ पुस्तके उस मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराया है जिस पर खाली सादा कागज़ मिलना संभव नहीं है। यह सच है कि राष्ट्र का निर्माण वहा की राजनीतिक से इच्छा शक्ति के ही हो पाता है लेकिन स्वस्थ और विकसित राष्ट्र बनाने के लिए जिन संस्कारो और मूल्यों की आवश्यकता होती है उन सभी को गीता प्रेस उपलब्ध कराने में सक्षम है। इस संस्थान की स्थापना के बाद जब भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने कल्याण पत्रिका पहला अंक महात्मा गांधी के सामने रखा तो गांधीजी ने उनको सुझाव दिया कि इस पत्रिका में कभी भी कोई विज्ञापन और किसी प्रकार की पुस्तक समीक्षा न प्रकाशित करें। यह अद्भुत है कि कल्याण जैसी अति लोकप्रिय पत्रिका जो आज लाखो लोगो तक हर महीने पहुंच रही है उसमे कभी कोई विज्ञापन पुस्तक समीक्षा नहीं प्रकाशित होती। गीताप्रेस यदि चाहता तो केवल कल्याण के आंको के विज्ञापन से करोडो रूपये कमा सकता था लेकिन आरम्भ में ही स्थापित सिद्धांत से आज भी इस संस्था ने कोईसमझौता नहीं किया है। इस समय गीता प्रेस से 15 भारतीय भाषाओं में 1800 प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन किया जा रहा है।
मुद्रण और प्रकाशन का कीर्तिमान : गीताप्रेस तक 1880 प्रकार की पुस्तके प्रकाशित करने का कीर्तिमान स्थापित है। यह दुनिया का शायद अकेला ऐसा संस्थान है जहा से इतनी पुस्तके एक ही परिसर से प्रकाशित हो रही हैं। पंद्रह भाषाओ में यहाँ से प्रकाशन चल रहा है। इनमे से एक भाषा नेपाली भी। है रामचरितमानस एक ऐसा ग्रन्थ है जो अकेले ही 9 भाषाओ में छप रहा है। जहा तक कल्याण पत्रिका का प्रश्न है तो इसका हर साल का पहला अंक विशेषांक होता है। शेष 11 अंक हर महीने प्रकाशित होते है। इस बारे में प्रेस प्रबंधन से जुड़े आचार्य लालमणि तिवारी जी बताते है कि कल्याण के पुराने अनेक अंक ऐसे है जिनके विशेषांकों की अभी भी बहुत मांग रहती है। कई विशेषांकों के नए संस्करण भी निकाले जा चुके है। कल्याण के अभी तक 1140 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। कल्याण की अभी तक कुल साढ़े सोलह करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। यहाँ यह भी बता देना समीचीन होगा कि कल्याण का सम्पादकीय कार्यालय काशी में है । वहां राधेश्याम खेमका के सम्पादकत्व में सभी कार्य हो रहे थे। खेमका के गोलोकगमन के बाद अब सम्पादकीय दायित्व प्रेमप्रकाश कक्कड़ संभाल रहे हैं।
145000 वर्गफीट का परिसर : आज गीता प्रेस का कुल परिसर 145000 वर्ग फ़ीट में है। इसमे केवल प्रकाशन का कार्य हो रहा है। इसके अलावा 55000 वर्ग फ़ीट में व्यावसायिक परिसर है जिसमे वस्त्र वभाग एवं कर्मचारी आवास परिसर है। कुछ भवन किराए पर भी है। प्रेस का अपना भव्य शो रूम भी कार्य कर रहा है। गीता प्रेस का सारा कार्य अपने खुद के परिसर में ही हो रहा है। इस समय इसके पास वेव की 6 मशीने हैं। इनके अलावा एक दर्जन शीतफेड हैं किताबो की सिलाई के लिए चार विदेशी और काफी संख्या में देशी मशीने हैं। इनके अलावा भी छपाई, सिलाई और बाइंडिंग के लिए ढेर सारी मशीनें यहां उपलब्ध हैं। विश्व के प्रिंटिंग जगत में उपलब्ध अत्याधुनिक प्रणाली और तकनीक से जुड़े सभी संसाधन गीताप्रेस के पास हैं।
