राजदंड इतिहास को झुठलाएगा! आजादी कुर्बानी से मिली है!!

के. विक्रम राव


अगर भारत के बीसों विपक्षी दलों, मुख्यतया सोनिया-कांग्रेस पार्टी, में बौद्धिक हिम्मत, सियासी सदाशयता, नैतिक दृढ़ता और जनवादी पक्षधरता हो तो उन्हें संसद भवन में इसी रविवार को रखें जाने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवादी राजदंड के प्रतिष्ठापन का विरोध करना चाहिए। सम्राट जॉर्ज षष्टम (जो अधिक तंबाकू सेवन से 56 की आयु में ही हृदयाघात से चल बसे थे) ने अपनी एजेंट लॉर्ड माउंटबेटन के हाथों (14 अगस्त 1947) यह राजदंड मनोनीत कांग्रेसी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को हस्तांतरित किया था। राजशाही का प्रतीक था। तब से ब्रिटिश राज का अंत हुआ, कामनवेल्थ युग शुरू हुआ। नेहरू के प्रपौत्र राहुल गांधी यूरेशियन होने के नाते इस बर्तानवी राजशाही के चिन्ह को बेहतर समझेंगे ! नेहरू ने खुद बताया था : “भारत पर शासन करनेवाला मैं अंतिम अंग्रेज हूं।” (लेखक स्टेनली वालपोल की पुस्तक “नेहरू : ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी।” पृष्ठ 379, प्रकाशक : ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय)।

ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक, भारत के अंतिम वायसराय ने नेहरू से पीएम बनने से कुछ ही दिनों पहले पूछा कि आप देश की आजादी को किसी खास प्रतीक के जरिए पाना चाहते हैं ? नेहरू ने तब मद्रास के राजगोपालाचारी से पूछा। उन्होंने राजदंड भेंट करने वाली तमिल परंपरा के बारे में बताया जिसमें राज्य का महायाजक (राजगुरु) नए राजा को सत्ता ग्रहण करने पर एक राजदंड भेंट करता है। प्रसंगवश तनिक विचार करें सेंगल (तमिल भाषा में राजदंड) की उत्पत्ति कैसे हुई ? करीब नौ शताब्दी पूर्व तमिल प्रांत में राजेंद्र चोला नामक राजा हुआ था। उसने पाटलिपुत्र के पाल वंश के सम्राट महिपाल को हराया था। पांडयन वंश से हारने के पूर्व तक चोला दरबार में नए राजा को एक सोने की छड़ी दी जाती रही। उसे राजदंड कहते थे। राजगोपालाचारी ने कहा कि “आपको पीएम बनाते समय माउंटबेटन आपको ऐसा ही राजदंड सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में दे सकते हैं।” नेहरू राजी हो गए। राजगोपालाचारी ने थिरुवदुथुरै अधीनम मठ से संपर्क किया। मद्रास क्षेत्र के एक जौहरी को सोने का राजदंड मढ़ने को कहा गया। उसके ऊपर नंदी की आकृति भी उभारी गई।

अर्थात प्राचीन रजवाड़ों की परिपाटी को संवारते हुए अनीश्वरवादी नेहरू ने संसद जाने के कुछ ही क्षण पूर्व पीतांबर ओढ़कर, माथे पर विभूति मलकर, ब्रिटिश वायसराय द्वारा प्रदत्त इस स्वर्ण राजदंड को स्वीकार। अंतरराष्ट्रीय कानून में वे इस श्वेत साम्राज्य के अश्वेत उत्तराधिकारी बन गए। फिर उन्होंने इसे अपने गृह नगर इलाहाबाद के म्यूजियम में रखवा दिया। उस पर लिख दिया : “माउंटबेटन द्वारा नेहरू को भेंट दी गई सोने की छड़ी।” इलाहाबाद विश्वविद्यालय के (रिटायर्ड) इतिहास विभागाध्यक्ष प्रो. हेरंब चतुर्वेदी ने राय दी कि “नेहरू की इस छड़ी” को म्यूजियम में ही रखना उचित था। नेहरू का यह राजदंड इतने वर्षों से प्रयागराज के जिस संग्रहालय में रखा गया था वहीं एक उद्यान है जहां क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को ब्रिटिश पुलिस ने गोलियों से भून दिया था।

