पितृ तीर्थ और श्राद्ध पक्ष में गया दर्शन

संजय तिवारी

यह मर्त्यलोक है। जो कुछ भी दिख रहा है, उसे निश्चित तौर पर नही रहना है। मर्त्य शब्द मृतिका से जुड़ा है। मृतिका अर्थात मिट्टी। जो भी आकार हैं वे इसी से निर्मित हैं। इसी में मिलना है। मूल पांच तत्व है। सनातन संस्कृति या कहें कि जीवन यात्रा में अंतिम पड़ाव मृत को मृतिका में मिल जाने का संस्कार पूर्वक अनुष्ठान है। इस अनुष्ठान को श्रद्धापूर्वक करने का निर्देश है। यही श्राद्ध है। इस लोक में कई ऐसे स्थल हैं जहां श्राद्ध के निर्देश हैं। इन स्थलों में सर्वाधिक प्रज्ज्वलित स्थल है गया। इसको पितृतीर्थ भी कहा जाता है। पितृपक्ष में यहां श्राद्ध की बड़ी महत्ता है। यहां वर्ष भर भी श्राद्ध और पिंडदान के अनुष्ठान होते रहते हैं।

गया बिहार राज्य की राजधानी पटना से गया शहर 100 कि0 मी0 दूर अवस्थित है । ऐतिहासिक रूप से गया प्राचीन मगध साम्राज्य का हिस्सा था । यह शहर फल्गु नदी के तटपर अवस्थित है और हिंदुओं के लिए मान्य पवित्रतम स्थलों में से एक है । तीन पहाड़ियॉं मंगलागौरी, सृंग स्थान , रामशिला और ब्रह्मयोनि इस शहर को तीन ओर से घेरती है । जिससे इसकी सुरक्षा एवं सौंदर्या प्राप्त होता है । गया महान विरासत एवं ऐतिहासिक को धारण करने वाला एक प्राचीन स्थान है गया शहर को देश एवं बिहार के मुख्य शहरों से जोड़ने के लिए विभिन्न प्रकार के यातायात के साधन हैं । गया सिर्फ़ हिंदुओं का ही नहीं वरण बौद्धों का भी पवित्र स्थान है । गया में कई बौद्ध तीर्थ स्थान हैं। गया के ये पवित्र स्थान प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। जिनमें से अधिकांश भौतिक सुविधाओं के अनुरूप है। फल्गु नदी के तट एवं इस पर स्थित मंदिर सुन्दर एवं आकर्षक हैं। फल्गु नदी के तट पर स्थित पीपल का वृक्ष जिसे अक्षयवट कहते हैं, हिंदुओं के लिए पवित्र है ।यह वृक्ष अपनी दिव्यता की वजह से पूजा जाता है।

विष्णुपद मंदिर : कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु के पांव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। सनातन संस्कृति में इस मंदिर को अहम स्थान प्राप्त है। गया पितृदान के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहां फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। गयासुर नामक दैत्य का बध करते समय भगवान विष्णु के पद चिह्न यहां पडे थे जो आज भी विष्णु पद मंदिर में देखे जा सकते हैं। मंदिर का ऊपरी भाग गुम्बजाकार है जो देखने में बहुत सुन्दर मालूम होता है। मंदिर के ऊपर शिखर पर बालगोविन्द सेन नामक एक गयापाल की चढ़ाई हुई एक  मन सोने की ध्वजा फहराती है। मंदिर के भीतरी भाग में चांदी से आवेष्ठित एक अष्ट – कोण कुण्ड में विष्णु का चरण चिन्ह है। मंदिर के सामने के भाग में एक सभा मण्डप है। चरण के ऊपर एक चांदी का छत्र  है। यह छत्र बालगोविन्द सेन का दान है और विष्णुपद का चांदी का आध्र्य भी उन्हीं का दान है। मंदिर के सभा-मण्डप मे और उसके बाहर दो बड़े घंटे लटक रहे हैं।

