दो टूक : भाजपा ने रचे दो इतिहास, एक काला धब्बा तो दूसरा स्वर्णिम पल

राजेश श्रीवास्तव

इस सप्ताह संसद ने दो ऐसे वाकये देखे जिन्होंने इतिहास रचा है। एक वाकया वो जिसने देश की आधी आबादी को बड़ा स्वप्न दिखाया है। दूसरी स्वप्न दिखाने वाली पार्टी के एक सांसद ने ही अल्पसंख्यक समाज के सांसद को ऐसी शब्दावली से नवाजा जो संसद के इतिहास में पहले कभी नहीं सुनी गयी। पहले बात दूसरे मुद्दे की कर लेते हैं। हालांकि सदन के हिस्से से यह बातें निकाल दी गयीं इसलिए उसका जिक्र नहीं करना चाहता। लेकिन उस पहलू को समझना होगा। आखिर भाजपा सांसद रमेश विधूड़ी को ऐसा करने की जरूरत क्या आन पड़ी। क्या इसे पार्टी का समर्थन प्राप्त था। क्या भाजपा ने ये होने दिया। शायद होने दिया। क्योंकि विधूड़ी जब बसपा के अल्पसंख्यक सांसद दानिश को नवाज रहे थे। उस समय उनके ठीक पीछे बैठे डॉ. हर्षवर्धन मुस्करा रहे थे। स्पीकर ने भी उन्हें ऐसा करने से नहीं रोका। बाद में जरूर राजनाथ सिंह ने माफी मांगी और सदन से वह हिस्सा निकाला गया।

लेकिन इस वाकये ने देश को वह सुनाया जो हम गली-मुहल्ले में भी बोलना और सुनना पसंद नहीं करते। आखिर इस शब्दावली की क्या जरूरत थी। हिंदू तो वैसे ही भाजपा को वोट करता है क्या अल्पसख्ंयकों को गाली देने से यह प्रतिशत बढ़ेगा। 2024 की लड़ाई का यह भी एक शस्त्र है। यह वही भाजपा है जो राहुल गांधी को मोदी समाज को राजनीतिक टिप्पणी कराने पर दो साल की सजा सुनवा देती है तो क्या यह अल्पसंख्यक समाज के लिए गाली नहीं है । नैतिकता की बात करने वाली भाजपा अपने सांसद को निलंबित नहीं कर सकी। पार्टी से निकालने की बात तो दूर की कौड़ी है। आखिर हम किस तरह के सांसदों को चुन कर संसद के मंदिर में भोजते हैं। निश्चित रूप से भाजपा ने संसदीय इतिहास में एक काला पन्ना तो जोड़ ही दिया है। क्योंकि जिस तरह से विधूड़ी पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी है, उससे साफ जाहिर होता है कि उनके पीछे प्रचंड बहुमत वाली पार्टी खड़ी है।

अब बात तस्वीर के दूसरे रुख की। इसी भाजपा ने एक ऐसे फैसले को अंजाम दिया है जो आजादी के बाद से असमंजस में था। लेकिन पार्टी ने इसे 2024 के एक शस्त्र के रूप में ही इस्तेमाल किया है। यह जरूर है कि महिला शक्ति को देर-सबेर इसका लाभ जरूर मिलेगा। दिलचस्प तो यह है कि इस पर सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन दिया है । लेकिन यह समर्थन राजनीतिक है या फिर दिल से दिया गया। मैं यह समझना चाहता हूं कि क्या अगर राजनीतिक दल महिलाओं को वरीयता देना चाहते हैं तो उन्हें इस विधोयक की जरूरत क्या है। कौन उनको महिलाओं को टिकट देने से रोकता है। क्या कानून ही उनकी इच्छाशक्ति को पूरा कर सकता है। आप देखिये बीजद पार्टी अपनी 42 फीसदी महिलाओं को संसद भेजती है। दूसरी पार्टियां ऐसा क्यों नहीं कर पाती हैं? यूपी की एक मंत्री हैं गुलाब देवी, जो 1980 के दशक में भारत की राजनीति आईं। आज उनकी बेटियां न सिर्फ पढ़ीं लिखीं हैं, बल्कि अपने-अपने क्षेत्रों में बेहद सफल हैं। निश्चित रूप से यह विधोयक एक खिड़की के खुलने की तरह है। यहां से एक रास्ता खुला है। इसके आगे बहुत सी चीजें होंगी। अलग-अलग पार्टियों में बात शुरू हो गई है कि किस तरह इस बार के चुनाव में महिलाओं को ज्यादा टिकट दिया जाए।

मौजूदा समय में देश की विधानसभाओं को देखें तो कितनी विधानसभाओं की अध्यक्ष महिलाएं हैं। इस वक्त मुझे केवल ऋतु खंडूरी का नाम याद आ रहा है। देश में केवल एक महिला मुख्यमंत्री हैं। महिला आरक्षण आने के साथ यहां से महिला सशक्तिकरण का रास्ता शुरू होता है। इस बिल के आने के बाद सोच में बदलाव आया है। जो पार्टियां आलोचना कर रही हैं कि तत्काल इसे क्यों नहीं लागू किया क्या, वह अगले चुनाव से अपनी पार्टी से 33 फीसदी महिलाओं को टिकट देंगी। बीते कई वर्षों से परिसीमन से सरकारें बचती रही हैं। जो लोग आरक्षण में ओबीसी महिलाओं के लिए कोटे की बात कर रहे हैं, वो सिर्फ राजनीति कर रहे हैं। क्या कांग्रेस जो बिल लेकर आई थी उसमें पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था थी? क्या समाजवादी राजनीति करने वाले दलों के गठबंधन संयुक्त मोर्चा सरकार के बिल में ऐसा कुछ था? ओबीसी के लिए पहले से आरक्षण नहीं है तो ओबीसी महिलाओं के लिए अलग से कैसे आरक्षण हो सकता है? आखिर सरकार इस आरक्षण को टाल क्यों रही है? यह भी सवाल उठता है। पंचायतों में आरक्षण का असर यह पड़ा कि संख्या कम होने के बाद भी महिलाएं ज्यादा वोट दे रही हैं। इसी वजह से आज की राजनीति में उन्हें लुभाने के लिए आरक्षण दिया जा रहा है।

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