के. विक्रम राव
आदिवासी इलाका मेघालय तथा अत्याधुनिक अमेरिका में एक नए समान प्रचलन ने हलचल मचा दी है। स्वागतयोग्य है। अब संतान को मां के कुलनाम से जाना जाएगा। अमेरिका में तो पति भी पत्नी का कुलनाम अपने नाम में जोड़ रहे हैं। समरसता को बोध हो रहा है। मेघालय से तो गत सप्ताह की खबर बड़ी मनभावनी है। खासी जनजाति परिषद ने निर्णय किया है कि मां के नाम से ही शिशु जाना जाएगा। तभी मान्य प्रमाण पत्र जारी किया जाएगा। अब दो अन्य जनजातियों गारों तथा जैंतिया भी इसी का अनुमोदन करेंगी। इसे अपनाएंगी। हालांकि मेघालय की वायस ऑफ पीपुल्स पार्टी (वीपीपी) के अध्यक्ष विधायक आर्डेन्ट मिल्लर वसईमोइट ने इस परिपाटी का विरोध किया है। उन्होंने मांग की कि पिता का ही नाम संतान को मिले।
फिलवक्त यहां पर अमेरिका की ही चर्चा हो जहां बड़ी तेजी से हजारों पुरुष अपनी पत्नी का कुलनाम स्वयं अपना रहे हैं। उनका मानना है कि इससे दांपत्य स्नेह में वृद्धि हो रही है। स्निग्घता पनप रही है। कईयों का विश्वास है कि इससे पत्नियों का भरोसा उन्हें भरपूर मिला है। एक अनुमान में पता चला है कि पुरुषों के परिवार वालों ने इस चलन का विरोध किया है। कारण ? पति के कुटुंब की पहचान मिट जाएगी। पश्चिमी समाज में मूलतः भारतीय कुटुंबों की प्रथाओं से कोई अलग नहीं है। फिर भी सर्वेक्षण के विश्लेषण मिल रहे हैं कि परिवार में सौहर्द्र बढ़ा है। अब पत्नी/मां का महत्व दुगुना हो गया है। बहु-प्रसारित दैनिक “न्यूयॉर्क टाइम्स” में संवाददाता सुश्री रूशेल साइमन की पड़ताल पर आधारित रपट काफी दिलचस्प है। रुशेल लिखती हैं कि : “फिलाडेल्फिया के 27 साल के जेसन क्रेमर का कहना है कि वह बचपन से ही अपने नाम जेसन के आगे हेइटलर क्लेवांस सरनेम लगाते रहे हैं। जब मेरी शादी हेलेन क्रेमर से तय हुई तो मुझे लगा कि क्यों न पत्नी का सरनेम अपनाया जाए। ऐसा कर मैंने परिवार वालों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि शादी को लेकर मैं इतना गंभीर हूं। इतना ही नहीं, मैं यह भी बताना चाहता था कि हेलेन के लिए मैं ताउम्र समर्पित रहूंगा। मेरे लिए मेरा सरनेम नहीं, बल्कि हेलेन का प्यार ज्यादा अहम है। मैनहट्टन के 43 साल के जोसेफ वेलेंटाइन कहते हैं कि मैंने पत्नी का टेल का (अंत का) वैलेंटाइन वाला सरनेम सिर्फ इसलिए अपनाया क्योंकि यह सुनने में बहुत अच्छा लगता था। मैं अपने पिता से कभी नहीं मिला। वह चेक रिपब्लिक के थे। मुझे मां ने पाल-पोस कर बड़ा किया। पिता का सरनेम ग्राज्नर था जो बोलने में आसान नहीं था इसीलिए मैंने अपना नाम सरनेम वैलेंटाइन रख लिया।” मैसाच्युसेट्स के 33-वर्षीय साइंस टीचर नाथन शुलमन ने अपनी पत्नी अमायरा शुलमन का सरनेम अपनाया है। कारण अमायरा की सारी बहनों ने अपने पति का सरनेम अपनाया था। अमायरा भी चाहती थी कि नाथन उनका सरनेम अपनाएं।
