उमेश तिवारी
उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी का निधन हो गया है। हरिशंकर तिवारी की गिनती कद्दावर नेताओं में होती थी। निधन की सूचना मिलते ही उनके घर और गोरखपुर हाता पर समर्थकों की भीड़ जुट गई है। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे। कल उनका अंतिम संस्कार होगा। उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी का मंगलवार शाम निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे। कल उनका अंतिम संस्कार होगा। उन्होंने 86 वर्ष की उम्र में गोरखपुर स्थित आवास पर अंतिम सांस ली। हरिशंकर तिवारी की गिनती कद्दावर नेताओं में होती थी। निधन की सूचना मिलते ही उनके घर और गोरखपुर हाता पर समर्थकों की भीड़ जुट गई है। यूपी की कई सरकारों में मंत्री रहे हरिशंकर तिवारी एक माने में पूर्वांचल के बाहुबली कहे जाते थे। उनके बेटे भी राजनीति में संसद और विधायक रह चुके हैं।
चिल्लूपार विधानसभा क्षेत्र से वयोवृद्ध बाहुबली हरिशंकर तिवारी का नाम बार-बार उभरकर सामने आता है. वे इस सीट से लगातार 22 वर्षों (1985 से 2007) तक विधायक रहे। पूर्वांचल के ब्राह्मणों में अच्छी पैठ रखने वाले हरिशंकर तिवारी पांच बार कैबिनेट मंत्री रहे। वे छह बार विधायक बने। हरिशंकर तिवारी ने पहला चुनाव 1985 में निर्दलीय लड़ा था, फिर अलग-अलग राजनीतिक दल के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतते रहे। तीन बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर जीते व यूपी सरकार में मंत्री भी बने थे। 2007 के चुनाव में बसपा ने राजेश त्रिपाठी को अपना प्रत्याशी बनाकर चुनाव मैदान में उतार दिया था।
अखिलेश यादव ने जताया दुख
हरिशंकर तिवारी के निधन पर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट कर दुख जताया है। उन्होंने ट्वीट किया, ‘पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी जी का निधन, अत्यंत दुखद! ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति और शोक संतप्त परिवार को यह असीम दुख सहने की शक्ति प्रदान करे। भावभीनी श्रद्धांजलि!’
कैसा था वर्चस्व
सन 1986, जिला- गोरखपुर, स्थान- बड़हलगंज, कांग्रेस और ब्राह्मणों के बड़े नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी नेशनल डिग्री कॉलेज के एक प्रोग्राम में आमंत्रित थे। आयोजक थे पंडित हरिशंकर तिवारी जो जेल में रहते हुए निर्दलीय विधायक चुने गए थे। तब सूबे के मुख्यमंत्री थे वीर बहादुर सिंह। आयोजन खत्म हुआ तो कमलापति त्रिपाठी के काफिले को छोड़ने के लिए तिवारी 3 किलोमीटर दूर दोहरीघाट तक गए जो मऊ जिले में आता है। लौटते समय पुलिस ने गोरखपुर की सीमा में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हल्ला मचा कि वीर बहादुर सिंह तिवारी का एनकाउंटर कराना चाहते हैं। पुलिस उन्हें लेकर गोरखपुर की तरफ निकली। खबर जंगल में आग की तरह फैली। तब मोबाइल का जमाना नहीं था लेकिन मुख्यालय तक पहुंचते-पहुंचते गाड़ियों का काफिला लंबा हो गया। तकरीबन 5000 लोगों ने थाना घेर लिया।
हरिशंकर तिवारी जब गिरफ्तार हुए
