के. विक्रम राव
सतत संघर्षशील साहित्यकार मिलान कुन्देरा को भारत के स्वतंत्र और बौद्धिक साहित्यिक आंदोलन से सदा लगाव रहा था। उनका पेरिस में कल (12 जुलाई 2023) 94-वर्ष की आयु में निधन हुआ। चेकोस्लोवाकिया के साहित्य को सोवियत संघ के राज्य-नियंत्रण से मुक्त कराने के अनवरत प्रयास कुन्देरा ने किया। भारत के कथित जनवादी, प्रगतिवादी, वामपंथी, मार्क्सवादी, समतावादी, उपनिवेशवाद-विरोधी साहित्यकारों से चुटकी भर, सुई की नोक बराबर की सहायता अथवा समर्थन इसमें कभी भी नहीं मिला। जबकि कुन्देरा विश्व कलमकारों की लड़ाई खुद लड़ रहे थे। वे जवानी में (1948) कम्युनिस्ट थे। तब उनके राष्ट्र पर हिटलर की नाजी सेना का कब्जा था। फिर सोवियत सेना ने हिटलर से मुक्ति दिलाई, मगर स्टालिन के लिए। चैक 1945 से एक स्वतंत्र साम्राजवादी गणराज्य था।
हालांकि यह सब छलावा था। चेकोस्लोवाकिया के लिए नागनाथ बनाम सांपनाथ वाली पहेली थी। एक तरफ हिटलर के राक्षसी नाजी सेना हारकर भाग गई थी। तब द्वितीय युद्ध में मित्र राष्ट्र जीत गए थे। किन्तु फासिस्ट हिटलर के स्थान पर अधिक क्रूर अधिनायकवादी जोसेफ स्टालिन की लाल सेना ने चेकोस्लोवाकिया को गुलाम बना लिया था। हर साहित्यकार बुनियादी मानवी स्वतंत्रताओं जैसे अभिव्यक्ति, संगठन, चुनाव आदि का कट्टर समर्थक रहता है। कुंदेरा ने भी स्टालिनवादी शासननीति से बगावत कर दी। पड़ोस के फ्रांस में शरण पाई। खूब लिखा, मान मिला, धन भी। मगर मातृभूमि नहीं। यही भावना उनके साहित्य सृजन में झलकती रही। उधर पश्चिमी यूरोप ने इस कम्युनिस्ट-विरोधी को हाथों-हाथ ले लिया था। अपनी मातृभाषा चैक के साथ वे फ्रेंच में भी लिखने लगे। ख्यात हो गए। पीछे मुड़कर नहीं देखा।
जवानी में सहज आकर्षण रहता है कि समाज समतामूलक हो। वंशानुगत गैरबराबरी खत्म हो। साहित्यकार में ऐसी भावना कई गुना होती है। यूं तो मिलान उस दौर में एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे। उन्होंने 1948 के “प्राग में नाजी तख्तापलट” का स्वागत किया था। इसमें चैक कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ के समर्थन से प्राग में सत्ता हथिया ली थी। कुंडेरा ने 1981 में स्वीकार किया कि “1948 के आसपास, मैंने भी इसी रूसी विजय को आगे बढ़ाया था।” उन्होंने 1984 में कहा : “साम्यवाद ने मुझे स्ट्राविंस्की, पिकासो और अतियथार्थवाद जितना ही आकर्षित किया।” मगर शीघ्र ही पड़ोसी सोशलिस्ट युगोस्लाविया के कवि-हृदय उपराष्ट्रपति मिलोवान जिलास की भांति लेखक मिलान भी अमानवीय स्टालिनवादी कम्युनिस्ट प्रशासन से खिन्न हो गए। पूंजीशाही और हिटलरशाही से यह स्तालिनवादी राजकाज बेहतर तो कदापि नहीं था। बल्कि खजूर पर अटके जैसा था। उनकी प्रारंभिक काव्य रचनाएँ कट्टर कम्युनिस्ट-समर्थक होती थीं। कालजयी रचना “द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग” के प्रकाशन के बाद उनके उपन्यासों से व्यापक दार्शनिक विषयों को छोड़कर राजनीतिक टिप्पणियाँ लगभग गायब ही हो गईं। मिलान ने बड़ा वैचारिक संकट झेला 1968 में जब सुधारवादी कम्युनिस्ट लेखकों के साथ, वह 1968 के प्राग स्प्रिंग में शामिल थे। मगर इन सुधारवादी गतिविधियों की इस अल्प अवधि को अगस्त 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर सोवियत आक्रमण द्वारा कुचल दिया गया था।
