क्या है चातुर्मास~श्रीहरि शयन का रहस्य

  • प्रकृति के हर परिवर्तन के है देवता साक्षी
  • त्रिदेवो की महिमा- त्रिगुणात्मिका माया का अर्थ
  • पितृपक्ष,देव पक्ष,दीपावली,सूर्य उपासना के पीछे कारण
  • देवोत्थान के बाद शुरु होते है शुभ कार्य

*बलराम कुमार मणि त्रिपाठी

पूर्णपरात्पर सच्चिदानंद परब्रह्म परमेश्वर गुणातीत हैं। निर्गुण निराकार निर्विकार है। हर्ष -विषाद, ज्ञान -अज्ञान,सुख- दुख से परे द्वंद्वातीत होने से वे सदा जाग्रत है। फिर भी सृष्टि के क्रम को जारी रखने के लिए,सृजन पालन और संवरण के लिए तीन देव,तीन गुण, तीन लोकों की रचना की। यद्यपि त्रिदेव व्रह्मा विष्णु महेश सदा जाग्रत होकर सृष्टि संचालन में अनवरत लगे हुए हैं। तुरीय भावस्थ श्रीहरि समस्त ब्रह्मांडों की समूची संरचना पर निरंतर निगाह रखे हैं फिर भी लोक लीला के सहज आवर्तन विवर्तन के लिए जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति की लीलाएं करते हैं। इस लीला से समूची प्रकृति प्रभावित होती है।

आषाढ़शुक्ल एकादशी को हरि शयनी के साथ चार माह के विश्राम के लिए श्रीहरि चले जाते हैं तो जगत का कार्यभार तमोगुण के देवता शिव को दे देते है। भाद्रपद शुक्ल एकादशी को पार्श्व परिवर्तन कर श्रीहरि विष्णु सात्विक भाव में आने लगते हैं… इस तरह जगत को जागरण का संदेश देते हैं, कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान के साथ वे पुन: कार्य भार ग्रहण कर ब्रहाण्ड के पालन का कार्य करने लगते हैंं।यद्यपि सृजन करने वाले ब्रह्मा ,संहार करने वाले महादेव सदा अपने कार्य मे लगे हैं.. फिर भी अपने सूक्ष्म अंश से श्रीहरि भी पालन कार्य करते रहते हैं।

हम सोने जाते हैं,पहले बायीं करवट सोते हैं ,तो दाहिनी नासिका चलती है। उस समय रजोगुण( सूर्यनाड़ी) सक्रिय होकर हमारे खाये हुए अन्न को पचाने लगता है, तब हमारी दायीं नाड़ी चलती है। इसी बीच तमोगुण के उदय होने पर शरीर की कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां धीरे धीरे निष्चेष्ट होने लगती हैं ,फिर हमें गहरी नींद मे डाल देती है।तब शरीर सुषुप्ति में तो कभी स्वप्न लोक में चला जाता है। सांसें निरंतर चलती रहती है। आत्मा इस घटना का मूक दर्शक होता है। फिर नींद पूरी होने के बीच करवट बदलता ( पार्श्व परिवर्तन होता) है.. तो चंद्र नाड़ी सक्रिय होती है। तब शरीर मे कही चोट हो, थकान हो कोई अंग बीमार हो उसकी हीलिंग(क्षतिपूर्ति) होने लगती है। बायीं नाड़ी( चंद्रनाड़ी का चलना) संकेत है कि शीघ्र जागरण होने वाला है। तब प्रकृति मे भोर के ब्राह्म मुहूर्त का आगमन होता है। पहले सूर्य के सारथी अरुण का प्रकाश क्षितिज की पूर्व दिशा को आलोकित करने लगता है,जो सूर्योदय की सूचना देता है। हर प्राणी नींद से जग कर सक्रिय होजाते हैं। चार माह बीतने पर श्रीहरि का जागरण होता है,जिसे देवोत्थान कहते हैं। जैसे हमारा नित्य सूर्योदय होता है , तो चराचर जगत सक्रित होने लगता है।

श्रीहरि के पार्श्व परिवर्तन होने पर भू लोक,भुव; और स्वर्ग लोक जाग्रत होते हैं। आश्विन कृष्ण पक्ष मे पितृगण और शुक्ल पक्ष मे स्वर्ग के देवता जग कर अपना भाग लेने को उत्सुक होजाते हैं। दीपावली देव लोक मे प्रसन्नता का उत्सव है।दीपावली की रात में महालक्ष्मी,ऋद्धि सिद्धि सहित गणेश और कुबेर का पूजन होता है। तत्पश्चात् गोबर्द्धन पूजा ( अन्नकूट) के बाद कन्या की शादी ढूंढ़ने लोग चल देते हैं। सूर्य देवता की उपासना ( छठ पूजा)होती है। फिर कार्तिक शुक्ल एकादशी मे देवोत्थान पर सभी देवी देवता सक्रिय होकर श्रीहरि का स्वागत करते हैं। तत्पश्चात श्रीहरि ( शालिग्राम), और महालक्ष्मी( तुलसी) के साथ विवाह के पश्चात भूलोक पर विवाहादि शुभ कार्य शुरु होजाते हैं।

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