प्रमुख संत विभूतिया : गीता प्रेस के बारे में कहा जाता है की जो यहाँ झाड़ू भी लगाता है वह किसी भी शाष्टीय विद्वान के बराबर का ज्ञान पा लेता है , वर्त्तमान कर्मचारी विवाद को छोड़ दे तो यह उक्ति काफी हद तक सही लगाती है। गीता, श्रीमद भागवत आदि ग्रंथो के प्रकाशन में सम्पादकीय और अनुवाद के बाद ही शांतनु द्विववेदी को दुनिया ने परम पूज्य स्वामी अखण्डानन्त्द सरस्वती के रूप में पाया। स्वयं सेठ जय दयाल गोयन्दका, स्वामी रामसुख दास महाराज, भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, और आचार्य नंदा दुलारे वाजपई जी आज पूरी दुनिया में जाने गए तो यह इसी की दें है। आचार्य नंद दुलारे वाजपई यही कल्याण के सम्पादकीय विभाग से निकल कर कुलपति के पद पर आसीन हुए। स्वयं करपात्री जी और महामना मदन मोहन मालवीय के साथ महात्मा गांधी जी इस संस्था से गहरे तक जुड़े रहे। एक शास्त्रीय विवाद में तो मालवीय जी और करपात्री जी के बीच जयदयाल जी को ही सरपंच बनाया गया था।
भारत रत्न से भी अरुचि : देश की स्वाधीनता के बाद डॉ, संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भाई जी को `भारत रत्न’ की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।
कोई प्रचार नहीं सिर्फ त्याग : इस संस्थान की सबसे बड़ी विशेषता इसका सेवा भाव और त्याग है। संस्था का कोई ट्रस्टी संस्था से किसी प्रकार की सहायता नहीं लेता. सभी अपने आर्थिक संसाधन से ही संता का कार्य करते है। यहाँ तक की प्रतिदिन प्रेस में बैठ कर यहाँ का काम देखने वाले बैजनाथ जी अग्रवाल पिछले 65 वर्ष से व्यवस्था देख रहे है वह रोज अपने संसाधन से प्रेस आते है और जाते है लेकिन आज तक एक पैसे भी उन्होंने अपने लिए प्रेस से नहीं लिया है। इसी तरह राधेश्याम जी खेमका वाराणसी से कल्याण के सम्पादन का कार्य कर रहे हैं लेकिन ट्रस्टी होते हुए भी कभी एक पाई अपने ऊपर खर्च नहीं होने दिया। य्हह् ट्रस्ट में वंशानुक्रम की कोई परम्परा भी नहीं है। इस समय राधे श्याम जी खेमका ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं। विष्णु प्रसाद चांदगोठिया सचिव हैं। बैजनाथ अग्रवाल गोरखपुर में प्रेस की व्यवस्था देख रहे हैं। केशराम जी अरवल कोलकाता में रहते हैं और कल्याण कल्पतरु के संपादक भी हैं। देवीदयाल , ईश्वर प्रसाद पटवारी नारायण अजीतसरिया अन्य ट्रस्टी हैं।
गीताप्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयन्दका
जयदयाल गोयन्दका का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण 6, सम्वत् 1942 (सन् 1885) को श्री खूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था में ही इन्हें गीता तथारामचरितमानस ने प्रभावित किया। वे अपने परिवार के साथ व्यापार के उद्देश्य से बांकुड़ा(पश्चिम बंगाल) चले गए। बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा तो, उन्होंने पीड़ितों की सेवा का आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना जीवन धर्म-प्रचार में लगाने का संकल्प लिया। इन्होंने कोलकाता में “गोविन्द-भवन” की स्थापना की। वे गीता पर इतना प्रभावी प्रवचन करने लगे थे कि हजारों श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सत्संग का लाभ उठाते थे। “गीता-प्रचार” अभियान के दौरान उन्होंने देखा कि गीता की शुद्ध प्रति मिलनी दूभर है। उन्होंने गीता को शुद्ध भाषा में प्रकाशित करने के उद्देश्य से सन् 1923 मेंगोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना की। उन्हीं दिनों उनके मौसेरे भाई हनुमान प्रसाद पोद्दारउनके सम्पर्क में आए तथा वे गीता प्रेस के लिए समर्पित हो गए। गीता प्रेस से “कल्याण” पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। उनके गीता तथा परमार्थ सम्बंधी लेख प्रकाशित होने लगे। उन्होंने “गीता तत्व विवेचनी” नाम से गीता का भाष्य किया। उनके द्वारा रचित तत्व चिन्तामणि, प्रेम भक्ति प्रकाश, मनुष्य जीवन की सफलता, परम शांति का मार्ग, ज्ञान योग, प्रेम योग का तत्व, परम-साधन, परमार्थ पत्रावली आदि पुस्तकों ने धार्मिक-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है। उनका निधन 17 अप्रैल 1965 को ऋषिकेश में गंगा तट पर हुआ।
