कविता : अभिमान, स्वाभिमान

कर्नल आदि शंकर मिश्र
  कर्नल आदि शंकर मिश्र

जन्म से लेकर मृत्यु तलक
का सफ़र बहुत ही लम्बा है,
बचपन से वृद्धावस्था तलक
जीवन का सफ़र झरोखा है।

मेरा तेरा करते करते हम
सबने सारी उम्र बितायी है,
मेरा तेरा ना छोड़ सका कोई,
मन से मन न मिला सका कोई।

मंज़िल मन से मन मिलने की,
सारी उम्र से ज़्यादा लम्बी है,
कहाँ कभी मन मिल पाते हैं
‘मैं’ का हम होना मुश्किल है ।

‘मैं’ रूपी अभिमान किसी को
स्वाभिमानी नहीं बनने देता,
अभिमान नहीं आगे बढ़ने देता,
पर स्वाभिमान नहीं गिरने देता ।

‘मैं’ मैं ना रह जब ‘हम’ हो जाता है,
मित्र हमारा स्वाभिमान बन जाता है,
यही मित्र परिवार सदृश हो जाते हैं
यही बड़ा धन है, बाक़ी झूठे नाते हैं।

मित्र हमसफ़र सच्चा बन जाये,
तो सारी दौलत फीकी पड़ जाये,
दौलत तो जीवन में आती जाती है,
पर सच्चा मित्र तो सच्ची दौलत है।

अभिमानी इंसान नहीं बनकर
स्वाभिमानी बनकर देखें हम,
आदित्य इसी पराक्रम से अपने
सारी दुनिया का दिल जीतें हम।

 

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