के. विक्रम राव
यूरोप और अमेरिका में अफ्रीकी अश्वेतों को गुलाम बनाने की प्रथा से भी निकृष्टतम व्यवस्था रही जमींदारी। आजादी के तुरंत बाद राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अधिनियम पर हस्ताक्षर (24 जनवरी 1951) कर इस दो सौ साल पुरानी शोषक कानून खत्म तो कर दिया। पर किसान पूर्णतया मुक्त नहीं हुये। अर्थात बिचौलियों के सारे अधिकार तथा हितों का अंत हो नहीं पाया। इस क्रांतिकारी जनवादी संघर्ष को याद करते हैं आज, (5 अक्टूबर 2023), क्योंकि उसके रचयिता लॉर्ड चार्ल्स कॉर्नवालिस का 118वां निधन दिवस है। इतिहास में यही गोरा शासक भारतीय किसानों का सबसे नृशंस शोषक रहा। जमींदारी व्यवस्था को लॉर्ड कार्नवालिस के नेतृत्व में 1793 में लाया गया था। यह “स्थायी बंदोबस्त प्रणाली” भारत में जमींदारी व्यवस्था की उत्पत्ति मानी जाती है। इस ब्रिटिश गवर्नर जनरल कार्नवालिस की भू-नियमावली से सर्वाधिक क्षति यूपी के किसानों की ही हुई थी। हालांकि सारा भारत इस कानून से त्रस्त रहा था। यूपी का दुर्भाग्य रहा कि यह ब्रिटिश शोषक पूर्वी उत्तर प्रदेश के गंगा तटीय गाजीपुर शहर में दफन हुआ। इंग्लैंड में जन्मा यह फौजी अफसर पूर्वी क्षेत्र के दौरे पर था जब बुखार से ग्रसित हुआ। मर गया। हालांकि शहर का नाम तुगलक शासक गाजी मलिक के नाम पर पड़ा। गुलाब जल और विप्रशिरोमणि महर्षि परशुराम के पिता जमदग्नि की तपोस्थली थी। इसी के पश्चिमी क्षेत्र में इस जमींदारी प्रथा के संस्थापक का शरीर गड़ा हुआ है।
भारत जैसे प्राचीन और परंपरागत देश में भू संबंधी ऐसी अन्यायपूर्ण नियमावली रची गई एक ब्रिटिश साम्राज्यवादी द्वारा। देश उसे करीब दो सदियों तक भुगतता रहा। कृषकों का लहू चुसता रहा। देसी रजवाड़ों, सामंतो, जमींदारों और भू स्वामियों द्वारा। धर्म-प्रधान भारत के प्राचीन दर्शन के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति रही। धरती भी वायु, जल एवं प्रकाश की तरह प्रकृतिदत्त उपहार मानी जाती थी। महर्षि जैमिनि के मतानुसार “राजा भूमि का समर्पण नहीं कर सकता था, यह उसकी संपत्ति नहीं, वरन् मानव समाज की सम्मिलित संपत्ति है। इसलिये इस पर सबका समान रूप से अधिकार है”। मनु का भी कथन है : “ऋषियों के मतानुसार भूमिस्वामित्व का प्रथम अधिकार उसे है जिसने जंगल काटकर उसे साफ किया था जोता (मनुस्मृति, 8.237-239)।” भूमिव्यस्था के संबंध में याज्ञवल्क्य के मतानुसार चार वर्ग (महीपति, क्षेत्रस्वामी, कृषक और शिकमी) थे (याज्ञवल्क्य 2.158)। आचार्य बृहस्पति ने क्षेत्रस्वामी के स्थान में केवल स्वामी शब्द का ही प्रयोग किया है परंतु इसका स्पष्टीकरण कर दिया है कि स्वामी, राजा और खेतिहर के मध्य का वर्ग था। उपर्युक्त वर्णन केवल भूधृति के वर्गीकरण को इंगित करता है, न कि कृषक को जिसने एक आंग्ल दास के स्तर पर पहुँचा दिया था। हालांकि मुगल हिंदू प्रजा की भू स्वामित्व पर लगान लगाकर राजकोष भरते रहे। राजा टोडरमल ने इसे संयमित किया।