यहां पर एक विचित्र बात का उल्लेख आवशयक प्रतीत होता है और वह यह कि सभा – मण्डप की छत से पानी की बून्द टपका करती है। जन-श्रुति के अनुसार जिस तीर्थ का नाम हृदय में रखकर आप हाथ पसारिये आपके हाथ में दो एक बून्द पानी जरूर गिरेगी। मंदिर में प्रतिदिन रात्रि में भगवद्चरण का मलयागिरी चन्दन से श्रृंगार होता है। रक्त चन्दन से चरण चिन्ह पर शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि अंकित किए जाते हैं। पुण्यमास में जैसे वैशाख, कार्तिक आदि में श्रृंगार पश्चात् विष्णु सहस्त्रनाम सहित विष्णु चरण पर तुलसीदल अर्पण दर्शनीय शोभा है सच बात तो यह है कि गया में पिण्डदान से पितरों की अक्षय तृप्ति होती है। एक कोस क्षेत्र गया-सिर माना जाता है, ढाई कोस-तक गया है और पाँच कोस तक गया-क्षेत्र है। इसी के मध्य में सब तीर्थ आ जाते है। अहिल्या बाई होलकर द्वारा इस मंदिर के पुनरुद्धार की बात इतिहास में आती है। गया से 17 किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहींबोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। गया का उल्लेख महाकाव्य रामायण में भी मिलता है। गया मौर्य काल में एक महत्वपूर्ण शहर था। खुदाई के दौरान सम्राट अशोक से संबंधित आदेश पत्र पाया गया है। मध्यकाल में यह शहर मुगल सम्राटों के अधीन था। मुगलकाल के पतन के उपरांत गया पर अनेक क्षेत्रीय राजाओं ने राज किया। 1787 में होल्कर वंश की साम्राज्ञी महारानी अहिल्याबाई ने विष्णुपद मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था। फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है।

ब्रह्मयोनि पहाड़ी : इस पहाड़ी की चोटी पर चढ़ने के लिए ४४० सीढ़ियों को पार करना होता है। इसके शिखर पर भगवान शिव का मंदिर है। यह मंदिर विशाल बरगद के पेड़ के नीचे स्थित हैं जहां पिंडदान किया जाता है। इस स्थान का उल्लेख रामायण में भी किया गया है। दंतकथाओं पर विश्‍वास किया जाए तो पहले फल्गु नदी इस पहाड़ी के ऊपर से बहती थी। लेकिन देवी सीता के शाप के प्रभाव से अब यह नदी पहाड़ी के नीचे से बहती है। यह पहाड़ी हिन्दुओं के लिए काफी पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है। यह मारनपुर के निकट है।

बराबर गुफा : यह गुफा गया से 20 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इस गुफा तक पहुंचने के लिए 7 किलोमीटर पैदल और 10 किलोमीटर रिक्शा या तांगा से चलना होता है। यह गुफा बौद्ध धर्म के लिए महत्वपूर्ण है। यह बराबर और नागार्जुनी श्रृंखला के पहाड़ पर स्थित है। इस गुफा का निर्माण बराबर और नागार्जुनी पहाड़ी के बीच सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ के द्वारा की गई है। इस गुफा उल्लेख ई॰एम. फोस्टर की किताब ए पैसेज टू इंडिया में भी किया गया है। इन गुफओं में से 7 गुफाएं भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरख में है।

गया नाम की कथा :  गया शहर के नामकरण के पीछे यह मान्यता है कि  यहाँ भगवान विष्णु ने एक द्वन्द में गयासुर का वध किया था। यह शहर इतना पवित्र है कि यहाँ स्वयं भगवान राम ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। प्राचीन ग्रंथों में वर्णन है कि भगवान राम अपने पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करने क लिए गया आए थे और देवी सीता भी उनके साथ थी। गया बुद्ध के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यही वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने 1000 ग्रामवासियों को जो अग्नि पूजक थे जो आदित्यपर्याय सूत्र का उपदेश दिया था। बुद्ध के उपदेश का प्रभाव था की भी लोगों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया था।

