सकारात्मक मन की भावभूमि से रची पुस्तक है-‘नौकरस्याही के रंग’

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी-ओएसडी रह चुके हैं। आप अहिंसा आयोग और अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं।


पुस्तकें मनुष्य की कई पहेलियों को शांत कर देती हैं और पाठक पर अपनी एक नई छाप छोड़ देती हैं, बस पाठ करने वाला व्यक्ति उसकी संवेदना को मनोयोग से समझ भर पाए। लेखक की संवेदना को पकड़ पाए। पुस्तक जिस भावभूमि पर रची जाती है, उसे पाठक तभी उसी रूप में ले पाता है जब वह विषय के साथ खुद को कनेक्ट करता है। पुस्तक के विषय वस्तु से तभी तादात्म्य बना पता है, जब उस पुस्तक में अपने अक्स को भी टटोल पाता है। देखा जाए तो यह एक रचनाकर की परीक्षा भी होती है। ऐसे में,किसी रचना प्रक्रिया में लेखक की उपस्थिति ही पाठक को बांधकर रखती है, ऐसा कहा जा सकता है।

‘नौकरस्याही के रंग’ एक ऐसी पुस्तक है जिसमें ज्ञानेश्वर मुले बहुत तारतम्यता से अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं को उंकेरते हैं। पाठक इस पुस्तक को पढ़कर अपनी जीवनचर्या के साथ उसके अंश को जोड़ता है, और यह समझने की कोशिश करता है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाही किस प्रकार दखल रखती है। पुस्तक का उद्देश्य बहुत साफ है। पुस्तक के लेखक ज्ञानेश्वर मुले ने कुछ पंक्तियों में इसके उद्देश्य को कुछ इस प्रकार रेखांकित किया है,‘जनता और नौकरशाही में विश्वास का रिश्ता बनाना मैंने अपना कर्तव्य समझा है। जनता आज भी नौकरशाही की कार्यप्रणाली के बारे में बहुत कम जानती है। इस अंतर को कम करने का प्रयास इस पुस्तक के माध्यम से मैंने किया है।’ इसमें न केवल लेखक का अपना हेतु स्पष्ट होता है बल्कि एक कर्त्तव्यनिष्ठ नौकरशाह जब अपने जीवन के तरन्नुम को अपनी साज पर परखता है तो वह जन का हो जाता है, ऐसा प्रतीत होता है।

ऐसा देखा गया है कि जनता चाहे जहां की हो,वह भोली होती है। उसके भीतर नौकरशाही को लेकर कई तरह के सवाल होते हैं। उसमें नौकरशाही सेभय अंग्रेजों के जमाने से जो बनी, वह आज भी कायमहै। नौकरशाही उनके लिए सचमुच अभी भी हौवा बनी हुई है। आज़ादी के 75 साल बाद भी दलित हों, आदिवासी हों, गृहिणी हों या श्रमिक वर्ग के लोग, उनके लिए नौकरशाह ‘साहब’ है। उसके नाराज़ होने का अर्थ भी ऐसे तबके के लोगों के लिए बहुत भयानक ही होता है। राज्य इसे अपने तंत्र के संचालक के रूप में देखते हैं, और नौकरशाह आमजन को एक भीड़। ऐसे में, ज्ञानेश्वर मुले संविधान में प्रतिष्ठित मनुष्य को आत्मीय बताते हैं और उदारमना होकर नौकरशाह को मित्रवत समझने के लिए इस पुस्तक का सृजन करते हैं। यह नागरिक समाज के लिए व्यक्ति का सम्मानबोध है। ज्ञानेश्वर मुले ने बहुत ही सच्चे में से अपनी पुस्तक में यह बात कही है कि नौकरशाही में काम करने वाले लोग किसी दूसरे गृह से अवतरित नहीं होते। समाज में ही तैयार हुए वे हाँड़मांस के आदमी होते हैं। फिर भी सामान्य जनता के मन में नौकरशाही के प्रति अपनापन नहीं लगता और नौकरशाही को सामान्य जनता के बारे में आस्था नहीं होती। यह ऐसा क्योंकर होता है?

