जयपुर से राजेंद्र गुप्ता
भारतीय पंचांग में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से 15वीं तिथि को अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पंचांग में हर महीना करीब 30 दिन का होता है या दो पखवाड़े में चंद्रमा की स्थिति के अनुसार 15-15 दिन का होता है। 15 तिथियां शुक्ल पक्ष अर्थात क्रम से चंद्रमा के बढ़ते रहने की ओर 15 तिथियां कृष्ण पक्ष की अर्थात प्रतिदिन घटते जाने की होती है। कृष्ण पक्ष की आखिरी तिथि अमावस्या और शुक्ल पक्ष की आखिरी तिथि पूर्णिमा कही जाती है। अमावस्या का देवता पितृ देव को माना गया है। इस तिथि पर सूर्य और चंद्र समान अंशों पर और एक ही राशि में होते हैं। मान्यता है कि कृष्ण पक्ष में दैत्य और शुक्ल पक्ष में देव सक्रिय रहते हैं। अमावस्या तिथि को पितरों को प्रसन्न करने के बाद देवताओं को प्रसन्न किया जाता है।
महीने भर के 30 दिनों में अमावस्या और पूर्णिमा की तिथियां जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। हर माह अमावस्या और पूर्णिमा होती है। इन सभी अमावस्याओं और पूर्णिमाओं का अलग-अलग महत्व है। ऐसे में प्रत्येक अमावस और उससे पहले आ रही शिवरात्रि को जान लेना जरूरी है। वैसे अमावस्या को पितृ देवों की शांति के अनुष्ठान और श्राद्ध-कर्म या पूजा-पाठ करते हैं।
फागुन की अमावस के दिन व्रत, स्नान और पितरों का तर्पण किया जाता है। इस दिन पीपल के पेड़ का दर्शन-पूजन करना भी बहुत शुभ मानते हैं। इस अमावस पर नदियों, सरोवरों और धर्मस्थानों पर स्नान, दान और शांति-कर्म किए जाते हैं। शिव के विग्रह, पीपल की पूजा करने के साथ शनि की शांति के लिए भी पूजा आदि काम किए जाते हैं। अमावस और मंगलवार के संयोग में पितरों के साथ हनुमान को प्रसन्न करने के साथ मंगल के दोषों की शांति और अशुभता दूर की जा सकती है।
वैशाख अमावस्या को दक्षिण भारत में शनि जयंती मनाई जाती है। उत्तर भारत में भी शनि को प्रसन्न करने का चलन है। इस दिन कुश को जड़ सहित उखाड़ कर एकत्रित करने का विधान है। इस एकत्रित किए हुए कुश का पुण्य अगले 12 वर्षों तक मिलता है। वैशाख अमावस्या के दिन पिंडदान, पितर तर्पण और स्नान आदि कार्य किए जाते हैं। इस दिन पितर दोष की शांति के कार्य भी किए जाते हैं। वैशाख मास की अमावस्या के दिन ही त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। ज्येष्ठ अमावस्या के दिन शनि का जन्म हुआ था। इस दिन मंदिरों में विशेष रूप से शनि-शांति के कर्म, अनुष्ठान, पूजा-पाठ और दान आदि से पितृ दोषों की शांति होती है। अमावस्या के दिन किए जाने वाले अन्य पुण्य कार्यों के साथ इस दिन महिलाएं वट-सावित्री का व्रत भी करती हैं।
आषाढ़ अमावस्या को पूजा-पाठ के अलावा पितृकर्म और शिव तथा चंद्रदेव को को भी प्रसन्न किया जाता है। श्रावण सोमवार के दिन होने के कारण इस साल की अमावस को सोमवती अमावस के रूप में भी जाना जाता है। पूर्वजों के तर्पण और उपवास करते हुए पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर शनि मंत्र का जप करने का विधान है। पीपल की परिक्रमा करते हुए विष्णु तथा पीपल वृक्ष की पूजा की जाती है।
भाद्रपद अमावस्या के बारे में मानते हैं कि इस दिन जो भी घास उपलब्ध हो, उसे इकट्ठा करना चाहिए। ऐसा करते समय ध्यान रखना चाहिए कि घास को जड़ सहित प्राप्त करें। इस अमावस्या को कुछ क्षेत्रों में पिथौरा अमावस्या भी कहते हैं। इस दिन देवी दुर्गा के पूजन का विशेष महत्व होता है। आश्विन अमावस का अधिक महत्व है। इसे सर्वपितृ श्राद्ध अमावस्या कहा जाता है। धर्म और ज्योतिष शास्त्रों के महासंयोग के दिन पितरों की शांति, दान-पुण्य, पिंड दान और अन्य सभी कार्य किए जाते हैं। ऐसा करने से पितर दोष दूर होते हैं।
कार्तिक अमावस्या के दिन सभी पितर कार्य किए जा सकते हैं। इसी दिन राम चौदह वर्ष का वनवास पूरा कर अयोध्या आए थे। दिवाली मनाने और महालक्ष्मी का पूजन करने का विशेष महत्व है। सोमवार के दिन होने से यह सोमवती अमावस भी कहलाती है। पौष में विशेष रूप से सूर्य देव का दर्शन-पूजन किया जाता है। सूर्य देव को अर्घ्य देना भी अतिशुभ मानते हैं। माघ अमावस्या को मौनी अमावस्या का नाम भी दिया गया है। सभी अमावस्याओं में मौनी अमावस्या का अपना विशेष महत्व है। मौन व्रत का पालन किया जाता है। मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन मौन व्रत कर किसी पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करता है, उसे जीवन में मुनि पद की प्राप्ति होती है। इस मास में अमावस्या तिथि का स्नान सबसे अधिक पुण्य देने वाला कहा गया है।