गोविन्द-भवन-कार्यालय, कोलकाता
यह संस्थाका प्रधान कार्यालय है जो एक रजिस्टर्ड सोसाइटी है। सेठजी व्यापार कार्यसे कोलकाता जाते थे और वहाँ जानेपर सत्संग करवाते थे। सेठजी और सत्संग जीवन-पर्यन्त एक-दूसरेके पर्याय रहे। सेठजीको या सत्संगियोंको जब भी समय मिलता सत्संग शुरू हो जाता। कई बार कोलकातासे सत्संग प्रेमी रात्रिमें खड़गपुर आ जाते तथा सेठजी चक्रधरपुरसे खड़गपुर आ जाते जो कि दोनों नगरोंके मध्यमें पड़ता था। वहाँ स्टेशन के पास रातभर सत्संग होता, प्रात: सब अपने-अपने स्थानको लौट जाते। सत्संगके लिये आजकलकी तरह न तो मंच बनता था न प्रचार होता था। कोलकातामें दुकानकी गद्दियोंपर ही सत्संग होने लगता। सत्संगी भाइयोंकी संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी। दुकानकी गद्दियोंमें स्थान सीमित था। बड़े स्थानकी खोज प्रारम्भ हुई। पहले तो कोलकाताके ईडन गार्डेनके पीछे किलेके समीप वाला स्थल चुना गया लेकिन वहाँ सत्संग ठीकसे नहीं हो पाता था। पुन: सन् 1920 के आसपास कोलकाताकी बाँसतल्ला गलीमें बिड़ला परिवारका एक गोदाम किराये पर मिल गया और उसे ही गोविन्द भवन (भगवान् का घर) का नाम दिया गया। वर्तमानमें महात्मा गाँधी रोडपर एक भव्य भवन ‘गोविन्द-भवन’ के नामसे है जहाँपर नित्य भजन-कीर्तन चलता है तथा समय-समयपर सन्त-महात्माओंद्वारा प्रवचनकी व्यवस्था होती है। पुस्तकोंकी थोक व फुटकर बिक्रीके साथ ही साथ हस्तनिर्मित वस्त्र, काँचकी चूडियाँ, आयुर्वेदिक ओषधियाँ आदिकी बिक्री उचित मूल्यपर हो रही है।
गीताप्रेस-गोरखपुर : कोलकातामें श्री सेठजी के सत्संगके प्रभावसे साधकोंका समूह बढ़ता गया और सभीको स्वाध्यायके लिये गीताजीकी आवश्यकता हुई, परन्तु शुद्ध पाठ और सही अर्थकी गीता सुलभ नहीं हो रही थी। सुलभतासे ऐसी गीता मिल सके इसके लिये सेठजीने स्वयं पदच्छेद, अर्थ एवं संक्षिप्त टीका तैयार करके गोविन्द-भवनकी ओरसे कोलकाताके वणिक प्रेससे पाँच हजार प्रतियाँ छपवायीं। यह प्रथम संस्करण बहुत शीघ्र समाप्त हो गया। छ: हजार प्रतियोंके अगले संस्करणका पुनर्मुद्रण उसी वणिक प्रेससे हुआ। कोलकातामें कुल ग्यारह हजार प्रतियाँ छपीं। परन्तु इस मुद्रणमें अनेक कठिनाइयाँ आयीं। पुस्तकोंमें न तो आवश्यक संशोधन कर सकते थे, न ही संशोधनके लिये समुचित सुविधा मिलती थी। मशीन बार-बार रोककर संशोधन करना पड़ता था। ऐसी चेष्टा करनेपर भी भूलोंका सर्वथा अभाव न हो सका। तब प्रेसके मालिक जो स्वयं सेठजीके सत्संगी थे, उन्होंने सेठजीसे कहा – किसी व्यापारीके लिये इस प्रकार मशीनको बार-बार रोककर सुधार करना अनुकूल नहीं पड़ता। आप जैसी शुद्ध पुस्तक चाहते हैं, वैसी अपने निजी प्रेसमें ही छपना सम्भव है। सेठजी कहा करते थे कि हमारी पुस्तकोंमें, गीताजीमें भूल छोड़ना छूरी लेकर घाव करना है तथा उनमें सुधार करना घावपर मरहम-पट्टी करना है। जो हमारा प्रेमी हो उसे पुस्तकोंमें अशुद्धि सुधार करनेकी भरसक चेष्टा करनी चाहिये। सेठजीने विचार किया कि अपना एक प्रेस अलग होना चाहिये, जिससे शुद्ध पाठ और सही अर्थकी गीता गीता-प्रेमियोंको प्राप्त हो सके। इसके लिये एक प्रेस गोरखपुरमें एक छोटा-सा मकान लेकर लगभग 10 रुपयेके किरायेपर वैशाख शुक्ल 13, रविवार, वि. सं. 