मंगलागौरी :  गया स्थित मंगलागौरी शक्तिपीठ कामाख्या शक्तिपीठ के बराबर ही शक्ति प्रदान करने वाली है। धर्मशास्त्र के अनुसार सती के दो महत्वपूर्ण अंगों में से एक योनिमंडल कामाख्या में तथा दूसरा स्तन मंडल यानी मंगल भाग गया में गिरा था। मंगलागौरी शक्तिपीठ गया शहर के दक्षिणी छोर पर छोटे से पर्वत पर स्थित है। इस पर्वत को भस्मकूट पर्वत कहते है। विष्णुपद मन्दिर यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर है। इस शक्तिपीठ के बारे में कहा जाता है कि यहाँ भक्तिभाव से पूजन करने वाले को अवश्य पुत्र, धन, अच्छे वर, विद्या आदि का लाभ होता है एवं मन की सारी इच्छाओं की पूर्ति होती है। मंगलागौरी की महिमा का बखान करते हुए कई भक्तों ने बताया कि उन्होंने माँ मंगलागौरी के दरवार में कई दुखियों के दुख और असाध्य रोगों को दूर होते देखा है। पुराणों के अनुसार जब सती का झुलसा हुआ शव कंधे पर रखकर भगवान शिव चारों ओर क्रोध में घूमने लगे, तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर के अंग-प्रत्यंग काट डाले। इस तरह कट-कट कर सती के शरीर के अवयव भूतल पर जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ शक्तिपीठ बन पुराणों में इसका उल्लेख इस तरह किया गया है।

मंगलागौरी मन्दिर द्विविभागीय मंडपाकृति पूर्वाभिमूख है। मन्दिर में घुसने का दरवाजा काफी छोटा है। भक्तगण झुककर अंदर जाते है और पूजा-अर्चना करके भगवती की कृपा प्राप्त करते है। मन्दिर के गर्भगृह में अखंड दीप जलता रहता है जिसके दर्शन मात्र से आध्यात्मिक संतुष्टि प्राप्त होती है। मन्दिर में अन्य कई मूर्तियाँ भी है। जो देवी माँ का अतिप्रिय वृक्ष है, वो सालों भर हरा-भरा रहता है। परिसर में भी गणेशजी का एक छोटा मन्दिर है। मन्दिर के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। इसी के पीछे खड़गधारी दुर्गा माँ का मन्दिर है। इसके पास ही माँ का विचित्र रूप लिये एक मन्दिर के सामने दो मंजिलों में बटा शिव मन्दिर है जिसके बाहरी तल्लों में शिवजी का वाहन नन्दी और अंदर शिवलिंग स्थापित है। यहाँ नित्य पूजा करने वाले पुजारियों के अतिरिक्त प्रतिदिन दूर-दूर से सैकड़ो भक्तगण दर्शन करने आते हैं तथा विधि – विधान से पूजा ध्यान करते हैं सप्ताह में मंगलवार को मंगलागौरी में भक्तों की संख्या चैगुनी हो जाती है। चैत्र तथा आश्विन नवरात्र के समय श्रद्धालुआं की भीड़ काफी बढ़ जाती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र में इस स्थान पर की गयी साधना व्यक्ति को और भी अधिक समृद्ध बनाती है तथा मानोकामना पूर्ण होने पर भक्त प्रतिवर्ष यहां एक बार अवश्य आते है। इस शक्तिपीठ की विशेषता यह है कि मनुष्य अपने जीवन काल में ही अपना श्राद्धकर्म यहां सम्पादित कर सकता है। जीवित अवस्था में अपने श्राद्ध कर्म करने का विधान और कहीं नहीं मिलता। ऐसी मान्यता है कि जिसका श्राद्ध कर्म करने वाला कोई न हो तो वह स्वयं अपने लिए तिल रहित दही चर्तुभुज के दाहिने हाथ में दे तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेगा। कहा जाता है कि पांडवों में से महाबली भीम की पितृ ऋण से उद्धार पाने के लिए आये थे और शास्त्रानुसार पिण्डदान किये थे। भीम जब घुटने के बल पिण्डदान कर रहे थे, तब पृथ्वी नीचे की ओर कुछ धंस गई थी। वह स्थान आज भी मंगलागौरी के पास ही दर्शनीय है।

श्रीमन्नारायण की आराधना ही है पितृपूजा

रामशिला : विष्णुपद से लगभग आठ किमी. उतर फल्गु नदी के किनारे रामशिला पहाड़ी है। पहाड़ी के नीचे रामकुण्ड नामक सरोवर है। सरोवर के दक्षिण एक शिव मंदिर है। रामशिला में 20 सीढ़ी उपर एक श्रीराम मंदिर है। इसके जगमोहन में चरण- चिन्ह बना है। मंदिर के दक्षिण एक बरामदे में दो -तीन मूर्तियां है।