पुस्तक में प्रवेश करते हुए पाठक को एक सुंदर सी कविता पढ़ने को मिलती है-‘कार्यवाही शुरू रहेगी’, कविता की पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं- विचारधीन कागज-सा फाइल में पड़ा…/डाला है मुझ पर आवक क्रमांक, मुहर और तारीख/ मुझ पर लिखेंगे निबंध, प्रबंध सारांश/ एक टेबल से दूसरे डेस्क पर फटका जाएगा/मेरे अस्तित्व का ध्यान न रखते हुए/….(पृष्ठ-20) यह लेखक की सृजनात्मकता का प्रथम परिचय इस बात को दर्शाता है कि लेखक ज्ञानेश्वर मुले सीधा-सपाट किसी बात को कहने से पूर्व अपनी सृजनात्मक शक्ति के प्रयोगधर्मी स्वभाव को खुद से अलग नहीं करते हैं। वह सीधे पाठक के हृदय-तल में उतरकर उसके अंतःकरण को छू लेना चाहते हैं। इसे पढ़कर लगता है, कि पाठक काव्य-आस्वाद के साथ ही सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ने के लिए बेचैन हो जाएगा। इस पुस्तक को आदिरंग, विश्वरंग, पूर्वरंग, मध्यरंग, उत्तररंग और ‘अन्त’रंग और परिशिष्ट के साथ संयोजित किया गया है। यह सम्पूर्ण रंग मिलकर नौकरस्याही के रंग को पूर्ण बनाते हैं। ज्ञानेश्वर नया कलेवर देते हैं, जिससे नौकरशाही का रंग चटक सा उभरकर सामने आता है। मूलतः इस सभी सृजन को ज्ञानेश्वर मुले ने मराठी में पहले लिखा जिसका बहुत खूबसूरत अनुवाद डॉ. दामोदर खड़से ने किया है। इस मराठी से हिन्दी अनूदित सामाग्री को अब हिन्दी दुनिया के लोग पढ़ सकेंगे और लेखक के मनोभावों को समझ सकेंगे जिसके लिए लेखक और अनुवादक दोनों सम्मान के पात्र हैं। यदि यह सामाग्री अनूदित नहीं होती, तो शायद हिन्दी-पट्टी के लोग इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में संयोजित विचार, एक मधुमय संदेशप्रद स्वर, मैत्री की इस नई उम्मीद भरी कहानी से अछूते रह जाते।

साहित्य में जो लिखा-पढ़ा जा रहा है, वह बहुत विपुल है लेकिन इस पुस्तक के पाठ से एक नया अर्थ निकलता है। बहुत ही समृद्ध भाषा है ज्ञानेश्वर मुले जी की, और कहने का अंदाज़ बहुत ही सुंदर। इसमें एक साथ गद्य की कई विधाओं का भी पुट है जिसे अपनी-अपनी विधा के मर्मज्ञ अपने-अपने अनुसार रेखांकित करेंगे। बहुत काव्यात्मक ढंग से ज्ञानेश्वर मुले ने अपने जीवन के विभिन्न सोपान को कहते हैं और उसमें वह जापान समेत कई देशों की निवर्तमान सभ्यतागत और सांस्कृतिक यात्रा से भी रूबरू कराते हैं, यह लेखक के साहित्य की अपनी शक्ति है, उसकी सोच और प्रस्तुति की शक्ति है।

