राजेश श्रीवास्तव
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इस महीने देश भर के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि ये सत्तारूढ़ BJP और हाल ही में बने कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन के बीच एक तरह सेमीफाइनल मैच की तरह देखा जा रहा है। तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला है। जबकि तेलंगाना और मिजोरम में कांग्रेस के सामने सत्तारूढ़ क्षेत्रीय दल हैं। यह पहला मौका है जब BRS को कांग्रेस चुनौती दे रही है। अगर चुनाव में पार्टी अच्छा करती है तो उसे BJP के मुकाबले अच्छा राजनीतिक लाभ मिलेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ये चुनाव इस बात की परीक्षा हैं कि क्या वे भारत की सबसे पुरानी पार्टी यानी ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के अपने वादे को पूरा करने में सक्षम हैं। या फिर दस सालों में उनकी क्षमता चुक गयी है और भाजपा में अकेले मोदी चुनावी जीत की गारंटी नहीं रह गये हैं। अब विधानसभा चुनाव भी भाजपा मोदी के नाम पर जीत पाने में सफल नहीं रह गयी है, इन सारे सवालों का जवाब तीन दिसंबर को मिलेगा।
पांच साल पहले यानी पिछले चुनाव में कांग्रेस तेलंगाना और मिजोरम में बुरी तरह हार गई थी, जबकि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसे जबरदस्त अप्रत्याशित लाभ हुआ था।पार्टी ने छत्तीसगढ़ में बहुमत से तो एमपी और राजस्थान में कड़ी टक्कर देकर तीनों राज्यों से BJP सरकारों को सत्ता से बाहर कर दिया था। लेकिन उसके बमुश्किल एक साल बाद ही, BJP बड़ी संख्या में विधायकों के साथ कांग्रेस के दिग्गज नेता ज्योतिरिदित्य सिधिया को तोड़कर मध्य प्रदेश में दोबारा सत्ता हासिल करने में कामयाब रही और लंबे समय तक ऐसा लग रहा था कि वह राजस्थान में भी इसी तरह का तख्तापलट दोहराने की कगार पर है। वहां के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनकी पार्टी के प्रतिद्बंद्बी सचिन पायलट के बीच अंदरूनी कलह का फायदा उठाया जा रहा है। मोटे तौर पर कांग्रस की आलकमान वाली स्टाइल में प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के सत्ता में आने के बाद BJP पार्टी पर कब्जा कर लिया है।
लेकिन इस बार तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव में BJP अपने दृष्टिकोण में स्पष्ट रूप से भ्रमित और अस्थायी दिखाई दे रही है। कभी वह शिवराज को लेकर भ्रम में दिखती है तो राजस्थान में वह बघोल को घोर कर अपने को असफल दिखा रही है। केंद्रीय नेतृत्व का रमन सिह को छत्तीसगढ़ में, मध्य प्रदेश में शिवराज सिह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे को BJP के चुनाव अभियान का नेतृत्व नहीं करने देने से मुख्य समस्या उठ रही है। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में BJP को इसी तरह की रणनीति का खामियाजा भुगतना पड़ा। पार्टी को कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी। लेकिन भाजपा इससे सीख लेने को तैयार नहीं दिख रही है। इसके बाद संकेत मिले कि BJP के शीर्ष नेतृत्व लीडर्स की सूची पर विचार किया जा रहा है। इन तीन नेताओं को शांत करने के लिए अंतिम समय में प्रयास किए गए हैं। छत्तीसगढ़ में, जब से उन्हें 2018 में कांग्रेस ने हराया था, तब से BJP आलाकमान ने हाशिए पर डाल दिया। वहीं, विधानसभा चुनाव के टिकट वितरण के अंतिम क्षण तक यह निश्चित नहीं था कि उन्हें टिकट मिलेगा भी या नहीं। लेकिन अंत में उन्हें लगभग बिना सोचे-समझे टिकट दे दिया गया। हालांकि, इसके उल्टे उनके समकक्ष कांग्रेस के सीएम भूपेश बघेल के विपरीत BJP उन्हें CM पद उम्मीदवार बताती हुई नहीं दिख रही है।