प्रेतशिलाला और ब्रह्मकुण्ड :  रामशिला से चार किमी पश्चिम प्रेतशिलाला है। इसका पुराना नाम प्रेतपर्वत है। गया-नगर से यह स्थान 7 कि.मी. दूर है। यहां पर्वत के नीचे एक पक्का सरोवर है, और एक धर्मषाला है। 340 सीढ़ी उपर रामशिला तीर्थ है। यहां उपर एक शिव मंदिर है। उसे ब्रह्मकुण्ड कहते हैं। यहांतक (रामशिला होकर) आने के लिए पक्की सड़क है। ब्रह्मकुण्ड के पास एक-दो मंदिर है। ब्रह्मकुण्ड से लगभग 400 सीढ़ी चढ़कर प्रेतषिला पहुंचते है। ऊपर एक छोटा मंदिर है जिसमें आंगन तथा बरामदे है।

ब्रह्मयोनि : गया से लगभग दो कि.मी. दूर यह पर्वत है। लगभग 470 सीढी ऊपर ब्रह्माजी का मंदिर है। इस पर्वत पर दो गुफा के ढंग से पड़े है। इन्हें ब्रह्मयोनि और मातृयोनि कहते हैं। कुछ लोग इनके नीचे सोकर आर-पार निकलते हैं। पर्वतशिखर से कुछ नीचे ब्रह्मकुण्ड नामक पक्का सरोवर है। सरस्वती और सावित्रीकुण्ड, ब्रह्मयोनि पर्वत के नीचे ये दोनों पक्के कुण्ड हैं। सावित्रीकुण्ड का जल स्वच्छ रहता है। यहाँ सावित्री मन्दिर है। यहीं पर कर्मनाशा सरोवर है।

सूर्य कुण्ड : विष्णुपद से लगभग थोड़ी दूर पर यह सरोवर है। इस कुण्ड का उतरी भाग उदीची, मध्यभाग कनखल और दक्षिण भाग दक्षिण मानस तीर्थ कहलाता है। इस कुण्ड के पश्चिम एक मंदिर में सूर्य नारायण की चर्तुभुज मूर्ति है, जिसे दक्षिर्णाक कहते हैं। सूर्यकुण्ड से 80 गज दक्षिण फल्गु किनारे जिह्मलोल है और एक पीपल का वृक्ष है।

गया सिर : विष्णुपद मंदिर से दक्षिण गया सिर स्थान है। एक बरामदे में एक छोटा कुण्ड है। गया सिर से पश्चिम एक घेरे में गया कूप है। गया सिर से थोड़ी दूर, यहां बारह भुजा वाली मुण्ड पृष्ठा देवी की मूर्ति है। यहां बरामदे में लोग पिण्डदान करते हैं।

राम गया सीताकुण्ड : विष्णुपद मंदिर के ठीक सामने फल्गु नदी के उस पार सीताकुण्ड है। यहां मंदिर में काले पत्थर का महाराज दशरथ का हाथ बना है। वहीं पर एक शिला है, जो भरता श्रम की वेदी कहलाती है। इसी को रामगया कहते हैं। यहां मतंग ऋषि का चरण चिन्ह बना है तथा अनेक देव मूर्तियां है।

उत्तरमानस : विष्णुपद से एक किमी. उतर रामशिला मार्ग पर उतर मानस सरोवर है। इसमें चारों और पक्की सीढि़यां हैं। इसके पश्चिम एक धर्मषाला है और उतर एक मंदिर है जिसमें उतरार्क सूर्य और शीतलादेवी की मूर्तियां है। सरोवर के पश्चिमोतर कोण पर मौनेश्वर तथा पिता महेश्वर शिव-मंदिर है। यहां पर श्राद्ध करके यात्री मौन होकर सूर्यकुण्ड तक जाते हैं।

गायत्री देवी मंदिर : विष्णुपद-मन्दिर से 0.5 कि. मी. उत्तर फल्गु किनारे गायत्रीघाट है। घाट के ऊपर गायत्रीदेवी का मंदिर है। इसके उतर लक्ष्मीनारायण मंदिर है और वहीं पास में वभनीघाट पर फलवेश्वर शिव मंदिर है। उसके दक्षिण गयादित्य नामक सूर्य की चर्तुभुज मूर्ति एक मंदिर में है।

संकटा देवी मंदिर : प्रपितामहेश्वर विष्णुपद मंदिर से लगभग 350 गज दक्षिण संकटादेवी और प्रपितामहेश्वर के छोटे – छोटे मंदिर है।

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