- चौथ का चंद्रमा देखने का लगा कलंक
- देवता हो असुर या मानव पाप का दंड मिलेगा अवश्य
- गुरु वृहस्पति की पत्नी ने दिया चंद्रमा को शाप
- गुरुपत्नी पर डाली थी कुदृष्टि
- कलंक मिटाने के लिए सुने स्यमंतक मणि की कथा
बलराम कुमार मणि त्रिपाठी
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा ने देवगुरु वृहस्पति की पत्नी तारा पर कुदृष्टि डाली थी। गुरुपत्नी के शाप से चंद्रमा को यक्ष्मा रोग हुआ। राहु द्वारा उसको ग्रसित होना पड़ा तथा कलंकी चंद्रमा कहलाया। तारा ने कहा-
राहुग्रस्तोघनग्रस्त:पापदृश्यो भवान्भव।
कलंकी यक्ष्मणाग्रस्तै भविष्यसि न संशय:।।
इसीलिए इस तिथि में चंद्रमा को देखने पर कलंक लगता है। यदि भूल वश किसि ने देख लिया तो कलंक के दोष से बचने केलिए श्रीकृष्ण पर लगे झूठे कलंक और उस कलंक के निवारण के लिए श्रीकृष्ण के प्रयास की कथा सुननी चाहिए।
स्यमंतक मणि की कथा
द्वापर युग मे़ सत्राजित भगवान सूर्य का परम भक्त था। उसके तप से भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर उसे स्यमन्तक मणि प्रदान की। वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और वह जहां रहती वहां दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा आदि प्रवेश भी नहीं कर सकते थे। कभी कोई उपद्रव और अशुभ घटनाएं नहीं होती था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा, ‘‘सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो। इससे यह बहुमूल्य वस्तु सुरक्षित हो जाएगी और तुम्हें यश भी मिलेगा। परन्तु सत्राजित् अहंकारी और धनलोलुप था। उसने भगवान श्रीकृष्ण का प्रस्ताव ठुकरा दिया। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेनजित, उस मणि को अपने गले में धारण कर शिकार खेलने के लिए वन में गया। वन में एक सिंह ने प्रसेनजित को मार डाला और मणि को छीन लिया। उसके बाद ऋक्षराज जाम्बवान ने सिंह को मारकर वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चों को खेलने के लिए दे दी।
अपने भाई प्रसेनजित के न लौटने पर सत्राजित को बड़ा दुख हुआ। वह कहने लगा, ‘‘संभव है कि श्रीकृष्ण ने ही मणि के लोभ में मेरे भाई को मार डाला हो क्योंकि वह मणि पहनकर वन में शिकार खेलने गया था। जब श्रीकृष्ण ने सुना कि सत्राजित् मुझे ही कलंक लगा रहा है तब वह उसे धो डालने के उद्देश्य से प्रसेनजित को ढूंढने नगर के कुछ गणमान्य नागरिकों को लेकर वन में गए। खोजते-खोजते उन्होंने देखा कि जंगल में किसी सिंह ने प्रसेनजित और उसके घोड़े को मार डाला है। जब सिंह के पैरों के निशान देखते हुए वे लोग आगे बढ़े तो देखा कि एक रीछ ने सिंह को भी मार डाला है। रीछ के पदचिन्हों के निशान देखते हुए सब गुफा तक पहुंचे।
भगवान् श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अंधकार से भरी हुई ऋक्षराज जाम्बवान की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। वहां उन्होंने देखा कि श्रेष्ठ स्यमन्तक मणि बच्चों का खिलौना बना है। भगवान श्रीकृष्ण जैसे ही मणि लेने के लिए आगे बढ़े, अचानक जाम्बवान सामने आ गए। उन्हें भगवान की महिमा और प्रभाव का ज्ञान नहीं था इसलिए वे भगवान श्रीकृष्ण से घमासान मल्ल युद्ध करने लगे। भगवान के घूंसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक-एक गांठ फूट गई। पूरे अट्ठाईस दिनों तक युद्ध चलता रहा। जाम्बवान् का शरीर पसीने से लथपथ हो गया। उत्साह जाता रहा। अंत में उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को पहचान लिया और कहा, ‘‘प्रभो! मैं जान गया कि आप ही पुराण पुरुष भगवान विष्णु हैं। मुझे पराजित करने की क्षमता किसी साधारण मनुष्य में नहीं हो सकती। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। अज्ञानवश हुए मेरे अपराध को आप क्षमा करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘ऋक्षराज! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आए हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूं।’’ भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान ने बड़े आनंद से उनकी पूजा की तथा अपनी कुमारी कन्या जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण अपनी नववधू जाम्बवती के साथ द्वारका लौट आए और मणि सत्राजित को लौटा कर अपने ऊपर लगा कलंक मिटा दिया।