उधर कमलापति त्रिपाठी बनारस पहुंचे तो उन्हें पता चला कि हरिशंकर तिवारी को गिरफ्तार कर लिया गया है। उन्होंने सीएम से बात की। इधर पब्लिक मरने-मारने पर ऊतारू थी। ‘बम-बम शंकर, जय हरिशंकर’ के नारे जैसे-जैसे तेज होते जा रहे थे, पुलिस पसीने-पसीने हुई जा रही थी। आखिरकार तिवारी को छोड़ना पड़ा और यही वह पल था जब हरिशंकर तिवारी ब्राह्मणों के नेता हो गए। गोरखपुर को गोरखनाथ की धरती के रूप में जाना जाता था। तब गोरक्षनाथ पीठ को कोई चुनौती नहीं दे सकता था। चाहे दिग्विजय नाथ रहे हों या महंत अवैद्यनाथ दरबार लगते रहे और वहां से फरमान जारी होते रहे। प्रशासन की हिम्मत नहीं होती थी कि कोई उसे नकार सके। महंत ठाकुर होते, कांग्रेस से उनका कोई लेना-देना नहीं होता, वह RSS से जुड़े होते। मठ के आगे सीएम की भी नहीं चलती। 1970 के दशक में गोरखपुर में छात्र नेता हुआ करते थे रवींद्र सिंह ठाकुरों की ठसक तो उनमें थी लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते थे। उनके शागिर्द हुए वीरेंद्र प्रताप शाही जो अपनी बात मनवाने के लिए किसी हद तक जाने की कूवत रखते थे। रवींद्र सिंह गोरखपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष चुन लिए गए। मठ पर पहले से ही ठाकुरों का वर्चस्व था, अब यूनिवर्सिटी में भी दबदबा हो गया। मठ और विश्वविद्यालय मिलकर गोरखपुर को मुकम्मल करते थे। ब्राह्मण पढ़ने में बेहतर थे, ऐसे में हर काम में आगे रहना वो अपना हक मानते थे।
हरिशंकर तिवारी बनाम वीरेंद्र प्रताप शाही
हरिशंकर तिवारी को ठाकुरों का वर्चस्व खलता था। उन्होंने परिस्थितियां भांप ली थीं। वो कद में छोटे थे लेकिन दिमाग तेज चलता था। वह प्लान बनाते फिर अमल करते। उन्होंने तय कर रखा कि कब क्या करना है। जो अपना हो गया वह कितना गलत क्यों न हो उसे प्रश्रय देकर कैसे हमेशा के लिए अपने साथ करना है वो बखूबी जानते थे। आदमी को देखकर जान लेते कि यह कितना दूर जा सकता है। जुबान से कम इशारों में ज्यादा कह जाते। किसी को मुंह नहीं लगाते. उन्हें लोगों ने मुस्कुराते तो देखा लेकिन ठहाके की हंसी उनकी शायद ही किसी ने सुनी हो। दूसरी ओर वीरेंद्र प्रताप शाही थे। खांटी ठाकुर. जिसे चाहते उस पर लुटा देते। नाराज होते तो उसे सार्वजनिक रूप से बेइज्जत करते। खुले में दरबार लगाते और कब-कब क्या किया है ये सब बोल जाते। खुलेआम धमकी देते और मरने-मारने पर उतारू हो जाते। जुबान के इतने पक्के कि निर्दल लड़ने का ऐलान किया तो जनता पार्टी के कहने पर भी टिकट नहीं लिया।
रवींद्र सिंह ने उन्हें तराशा
रवींद्र सिंह बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बन गए। इसके बाद 1978 में जनता पार्टी से विधायक बन गए। कुछ दिनों बाद ही गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई, विधायक के अंगरक्षक की गोली से जो हमलावर मारा गया वह गाजीपुर का कोई तिवारी निकला। इसके बाद वीरेंद्र प्रताप शाही को ठाकुरों ने अपना नेता मान लिया। उन्हें ‘शेरे पूर्वांचल’ कहा जाने लगा।
गोरखपुर में कमरा किराए पर लेकर रहते थे
हरिशंकर तिवारी पहले गोरखपुर में कमरा किराए पर लेकर रहते थे। बाद में उन्होंने ‘हाता’ बनाया जहां आने जाने वालों का हुजूम लगा रहता। जेपी आंदोलन में उन्होंने भले ही भाग न लिया हो लेकिन युवाओं की ताकत जान गए। उन्होंने ब्राह्मण युवाओं को गोलबंद करना शुरू किया और इसे उनकी अस्मिता से जोड़ दिया। हरिशंकर तिवारी को बनाने में एक ब्राह्मण डीएम का भी हाथ माना जाता है जो मठ के आदेशों पर अमल करना अपनी हेठी समझते थे। उन्हें तलाश थी ऐसे नौजवान की जिसके कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगा सकें और मठ को चुनौती दे सकें। हरिशंकर तिवारी इसमें फिट बैठे। ‘हाता’ पूरी तरह से सक्रिय हो गया। जमीन-जायदाद के झगड़े यहां निपटाए जाने लगे। ठेके टेंडर के फैसले भी यहीं होने लगे। तिवारी प्रशासन की शह पर इतने बड़े हो गए कि बाद में प्रशासन उनके सामने बौना हो गया।