के. विक्रम राव
स्त्री-पुरुष के संबन्धों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो द्वापर युग में राधावल्ल्भ से जुड़े हुए कई कृष्ण और कृष्णा (द्रौपदी) के प्रकरण उसे बेहतरीन आयाम देते हैं। भले ही एक पत्नीव्रती मर्यादापुरूषोत्तम की तुलना में आठ पत्नियों के पति, राधा के प्रेमी, गोपिकाओं के सखा लीला पुरूषोत्तम का पाण्डव-पत्नी से नाता समझने के लिए साफ नीयत और ईमानदार सोच चाहिए। युगों से विकृतियां तो पनपाई गई हैं, मगर द्रौपदी को आदर्श नारी का रोल माडल कृष्ण ने ही दिया। हालांकि आज भी स्कूली बच्चों को यही बताया जाता है कि यमराज से भिड़कर सधवा बने रहनेवाली सावित्री और चित्तौड़ में जौहर देकर के प्राणोत्सर्ग करने वाली पत्नी ही भारतीय नारी के आदर्श हैं। यह सोच लीक पर घिसटनेवाली है, बदलनी चाहिए। कृष्णा के कृष्ण मित्र थे जिन्होंने उसके जुवारी पतियों के अशक्त हो जाने पर उसे बचाया। उसके अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए महाभारत रचा। उस अबला के भ्राता-पिता, पति-पुत्र से कहीं अधिक बढ़कर कृष्ण ने मदद की। ऐसे कई प्रसंग है जो कृष्ण को आज के परिवेश में अत्याधुनिक पुरुष के तौर पर पेश करते हैं। उन्हें न युग बांध सकता हैं। न कलम बींध सकती है।
विश्वरूपधारी होने के बावजूद कृष्ण के जीवन का सबसे दिलचस्प पक्ष यही है कि वे आम आदमी जैसे ही रहे। वैभवी राजा थे, किन्तु अकिंचन प्रजा (सुदामा) से परहेज नही किया। गोकुल के बाढ़पीड़ितों को गिरधारी ने ही राहत दी। (आज के राजनेता इसे सुनें)। कृष्ण अमर थे मगर दिखना नहीं चाहते थे। इसीलिए बहेलिये के तीर का स्वागत किया और जता दिया कि मृत्यु सारी गैरबराबरी मिटा देती है, वर्गजनित हो अथवा गुणवर्ण पर आधारित हो। यदि यह यथार्थ आज हस्तिनापुर में संसद को कब्जियाने पर पिले धरतीपुत्रों को, खासकर कृष्णवंशियों की, समझ में न आये, तो जरुर उनकी सोच खोटी है। असली कृष्णभक्त तो राजनीतिक होड़ में रहेगा, मगर निस्पृहता से।
इक्कीसवीं सदी के परिवेश में, स्वाधीन भारत में कृष्णनीति पर विचार करने के पूर्व उनके द्वापरयुगीय दो प्रसंग गौरतलब होंगे। यह इस सिलसिले में भी प्रासंगिक है, क्योंकि कृष्ण के प्राण तजने के दिन से ही कलयुग का आरम्भ हुआ था। प्रथम प्रकरण यह कि जमुना किनारे वाला अहीर का छोरा सुदूर पश्चिम के प्रभास (सरस्वती) नदी के तट पर (सोमनाथ के समीप) अग्नि समर्पित हो; तो उसी नदी के पास जन्मे काठियावाड़ के वैष्णव कर्मयोगी मोहनदास करमचंद गांधी का यमुना तट के राजघाट पर दाह-संस्कार हो। लोहिया ने इसे एक ऐतिहासिक संयोग कहा था। उत्तर तथा पश्चिम ने आपसी हिसाब चुकता किया था। दूसरी बात समकालीन है। द्वापर के बाद पहली बार (पोखरण में) परमाणु अस्त्र से लैस होकर महाराजा भरत का देश एक नये महाभारत की ओर चल निकला है। परिणाम कैसा होगा?
दोनों युगों को जोड़ते हुए द्वापर की घटनाओं को कलियुगी मानकों, परिभाषाओं और अन्दाजों से परखें। वर्ग और जाति में सामंजस्य कायम करने में कृष्ण का कार्य अपने किस्म का अनूठा ही था। अधुना हिंसाग्रस्त आदिवासी मणिपुर से चित्रांगदा का अपने यार अर्जुन से विवाह रचाकर कृष्ण ने युगों पूर्व उस पूर्वोत्तरीय अंचल को कुरू केन्द्र का भाग बनवाया। दो सभ्यताओं में समरसता बनाई। वभ्रुवाहन के शौर्य को अर्जुन ने हारकर जाना जैसे राम ने लव-कुश का लोहा माना था। मगर आज वही क्षत्रिय-प्रधान मणिपुर भारतीय गणराज्य से पृथक होने में संघर्षरत है। दिल्ली सरकार की अक्षमता के कारण ही। इस क्रम में अनार्य राजकुमारी हिडिम्बा का भीम से पाणिग्रहण और उसके आत्मज महाबली घटोत्कच का कुरूक्षेत्र में पाण्डु सेनापति बनाना कृष्ण की एक खास योजना के तहत बनी (समर) नीति थी। आज के आदिवासी-पिछड़ा समीकरण की भांति। इतिहासज्ञ जोर देकर यूनानी आक्रामक अलक्षेन्द्र (सिकन्दर) को महान बताते है क्योंकि उसने पंजाब के पराजित राजा पुरू को उसका राज वापस दे दिया था। कृष्ण का उदाहरण गुणात्मकता पर आधारित है कि दुष्ट शासकों का वध कर उन्होंने उनके राज्य उन्हीं के उत्तराधिकारियों को सौंप दिया। जरासंध की मौत पर उसके पुत्र युवराज सहदेव को मगध नरेश बनाया। मथुरा का राज कृष्ण ले सकते थे क्योंकि कंस को उन्होंने मारा था, किन्तु तब कैदी, अपदस्थ राजा उग्रसेन अपने न्यायोचित अधिकार से वंचित रह जाते। उग्रसेन मथुरा नरेश दोबारा बने। कृष्ण अन्यायी कभी नहीं थे।
आधुनिक संदर्भ में लोग राजनीति में कुटिलता, क्रूरता और प्रवंचना को महाभारत की घटनाओं के आधार पर सही ठहराने का नासमझ प्रयास करते है। अर्थात कृष्ण झूठ बोलते रहे, असमय वार कराते रहे, कभी-कभी फरेब भी करते रहे। मायने यही कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए साधन और माध्यम को सुचिता पर वे ध्यान नहीं देते थे। यथार्थ यह है कि महाभारत युद्ध मे कौरव सरीखे शत्रुओं से उन्हीं की रणनीति और नियमों से लड़ा जा सकता था। जब अन्नदोष के कारण दुर्योंधन की कृपा पर आश्रित गुरू द्रोण, पितामह भीष्म, सूर्यपुत्र कर्ण, कृपाचार्य आदि अन्याय के साथ जुड़े हों तो फिर उनका नीर-क्षीर विवेक ही समाप्त हो गया था। अश्वत्थामा नामक हाथी को मारकर द्रोणाचार्य को भ्रम में डालना, शंख फूंककर कुंजर शब्द का युधिष्ठिर द्वारा उच्चारण को दबा जाना, फिर धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य का सर काटना अपरिहार्य कारण थे। वरना धनुष लिये द्रोणाचार्य को स्वयं विष्णु नहीं हरा सकते थे।