नौकरस्याही के रंग पढ़ते हुए पाठक एक बार यदि महात्मा गांधीकृत दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का स्मरण करे, तो बहुत सरल शैली में, बहुत सहज भाषा में जिस प्रकार गांधी अपने प्रवास को रेखांकित करते हैं, ज्ञानेश्वर मुले भी जापान और मास्को के सुनहरे पल को उनसे भी श्रेष्ठ शैली में प्रस्तुत करते हैं। दोनों पुस्तकों के दो समय-काल-परिस्थितियाँ हैं, दोनों में संदर्भ और प्रसंग में भिन्नता है लेकिन शैलीगत विशेषताओं को देखें तो गांधी ने अपनी पुस्तक में संघर्ष को रेखांकित किया है लेकिन मुले साहब बहुत ही श्रेष्ठ तरीके से प्रकृति, संस्कृति, सद्भाव और सरोकार को प्रकट करते हैं। एक उदाहरण देखिये उनके लेखन शैली की- ‘मेरा शौक है, कुछ तो नया करने का, सीखने का आदमी खोजने का। संस्थाओं को भेंट देने का। यात्रा करने का। पुस्तकालय देखने का। यह सारी दुनिया कैसी है, कैसे चलती है, कौन चलाता है, उसका परिणाम क्या होता है; यह सब अध्ययन करने का। इस कारण विदेश सेवा के बारे में मेरी शिकायत लगभग नहीं के बराबर है। मेरी समग्र जीवन- खोज को पूरक पोषक वातावरण यहाँ मिला।’ (पृष्ठ 242) वाक्य छोटे किन्तु असरकारक और अपनी उन सभी भावनाओं को उड़ेलने की काला कोई ज्ञानेश्वर मुले से सीखे। एक और खास बात यह इस पुस्तक में देखने को मिलती है कि वह केवल लिखने के लिए नहीं लिखते बल्कि खुद को जानने व अपने देश के गौरवबोध को महसूसते हुए लिखते हैं। मास्को की ही चर्चा करते हुए वह अपने प्रेरणा पुरुष गांधी की बर्फ में स्थायीभाव में खड़े रहने का चित्रण जब वह करते हैं तो ऐसा लगता है कि वह एक रूपक गढ़ रहे हैं। उनके लेखन में उनकी अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि है,उनकी पहली विदेश सेवा जापान के अनुभव हैं, दिल्ली के अनुभव हैं,संविधान व राजनीतिक विषयक अनुभव, विदेशी जन-जीवन, व्यक्ति-प्रकृति-समष्टि, भाषा-परिवेश है। उनके लेखन में भारतीय हैं, भारतीय सभ्यता है, भारतीयों के विपड़न और उनकी स्थानीय स्तर पर समस्याएँ हैं। जब वह जापान की चर्चा करते हैं तो वहाँ के भी उन स्वभावों को प्रकट करते हैं। मुले की दृष्टि में जापान एक नायाब देश है और वहाँ के लोग एक शानदार विनम्रता में डूबे हुए लोग हैं, वहाँ वह बुद्ध की विनम्रता को उनके स्वभाव में महसूस करते हैं। इस प्रकार का रूपक गढ़ने की प्रकृति का प्राकट्य कदाचित पाठक से लेखक को दूर कर सकती है। यही तो ज्ञानेश्वर मुले की अपने लेखन की विशेषता है जो पाठक को बांधकर रखती है।

पुस्तक ‘नौकरस्याही के रंग’ के हिन्दी संस्करण को आलोकपर्व प्रकाशन ने प्रकाशित किया है जो 264 पृष्ठों की पुस्तक है। इसे पाठक एक बार में न भी पढ़े, थोड़ा अंतराल देकर भी पढ़े तो वह पुस्तक से जुड़ा ही रहेगा और उसे वही रसानुभूति होगी जो एक बार में पूरी पुस्तक पढ़ जाने में होती है। बेहतरीन कलेवर और उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ अब यह पुस्तक पाठकों के लिए उपलब्ध है। मुझे लगता है कि इसे पढ़कर हर कोई नौकरशाही के उस पक्ष को समझ सकता है। जो अब भी हमारे मन के कोने में एक पहेली का विषय है। वह ज्ञानेश्वर मुले की रचनाधर्मिता से गुजरते हुए बहुत कुछ सीख सकता है। इस दृष्टि से भी यह पुस्तक बहुत ही महत्वपूर्ण बन पड़ी है।


पुस्तक का नाम:      नौकरस्याही के रंग

लेखक:                   ज्ञानेश्वर मुले,

अनुवाद:               डॉ. दामोदर खड़से

प्रकाशक:             आलोकपर्व प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली-52

प्रथम संस्करण:   2020

मूल्य:                    495/-

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