इसी तरह, मध्य प्रदेश में एक और लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिह चौहान को बार-बार दरकिनार किया गया है और BJP के जीतने पर उनका पद बरकरार रहेगा, ये भी निश्चित नहीं है। यहां फिर से केंद्रीय नेतृत्व इस दुविधा में फंस गया है कि चुनाव में पार्टी की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाए बिना चौहान का कद कैसे कम करे। जिस चीज ने इस काम को और मुश्किल बना दिया है, वह है ज्योतिरिदित्य सिधिया का घटता प्रभाव, जिनके पूर्व वफादार या समर्थक जो उनके साथ कांग्रेस से BJP में चले गए थे, वे लगातार अपनी मूल पार्टी की ओर रुख कर रहे हैं। कांग्रेस के CM अशोक गहलोत को सत्ता विरोधी लहर और नाराज प्रतिद्बिंदी सचिन पायलट की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे में BJP को आसान जीत हासिल हो सकती थी लेकिन पार्टी इस दुविधा में है कि चुनाव में नुकसान उठाए बिना, कैसे अनुभवी और अभी भी प्रभावशाली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को दरकिनार किया जाए। यानि हर जगह भाजपा भ्रम में है।
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तीनों राज्यों में BJP और कांग्रेस के बीच बड़ा अंतर यह है कि BJP ने स्पष्ट रूप से किसी क्षेत्रीय दिग्गज को अपने चुनाव अभियान के चेहरे के रूप में पेश करने से इनकार कर दिया है और इसके वो बजाय प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट मांग रही है, जबकि कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से अपने सीएम उम्मीदवारों को चुन लिया है। मतलब अगर भाजपा हारी तो क्षोत्रीय नेताओं को दोष नहीं दिया जा सकता है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। लेकिन जीती तो भाजपा सीधो मोदी को श्रेय देगी। यह देखना बाकी है कि BJP और कांग्रेस के बीच ऐतिहासिक भूमिकाओं का यह विडंबनापूर्ण उलटफ़ेर चुनावों में क्या असर दिखाता है लेकिन हाल ही में हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में BJP सरकारों को सत्ता से बेदखल करने की कांग्रेय की जीत से भगवा पार्टी को चितित है, जो साफ दिख भी रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी के लिए, तेलंगाना और मिजोरम में उभरता चुनावी माहौल भी चिता का विषय है, भले ही BJP खुद दोनों राज्यों में एक छोटी खिलाड़ी है। तेलंगाना में कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन में सुधार के उल्लेखनीय संकेत दिखाए हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि BJP सहित राज्य की सभी पार्टियों के बड़ी संख्या में नेता इसमें शामिल हो रहे हैं। तेलंगाना में अकल्पनीय जीत या विधानसभा में कांग्रेस की वर्तमान संख्या में भारी वृद्धि निश्चित रूप से राज्य में पार्टी को उत्साहित करेगी। मिजोरम की बात करें तो भले ही BJP ने चुनाव से पहले राज्य में बहुमत हासिल करने या सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट और जोरम पीपुल्स मूवमेंट जैसे क्षेत्रीय दलों के साथ चुनाव जीतने का वादा किया है लेकिन यहां चुनावी मैदान में जीतना थोड़ा मुश्किल है। हिदू कट्टरपंथियों की ओर से ईसाई विरोधी अत्याचारों और कुकियों के खिलाफ नरसंहार को लेकर मिजोस में BJP के खिलाफ काफी गुस्सा है। मिजो ज्यादातर ईसाई हैं और पड़ोसी राज्य मणिपुर में कुकी के साथ जनजातीय संघर्ष को लेकर नाराज हैं। कुछ हद तक, यह गुस्सा मिजो नेशनल फ्रंट से मोहभंग को भी दर्शाता है क्योंकि वे BJP के नेतृत्व वाले नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट से जुड़े होने के बावजूद केंद्र सरकार के साथ पर्याप्त विरोध नहीं कर रहे हैं। मिजोरम में इस माहौल का कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल जोरम पीपल्स मूवमेंट को लाभ मिल सकता है। तेलंगाना और मिजोरम दोनों में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन, साथ ही होनेवाली तीन उत्तर भारतीय राज्यों में से कम से कम दो में जीत, प्रधानमंत्री मोदी की लगातार तीसरी बार दावेदारी के लिए एक गंभीर खतरा है।