भारत में पुरुष-सतात्मक समाज के दबाव के कारण अमूमन पत्नी अपने पति को कुलनाम ही शादी के बाद अपना लेती हैं। मराठी परिवारों में तो प्रथा ज्यादा कहीं दूर तक जाती है। वधु का पूरा नाम ही बदल दिया जाता है। मगर हाल ही में यह कमतर होता जा रहा है क्योंकि नौकरीपेशावाली महिलाओं को कानूनी संकट का सामना पेश आ रहा है। समानता के इस युग में प्रश्न भारी पड़ रहा है कि पति भी क्यों न अपना कुलनाम बदल लें ? बीबी ही क्यों ? इस नियम का आधारभूत यही कारण है कि पत्नी के ससुराल वाले इसे अपनी तौहीन मानते हैं। हीनता भी। कानून तो नहीं है, पर पुरानी परंपरा तो है ही, पालन हेतु। यूं सभ्यता के विकास के बावजूद लैंगिक प्रभाव और वर्चस्व अभी घटा नहीं है। कारण यही है कि कुटुंब का मुखिया पुरुष होता है जिसके शैक्षणिक तथा वित्तीय कारणों का रुतबा है।
पति क्यों जोरू-दास कहलाए ? एक समझौते के तहत यह चलन भी देखा गया है कि कुछ युगल ने दोनों उपनाम के दरम्यान हल्की सी लघु रेखा खींचकर दोनों कुटुम्बों को जोड़कर एक नूतन प्रयोग किया है। इससे संतुलन और सामंजस्य बन भी जाते हैं। मगर नाम लंबा हो जाता है। आमतौर पर पत्नियों ने इस शैली को पसंद किया क्योंकि यह डबल इंजन जैसा हो जाता है। खासकर संतान को माता-पिता के दोनों कुलों की पहचान से लाभ होता है। मसलन कोई द्विवेदी युवती किसी चतुर्वेदी युवक से शादी कर ले तो छः वेदों के ज्ञान का दावा शायद कर पाएगी। हालांकि वेद केवल चार ही हैं। तो उपनिषदों को भी समाहित कर लेगी। “टाइम्स ऑफ इंडिया” में हमारे एक साथी हैं, प्रख्यात अर्थशास्त्री भी। तमिल विप्र हैं मगर पाणिग्रहण हुआ है एक अग्नि-उपासक पारसी अंकलेसरिया परिवार में। वे तो अपना पूरा नाम लिखते हैं : “स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर।” यूं यह डबल कालम तक फैल जाता है। लखनऊ के एक कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन नेता और नाटककार हैं राकेश। उनका विवाह हुआ है तमिल वैष्णव अय्यंगार रामानुजम परिवार की युवती से। अतः वे लिखते हैं “राकेश-वेदा।” बड़ा भला और प्रगतिशील लगता है। अर्थात केवल नारी ही नाम क्यों बदले ? क्यों अपना कुल छोड़े ? राकेश ने क्रांतिकारी कदम उठाया है।
एक गमनीय संशोधन जो विवाह निमंत्रण कार्डों पर आजकल दिखता है उसमे वधू के पितामह-पितामही के साथ नाना-नानी का नाम भी लिखा जाने लगा है। वर की भांति। अब पति पर दारोमदार है कि वह कितना आगे देखू बनता है ? कितना प्रगतिशील है? निजी उल्लेख एक पुछल्ले के तौर पर कर दूं। मेरी पत्नी के नाम डा. सी. सुधा, पुत्री स्व. प्रोफेसर सी.जी. (कडुवेटी गुरुसुब्रमण्यम) विश्वनाथन था। मगर मेरे चारों साले अंत में “राव” ही कुलनाम लिखते हैं। तो मेरी पत्नी ने बड़ी खुशी से “राव” अपने नाम में जोड़ लिया। अतः वह भी अपने सहोदरों की भांति “राव” बन गई। मुझे तनिक भी जोड़-घटाना नहीं करना पड़ा।