मुद्रण क्षेत्र में एक अजूबा, प्रकाशन जगत में अचंभा और धर्म साहित्य में अद्भुत है गीता प्रेस, गोरखपुर। इसके शताब्दी वर्ष समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल होंगे, बताया प्रबंधक लालमणिजी तिवारी ने। इसके द्वारा प्रकाशित सदाचार की पुस्तकों को पढ़कर ही मेरी पीढ़ी बड़ी हुई है। पहले की पुश्तें भी, कई बाद वाली भी। असंख्य लोग प्रभावित हुये हैं। इसी भावना को लिखकर अभिव्यक्त किया था सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति तमिलभाषी एम. दुराईस्वामी ने जब आगंतुक रजिस्टर में उन्होंने लिखा था : “गीता प्रेस आना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।” अनीश्वरवादी जवाहरलाल नेहरू भी यहां पधार चुके हैं। “गीता प्रेस राष्ट्र सम्मान का श्रेष्ठतम हकदार है”, कहा था मानस-निष्णात, अर्धशती से रामकथा वाचक मोरारी बापू ने। बी. सत्यनारायण रेड्डी यहां मुद्रित माचिस आकार की गीता सदैव अपनी जेब में रखते रहे। वे उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और बंगाल का राज्यपाल, लोहियावादी सोशलिस्ट थे, जो मात्र 14 वर्ष की आयु में 1942 में चंचलगुडा जेल (हैदराबाद) में थे। फिर 1947 में जालिम निजाम मीर उस्मान अली खां के विरुद्ध जनांदोलन में जेल गये। सीखचों के पीछे से ही साप्ताहिक “पयामे-नवा” का संपादन किया। बाबरी ढांचे के ध्वंस के दौरान वे यूपी के राज्यपाल थे और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री।
गीताप्रेस की स्थापना 1923 में महान गीता-मर्मज्ञ श्री जयदयाल गोयन्दका ने की थी। इनके निःस्वार्थ सेवा-भाव, कर्तव्य-बोध, दायित्व-निर्वाह, प्रभुनिष्ठा, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना और आत्मोद्धार की जो सीख दी है, वह एक अनुकरणीय आदर्श है। गोरखपुर में एक छोटा-सा मकान लेकर लगभग 10 रुपए के किराए पर (23 अप्रैल 1923) प्रेस की स्थापना हुई थी। नाम रखा गया गीताप्रेस। यहां से शुद्ध मुद्रित गीता, कल्याण, भागवत, महाभारत, रामचरितमानस तथा अन्य धार्मिक ग्रंथ सस्ते मूल्य पर जनता के पास पहुंचाने का श्रेय स्व. जयदयालजी गोयंदका को ही है। गीताप्रेस द्वारा मुख्य रूप से हिंदी तथा संस्कृत भाषा में साहित्य प्रकाशित होता था। किंतु अहिंदीभाषी लोगों की सुविधा को देखते हुए अब तमिल, मेरी मातृभाषा तेलुगु, मराठी, कन्नड़, बंगला, गुजराती और उड़ीसा आदि प्रांतीय भाषाओं में भी पुस्तकें प्रकाशित की जा रही हैं। इस योजना से करोड़ों पाठकों को लाभ भी हुआ है। अंग्रेजी भाषा में भी कुछ पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। रामचरितमानस का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी किया जाता है। अब न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी यहां का प्रकाशन बड़े मनोयोग एवं श्रद्धा से पढ़ा जाता है। प्रवासी भारतीय भी गीता प्रेस का साहित्य पढ़ने के लिए आतुर रहते हैं।
अब आम पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन संस्थानों से गीताप्रेस की समता करें। मुद्रण लागत के करीब चालीस प्रतिशत मूल्य पर ही गीताप्रेस के प्रकाशन मिलते हैं। न यह अनुदान चाहता है, न विज्ञापन। रोज पचास हजार से अधिक पुस्तकें छपती हैं। प्रेस का लेखा-जोखा देखकर हर मायने में अर्थशास्त्री और मार्केटिंग प्रबंधक दातों तले ही उंगली दबाएंगे। गीता प्रेस अपनी पुस्तकों में जीवित व्यक्ति का चित्र कभी नहीं छापता है और न ही कोई विज्ञापन प्रकाशित होता है। मासिक पत्रिका “कल्याण” की इस समय सवा दो लाख प्रतियां छपती हैं। वर्ष का प्रत्येक पहला अंक विशेषांक होता है।
