के. विक्रम राव
आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान चिनहट (लखनऊ) में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की हार इसी दिन 166 वर्ष पूर्व (30 जून 1857) को समुचित महत्त्व कभी दिया नहीं जा सका। अनभिज्ञता रही, कोताही भी। इस कमी को दूर कर दिया विद्वान लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा (मो. 9582502101) ने उनकी ताजा पुस्तक “संघर्ष की गौरवगाथा : चिनहट 1857” में। हर राष्ट्रभक्त और आधुनिक इतिहास की जिज्ञासा की पूर्ति हेतु यह अनिवार्यतः पठनीय है। (सेतु प्रकाशन : अमिताभ राय : सी-21, सेक्टर- 65, नोएडा, यूपी : 201301)। लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा पत्रकारिता में स्नातकोत्तर तथा केंद्र एवं उत्तर प्रदेश सरकार में विभिन्न मंत्रालयों में प्रकाशन, प्रचार और जनसंपर्क के क्षेत्र में कार्यरत रहे। उत्तर प्रदेश सरकार की साहित्यिक पत्रिका “उत्तर प्रदेश” का स्वतंत्र संपादन भी किया। वस्तुतः यह पुस्तक इतिहास की एक सदी की रिक्तिता और कमी को दूर करती है। आह्लादित भी। कारण ? ठीक 266 साल पूर्व (जून 1757) में भारतीय (बंगाल के) नवाब सिराजुद्दौला को ब्रिटिश अफसर रॉबर्ट क्लाइव ने छल से हराया था। धोखेबाज मीर जाफर की गद्दारी की वजह से। प्लासी के युद्ध के परिणाम अत्यंत व्यापक और स्थायी थे। इसका प्रभाव ईस्ट इंडिया कम्पनी पर, बंगाल और भारतीय इतिहास पर भी पड़ा। मीरजाफर को क्लाइव ने बंगाल का नवाब घोषित कर दिया था। उसने कंपनी और क्लाइव को बेशुमार धन रिश्वत मे दिया। बंगाल की गद्दी पर एक ऐसा नवाब आया जो अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली मात्र था। प्लासी के युद्ध ने बंगाल की राजनीति पर अंग्रेजों का नियंत्रण कायम कर दिया। एक व्यापारी कंपनी ने भारत आकर यहाँ से सबसे अमीर प्रांत के सूबेदार को अपमानित करके गद्दी से हटा दिया और मुग़ल सम्राट तमाशा देखते रह गए। बंगाल से प्राप्त धन के आधार पर अंग्रेजों ने दक्षिण में फ्रांसीसियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी।
इसीलिए ठीक पौने दो सदी के बाद चिनहट (अवध) में अंग्रेजों की पराजय हर हिंदुस्तानी का सीना चौड़ा कर देती है। यह युद्ध उस शृंखला को चालू करती है, जो 15 अगस्त 1947 को अपने उरुज पर पहुंची थी। तब कहीं सदियों बाद भारत गुलामी से मुक्त हुआ था। चिनहट की लड़ाई को ब्रिटिश सेनाओं और भारतीयों के बीच, लखनऊ के इस्माइलगंज में लड़ी गई थी। अंग्रेजों का नेतृत्व अवध के मुख्य आयुक्त, सर हेनरी लॉरेंस ने किया था। स्थानीय विद्रोहियों का नेतृत्व बरकत अहमद ने किया था। यह लड़ाई भारतीयों ने जीती थी।
इसीलिए लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा का आभार मानना पड़ेगा कि आज के भारत के एक भूले बिसरे मगर खास और बड़े दिलचस्प पृष्ठ को इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया। राजगोपाल सिंह वर्मा ने अपने विश्लेषण में कहा : “ये हमारे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए आकंठ भ्रष्ट आचरण में डूबने, स्थानीय लोगों के लगातार उत्पीड़न के साथ-साथ यहां के निवासियों की भावनाओं के प्रति भी दुस्साहसिक रूप से असंवेदनशील हो चुके थे। ऐसे में चिनहट के रूप में इन्हें अवध के लोगों और उनकी अपनी सेनाओं के स्थानीय सैनिकों के आक्रोश का सामना तो करना ही था। इस युद्ध से एक बात और महत्वपूर्ण रूप से उभरकर आई थी। स्थानीय लोगों ने अपनी सांस्कृतिक विरासत और संस्कारों के अनुरूप सिद्ध कर दिखाया था कि वे किसी भी आक्रांता के विरुद्ध जी-जान से लड़ने को तैयार हैं, पर मानवीयता उनके मानस का अटूट हिस्सा है, उनके वजूद में आत्मसात है, वे उससे भी पीछे नहीं हटने वाले। यही कारण था कि जब चिनहट के युद्ध में फिरंगियों ने हार के बाद हड़बड़ाहट में रेजीडेंसी की तरफ वापसी की तो लुटी-पिटी अवस्था में, जून की तपती गर्मी में उन भूखे-प्यासे अफसरों और सैनिकों को दूध-पानी पिलाने, उनकी सेवा-शुश्रुषा करने, खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने में आम लोगों ने जो संवेदनशील भावनाएं दिखाई, वे इन तथाकथित शिक्षित और आधुनिक, परंतु असंवेदनशील कहे जाने वाले फिरंगियों के लिए आंखे खोल देने वाली घटनाएं थीं।
इतिहासवेत्ता प्रोफेसर नीलिमा पांडे (लखनऊ विश्वविद्यालय) ने वर्मा जी की इस कृति पर लिखा : “राजगोपाल सिंह वर्मा की यह किताब हमें शिद्दत से रूबरू करवाती है। औपनिवेशिक काल में सन 1857 का घटनाक्रम जंगे-आजादी का प्रस्थान बिंदु है। उसे तय करने में संघर्ष की अहम भूमिका रही है। कुछ ही घंटे चले ही संघर्ष में अंग्रेजी सेना को मुंह की खानी पड़ी थी। बरकत अहमद के लड़ाकों ने फिरंगी सेना को खूब छ्काया और जीत हासिल कर ली। नतीजन उन्होंने कदम पीछे खींच रेजिडेंसी की राह ली। कुछ देर के इस संघर्ष में इतिहास का एक नया अध्याय लिखा जिसके विस्तार और बारीकी से राजगोपाल सिंह वर्मा जी हमें परिचित करा रहे हैं। चिनहट घटनाक्रम से जुड़े पक्ष-विपक्ष के संदर्भ इतिहास के दस्तावेजों में मौजूद हैं, जिनका विस्तृत विश्लेषण राजगोपाल जी ने इस पुस्तक में किया है। इतिहास के ये पन्ने हमारी पहचान हमारे अतीत से करवाते हैं।