अंग्रेजों के आगमनकाल से ही जमींदारी प्रथा का उदय होने लगा। अंग्रेज शासकों का विश्वास था कि वे भूमि के स्वामी हैं और कृषक उनकी प्रजा हैं इसलिये उन्होंने स्थायी तथा अस्थायी बंदोबस्त बड़े कृषकों तथा राजाओं और जमींदारों से किए। मद्रास में जमींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज शासकों की नीलाम नीति द्वारा हुआ। गाँवों की भूमि का विभाजन कर उन्हें नीलाम कर दिया जाता था और अधिकतम मूल्य देनेवाले को विक्रय कर दिया जाता था। प्रारंभ में अवध में बंदोबस्त कृषक से ही किया गया था परंतु तदनंतर राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त जमींदारों से किया गया। महात्मा गांधी की प्रेरणा से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने किसान सभा की स्थापना कर, उन अन्नदाताओं की आवाज देने का प्रयास किया था। इसके प्रथम चरण में (सन् 1859 ई0 से 1929 ई0 तक) कानून बने उनसे जमींदारों के लगान बढ़ाने के अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए।
इन भूमि सुधार अधिनियमों के बनने पर जमींदारों को पंगु बना दिया गया था। कांग्रेस ने कई बार इस बात की घोषणा की कि जमींदारी उन्मूलन को पार्टी के कार्यक्रम में प्रमुख स्थान देना चाहिए। एक किसान कांफ्रेंस 27 अप्रैल सन् 1935 को सरदार पटेल के सभापतित्व में इलाहाबाद में हुई थी। उसने जमींदारी उन्मूलन को प्रस्ताव पास करके इस ओर एक प्रमुख कदम उठाया इस प्रस्ताव में यह घोषणा की गई थी : “ग्रामकल्याण के दृष्टिकोण से वर्तमान जमींदारी प्रथा बिल्कुल विपरीत है। यह प्रथा ब्रिटिश शासन के आगमन में लाई गई और इससे ग्रामीण जीवन पूर्णतया तहस नहस हो गया है।” परंतु सन् 1939 ई0 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो जाने के कारण भूमि सुधार का सारा कार्यक्रम रूक गया। जमींदारी के खात्मे हेतु संघर्ष ने तेजी पकड़ी 1946 में जब चुनाव में सफलता के फलस्वरूप जब हर प्रांत में कांग्रेस मंत्रिमंडल बने तो चुनाव प्रतिज्ञा के अनुसार जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिये विधेयक प्रस्तुत किए गए। ये विधेयक सन् 1950 से 1955 तक अधिनियम बनकर चालू हो गए जिनके परिणामस्वरूप जमींदारी प्रथा का भारत में उन्मूलन हो गया और कृषकों एवं राज्य के बीच पुन: सीधा संबंध स्थापित हो गया। भूमि के स्वत्वाधिकार अब कृषकों को वापस मिल गए जिनका उपयोग वे अनादि परंपरागत काल से करते चले आए थे। इस प्रकार जिस जमींदारी प्रथा का उदय हमारे देश में अंग्रेजों के आगमन से हुआ था उसका अंत भी उनके शासन के समाप्त होते ही हो गया।
यूं जमींदारी उन्मूलन के लंबे संघर्ष में कांग्रेस और कम्युनिस्ट सहित कई राजनीतिक दलों की किरदारी रही, मगर सोशलिस्ट पुरोधाओं, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन आदि का नाम उल्लेखनीय है। आजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू की मिलीजुली अर्थव्यवस्था के हितवाली राष्ट्रनीतियों का विरोध कर सोशलिस्ट जेलों को भरते रहे। उनका पहला नारा बुलंद हुआ था : “धन और धरती बटकर रहेगी।” नहीं हुआ। अमीर और ज्यादा अमीर होते रहे। सोशलिस्टों का दूसरा नारा था : “जिन जोतों पर लाभ नहीं, उन पर लगे लगान नहीं।” किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह का राज था पर सीमांत किसानों का शोषण चलता रहा। फिल्में बनी “दो बीघा जमीन” से “लगान” और “मदर इंडिया” तक। त्रासदी को उजागर करते रहे। किसान कर्ज में डूबा रहता रहा। खुदकुशी करता रहा। उसके लिए सुनहरी सुबह अभी आनी शेष है। कॉर्नवालिस का भूत भागा नहीं है।