गीताप्रेस की स्थापना की कहानी रोचक है। स्व. जयदयाल गोयदंका ने गोविंद भवन ट्रस्ट की स्थापना कर कोलकाता में सत्संग शुरू कर दिया था। उस समय गीता सर्वसुलभ नहीं थी। इसीलिए उन्होंने शुद्ध व सस्ती गीता छपवाकर लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। पुस्तक छपने के दौरान उन्होंने इतनी बार संशोधन किया कि एकदा प्रेस मालिक हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहा : “इतनी शुद्ध गीता छपवानी है तो अपना प्रेस लगवा लीजिये।” उसकी बात को भगवान की इच्छा मानी और उन्होंने दूसरे दिन यह बात अपने सत्संग में रखी। उस समय गोरखपुर के घनश्यामदास जालान और महावीर प्रसाद पोद्दार भी उपस्थित थे। जालानजी ने कहा : “सेठजी, यदि गोरखपुर में लगे तो उसकी संभाल मैं कर लूंगा।” इसके बाद यहां 1923 में उर्दू बाजार में दस रुपए मासिक किराए पर एक कमरा लिया गया। वहीं वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन 29 अप्रैल को गीता की छपाई शुरू हुई थी। जुलाई 1926 में दस हजार रुपए में साहबगंज के पीछे एक मकान खरीदा गया जो आज गीता प्रेस का मुख्यालय है। धीरे-धीरे परिसर का विस्तार हुआ। दो लाख वर्ग फीट में फैले इस परिसर में 1.45 लाख वर्ग फीट में प्रेस तथा शेष में मकान व दुकानें हैं।
अपने सौ साल की संघर्षमय लोक-कल्याणकारी कार्यवाले गीता प्रेस के मुद्रण का इतिहास बड़ा रोमांचक है। ट्रेडल की छापा मशीन और हाथ-कंपोजिंग से प्रारंभ कर आज वह अत्याधुनिक प्रिंटिंग प्रेस से युक्त है। फिर अमेरिकी बोस्टन मशीन ली। गीता प्रेस का संग्रहालय भी देखने लायक स्थल है। कभी मैं मुड़कर देखता हूं तो मुझे लगता है कि अनजाने में मुझ से एक पाप होने से बच गया। दो दशक बीते, कुछ साथियों का आग्रह था कि गीता प्रेस में ट्रेड यूनियन बनाई जाए। दिल नहीं माना। मैंने विरोध किया। कारण ? गीता प्रेस एक जनकल्याणकारी प्रयोग है। आमजन का भला करना इसका लक्ष्य है। यह कोई मुनाफाखोर, शोषक संस्था नहीं है। यहां वर्ग संघर्ष सर्जाने के मतलब उसके आदर्श को क्षीण करना हानि, पहुंचाना होगा। हालांकि भारत में कई शोषक प्रेस मालिकों के अभेद्य दुर्गों को हम, इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ), के श्रमिकों ने तोड़ा है, ढा दिया है। गीता प्रेस एक देवप्रिय, प्रजाहितकारी अध्यात्म केंद्र रहा है। मगर हमारा अनुरोध रहा इस प्रेस के कर्ताधर्ताओं से कि कर्मियों के कल्याण की उपेक्षा न की जाए। यह मानवता का तकाजा है। मगर विषाद हुआ यह जानकर कि कुछ न्यस्त स्वार्थी तत्वों ने गीताप्रेस की बंदी की अफवाह उड़ाकर उगाही चालू कर दी थी। यह जुर्म है, गुनाह है। सत्कार्य में विघ्न उत्पन्न करने वाला कुकुर की योनि में जन्मते हैं। देवस्थलों के इर्द-गिर्द आवारा कुत्तों को देखने से यही प्रतीत भी होता है कि पिछले जन्म में जरूर आस्थावानों को ये पंडे बनकर धोखा देते होंगे, लूटते होंगे। गीता प्रेस एक आराध्य स्थल है। यहां अनाचार बर्दाश्त के बाहर है। लीला पुरुषोत्तम अच्युत केशव इसकी रक्षा करें।