1980 (23 अप्रैल 1923 ई0) को गोरखपुरमें प्रेसकी स्थापना हुई, उसका नाम गीताप्रेस रखा गया। उससे गीताजीके मुद्रण तथा प्रकाशनमें बड़ी सुविधा हो गयी। गीताजीके अनेक प्रकारके छोटे-बड़े संस्करणके अतिरिक्त श्रीसेठजीकी कुछ अन्य पुस्तकोंका भी प्रकाशन होने लगा। गीताप्रेससे शुद्ध मुद्रित गीता, कल्याण, भागवत, महाभारत, रामचरितमानस तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थ सस्ते मूल्यपर जनताके पास पहुँचानेका श्रेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाको ही है। गीताप्रेस पुस्तकोंको छापनेका मात्र प्रेस ही नहीं है अपितु भगवान की वाणीसे नि:सृत जीवनोद्धारक गीता इत्यादिकी प्रचारस्थली होनेसे पुण्यस्थलीमें परिवर्तित है। भगवान शास्त्रोंमें स्वयं इसका उद्घोष किये हैं कि जहाँ मेरे नामका स्मरण, प्रचार, भजन-कीर्तन इत्यादि होता है उस स्थानको मैं कभी नहीं त्यागता।
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
गीताभवन, स्वर्गाश्रम ऋषिकेश : गीताजी के प्रचारके साथ ही साथ सेठजी भगवत्प्राप्ति हेतु सत्संग करते ही रहते थे। उन्हें एक शांतिप्रिय स्थलकी आवश्यकता महसूस हुई जहाँ कोलाहल न हो, पवित्र भूमि हो, साधन-भजनके लिये अति आवश्यक सामग्री उपलब्ध हो। इस आवश्यकताकी पूर्तिके लिये उत्तराखण्डकी पवित्र भूमिपर सन् 1918 के आसपास सत्संग करने हेतु सेठजी पधारे। वहाँ गंगापार भगवती गंगाके तटपर वटवृक्ष और वर्तमान गीताभवनका स्थान सेठजीको परम शान्तिदायक लगा। सुना जाता है कि वटवृक्ष वाले स्थानपर स्वामी रामतीर्थने भी तपस्या की थी। फिर क्या था सन् 1925 के लगभगसे सेठजी अपने सत्संगियोंके साथ प्रत्येक वर्ष ग्रीष्म-ऋतुमें लगभग 3 माह वहाँ रहने लगे। प्रात: 4 बजेसे रात्रि 10 बजेतक भोजन, सन्ध्या-वन्दन आदिके समयको छोड़कर सभी समय लोगोंके साथ भगवत्-चर्चा, भजन-कीर्तन आदि चलता रहता था। धीरे-धीरे सत्संगी भाइयोंके रहनेके लिये पक्के मकान बनने लगे। भगवत्कृपासे आज वहाँ कई सुव्यवस्थित एवं भव्य भवन बनकर तैयार हो गये हैं जिनमें 1,000 से अधिक कमरे हैं और सत्संग, भजन-कीर्तनके स्थान अलग से हैं। जो शुरूसे ही सत्संगियोंके लिये नि:शुल्क रहे हैं। यहाँ आकर लोग गंगाजीके सुरम्य वातावरणमें बैठकर भगवत्-चिन्तन तथा सत्संग करते हैं। यह वह भूमि है जहाँ प्रत्येक वर्ष न जाने कितने भाई-बहन सेठजीके सान्निध्यमें रहकर जीवन्मुक्त हो गये हैं। यहाँ आते ही जो आनन्दानुभूति होती है वह अकथनीय है। यहाँ आने वालोंको कोई असुविधा नहीं होती; क्योंकि नि:शुल्क आवास और उचित मूल्यपर भोजन एवं राशन, बर्तन इत्यादि आवश्यक सामग्री उपलब्ध है।
श्री ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, चूरू
जयदयालजी गोयन्दकाने इस आवासीय विद्यालयकी स्थापना इसी उद्देश्यसे की कि बचपनसे ही अच्छे संस्कार बच्चोंमें पड़ें और वे समाजमें चरित्रवान्, कर्तव्यनिष्ठ, ज्ञानवान् तथा भगवत्प्राप्ति प्रयासी हों। स्थापना वर्ष 1924 ई0 से ही शिक्षा, वस्त्र, शिक्षण सामग्रियाँ इत्यादि आजतक नि:शुल्क हैं। उनसे भोजन खर्च भी नाममात्रका ही लिया जाता है।
गीताभवन आयुर्वेद संस्थान : जयदयालजी गोयन्दका पवित्रताका बड़ा ध्यान रखते थे। हिंसासे प्राप्त किसी वस्तुका उपयोग नहीं करते थे। आयुर्वेदिक औषधियोंका ही प्रयोग करते और करनेकी सलाह देते थे। शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियोंके निर्माणके लिये पहले कोलकातामें पुन: गीताभवनमें व्यवस्था की गयी ताकि हिमालयकी ताजा जड़ी-बूटियों एवं गंगाजलसे निर्मित औषधियाँ जनसामान्यको सुलभ हो सकें।