ऐसा ही राजदंड आजादी के चंद मिनटों पूर्व (14 अगस्त 1947) आधी रात को लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को भी भेंट दिया था। यह प्रतीकात्मक था कि स्वाधीन भारत का नया शासन अंग्रेजी राज का सिलसिला ही जारी रखता है। असली क्या मायने होंगे ? अर्थात एक ही कुटिल दांव में ब्रिटिश राज ने उन लाखों भारतीयों के त्याग को नकार दिया जो जंगे आजादी में शहीद हुए थे। सन 1857 से 1947 तक जितने भारतीय स्वाधीनता सेनानियों (सुभाष बोस और भगत सिंह मिलाकर) ने त्याग किए, बलिदान दिया, यातना सही, वह सब इतिहास में यही दर्ज है। मगर अब एक झूठ फिर फैलेगा कि “भारत में सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, न कि उसे हासिल किया गया था।” गोरों की दया और कृपा से मिला है। यह ध्रुव सत्य है कि अंग्रेज भगाए गए थे। मगर इस राजदंड के द्वारा नेहरू ने साबित कर दिया था कि सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। उसे हासिल नहीं किया गया।

कैसी विसंगति है ? संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर आम वोटर द्वारा अपार बहुमत से निर्वाचित सांसद (प्रधानमंत्री) को यही विपक्ष दोयम दर्जे पर रखना चाहता है। मगर मुट्ठी भर सांसदों तथा विधायकों द्वारा चुने गए राष्ट्रपति को उनके ऊपर। राष्ट्रपति तो सरदार जैल सिंह भी थे जिनकी मशहूर उक्ति थी : “यदि इंदिरा गांधी कहें तो मैं झाड़ू भी लगा सकता हूं।” कांग्रेस प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी का विरोध (अगस्त 1969) करते इन्दिरा-कांग्रेसियों ने पर्चा बटवाया था कि “यदि रेड्डी जीते तो हर महिला अकेले राष्ट्रपति भवन जाने में हिचकेंगी।” हालांकि बाद में जनता पार्टी (मोरारजी देसाई) ने इन्हीं रेड्डी को (25 जुलाई 1977) छठे राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित किया था।
याद रहे प्रथम स्वाधीनता क्रांति की शताब्दी (10 मई 1957) पर राममनोहर लोहिया के आह्वान पर अंग्रेजी प्रतीकों को हटाने का संघर्ष चला था।

तब हम युवाओं ने लखनऊ के जीपीओ पार्क से ब्रिटिश बादशाह की मूर्ति तोड़ने का प्रयास किया था। शीघ्र ही विंध्याचल के उत्तर में तो गुलामी की इन निशानियों के खिलाफ अभियान जबरदस्त रूप से सफल हुआ। किन्तु तमिलनाडु जहां से राबर्ट क्लाइव ने राज किया था, में आज भी ब्रिटिश मूर्तियां लगी हुई हैं। त्रासदीपूर्ण है। अब उसी दक्षिणी प्रदेश के मध्ययुगीय चोला सामंतो की परंपरा की नकल करते उनके राजशाही वाले निशान को प्रतिष्ठित किया जा रहा है। यह आजादी का फूहड़ मखौल होगा। प्रजातंत्र में राजतंत्र के पहचान को संवारने का क्या तुक है ? नेहरू ने माउंटबेटन से यारी निभाई तो इसके मायने नहीं कि उनके उत्तराधिकारी भी उसी लीक पर चलें। कैसी विडंबना है कि वह दिन 28 मई 2023 अदम्य साहसी, क्रूर जुल्मों के शिकार, 1857 पर पुस्तक के लेखक, भूमिगत क्रांतिकारी दल “मित्र मेला” तथा “अभिनव भारत” के संयोजक, लोकमान्य तिलक के शिष्य, वीर विनायक दामोदर सावरकर की 140वीं जयंती भी होगी !

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