साम्यवाद में सुधार के लिए कुंदेरा प्रतिबद्ध रहे। साथी चेक लेखक वाक्लाव हेवेल से कहा भी था : अनिवार्य रूप से, हर किसी को शांत रहना चाहिए। अंततः प्राग-वसंत बड़ा हो सकता है।” हालाँकि कुंडेरा ने प्राग में अपने सुधारवादी सपनों को त्याग दिया और 1975 में पड़ोसी फ्रांस चले गए। यूं तो प्राग की चार्ल्स यूनिवर्सिटी में कई भारतीय, खासकर हिंदीभाषी जन कार्यरत हैं। मगर मिलान पर अधिक लेखन हुआ नहीं। शायद इसीलिए कि वे चैक नागरिक, फिर फ्रांसीसी लेखक बन गए। यूं निजी तौर पर मेरे लिए मिलान और उनके गत सदी के प्रणेता फ्रांज काफ्का हमेशा से निजी अध्ययन के रुचिकर विषय रहे। करीब सात बार मैं प्राग जा चुका हूं। श्रमजीवी पत्रकार सम्मेलनों में। मेरे अलावा कई पत्रकार उत्तर प्रदेश तथा अन्य भारतीय राज्यों से इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) की ओर से जाते रहे हैं। ये सभी लोग अमूमन सोवियत अधिपत्य से चैक-मुक्ति आंदोलन का अध्ययन करते रहे।
अब जब साहित्यकार मिलान कुंडेरा की अदम्य साहस का उल्लेख रहा हो तो उन्हीं के संदर्भ में एक नाट्य लेखक और एक अन्य श्रमजीवी पत्रकार पर भी गौर कर लें। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मध्य यूरोप का यह लघु गणराज्य विश्व के विशाल देशों से अधिक यादें संजोये हुए है। इतिहास पुरुषों से जुड़ी। उन्होंने कलम के बल पर राष्ट्र और समाज की मदद की। उनमें पहले हैं पत्रकार जूलियस फ्यूचिक जो अपने राष्ट्र चेकोस्लोवाकिया को हिटलर द्वारा रौंदते देखकर विचार स्वातंत्र्य के जद्दोजहद का रिकार्ड हमें विरासत में दे गये। हिटलर के नाजियों ने 1939 में प्राग पर राजधानी नाजी राज कायम कर दिया था। उस दौर में युवा जूलियस फ्यूचिक ने आजादी की लौ जलाए रखी। पर नाजी गुप्तचर (गेस्टापों) ने उसे पकड़ लिया। प्राग के पैक्रेट्स जेल में नजरबंद रखा। वह देखता था कि कैसे नाजी पुलिस रोज निर्दोष चैक युवाओं को निर्ममता से मारती थी।
इस जेल की कोठरी में बिताए सालभर के अपने संस्मरणों को फ्यूचिक ने कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर लिखकर जेलों की कोठरियों के भीतर के नरक की यथार्थ तस्वीर को पेशकार विश्व इतिहास में दर्ज करा दिया। उसके संस्मरणों को एक हमदर्द संतरी बाहर पहुंचाता था। उनकी पत्नी ने उन्हें संकलित कर Notes From the Gallows नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाए। इसी शहीद पत्रकार फ्यूचिक के नाम पत्रकार प्रशिक्षण केंद्र खोला गया। वहां बहुत भारतीय पत्रकार, लखनऊ से भी कईयों को, IFWJ ने भेजा था। दूसरे साहित्यकार जिन्हें हम लोग मिलान के परिप्रेक्ष्य में याद करते हैं, उनका नाम था वाक्लाव हेवेल। वे मशहूर नाट्य लेखक थे। उन्हें भारत सरकार ने महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी पुरस्कारों से नवाजा था। हेवेल चेक गणराज्य के राष्ट्रपति भी थे। उन्होंने (5 जनवरी 2014) नई दिल्ली में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से पारितोष लिया था। ये साहित्यकार जंगे आजादी में लड़ाके रहे। कलम उनका खड्ग था। सबको हम याद करें, श्रद्धा से, मिलान के साथ।