जयपुर से राजेंद्र गुप्ता
कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को गोपाष्टमी पर्व मनाया जाता है। इस त्योहार को मनाए जाने की परंपरा द्वापर युग से ही चली आ रही है। गोपाष्टमी पर गो माता की पूजा का महत्व है। कार्तिक मास हिंदू धर्म का सबसे पवित्र और उत्तम महीना माना जाता है। इस मास कई महत्वपूर्ण व्रत-त्योहार पड़ते हैं, जिसमें गोपाष्टमी भी एक है। पंचांग के अनुसार हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन गोपाष्टमी का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व गाय की पूजा के लिए समर्पित है।
क्यों मनाई जाती है गोपाष्टमी?
गोपाष्टमी पर्व मनाए जाने की परंपरा द्वापर युग से ही चली आ रही है। कहा जाता है कि, भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठ ऊंगली पर धारण किया था। इसके बाद आठवें दिन इंद्र देव का अहंकार खत्म हुआ और वे श्रीकृष्ण से माफी मांगने पहुंचे। इसके बाद से ही इस दिन यानी अष्टमी तिथि पर गोपाष्टमी उत्सव मनाने की परंपरा की शुरुआत हुई।
गोपाष्टमी की तिथि और मुहूर्त
गोपाष्टमी का पर्व 20 नवंबर 2023 को मनाया जाएगा। पंचांग के अनुसार, कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि पर यह पर्व मनाया जाता है। इस साल अष्टमी तिथि सोमवार 20 नवंबर 2023 सुबह 05 बजकर 21 मिनट से शुरू हो जाएगी और मंगलवार 21 नवंबर 2023 सुबह 03 बजकर 18 मिनट पर समाप्त हो जाएगी। ऐसे में गो पूजन पर समर्पित गोपाष्टमी का पर्व सोमवार 20 नवंबर 2023 को मनाया जाएगा।
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गोपाष्टमी की पूजा विधि
गोपाष्टमी पर गो पूजन करने से श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। गोपाष्टमी पर सुबह गाय को शुद्ध जल से स्नान कराना चाहिए और इसके बाद फूल-माला वस्त्र पहनाकर रोली-चंदन का तिलक लगाना चाहिए। फिर गोमाता को फल, मिष्ठान, आटे व गुड़ की भेली, पकवान आदि खिलाएं और धूप-दीप जलाकर आरती करें। इस दिन गोमाता के साथ ही भगवान श्रीकृष्ण की भी पूजा करें।
गोपाष्टमी पर गाय की पूजा का महत्व
हिंदू धर्म में गाय को पूजनीय पशु माना गया है। ऐसी मान्यता है कि गाय में 36 कोटि देवी-देवताओं का वास है। श्रीमद्भागवत गीता में गाय के बारे में लिखा गया है- जब देवताओं और असुरों के बीच समुंद्र मंथन हुआ था तो इसमें 14 बहुमूल्य रत्न निकले थे, जिसमें कामधेनु गाय भी एक है। पवित्र होने के कारण कामधेनु को ऋषियों ने अपने पास रखा। श्रीमद्भागवत गीता में यह उल्लेख है कि, भगवान श्रीकृष्ण बाल्यावस्था में गायों संग खेला करते हैं और वे गायों की सेवा भी करते थे। उन्हें गाय से बहुत प्रेम था। गोपाष्टमी पर गायों की पूजा करने से सुख-सौभाग्य व समृद्धि की प्राप्ति होती है। इस दिन गाय और गाय के बछड़े की भी पूजा करनी चाहिए।
गोपाष्टमी से जुड़ी प्रचलित कथाएं
कथा-1 : जब कृष्ण भगवान ने अपने जीवन के छठे वर्ष में कदम रखा। तब वे अपनी मैया यशोदा से जिद्द करने लगे कि वे अब बड़े हो गये हैं और बछड़े को चराने के बजाय वे गैया चराना चाहते हैं। उनके हठ के आगे मैया को हार माननी पड़ी और मैया ने उन्हें अपने पिता नन्द बाबा के पास इसकी आज्ञा लेने भेज दिया। भगवान कृष्ण ने नन्द बाबा के सामने जिद्द रख दी, कि अब वे गैया ही चरायेंगे। नन्द बाबा ने गैया चराने के लिए पंडित महाराज को मुहूर्त निकालने कह दिया। पंडित बाबू ने पूरा पंचाग देख लिया और बड़े अचरज में आकर कहा कि अभी इसी समय के आलावा कोई शेष मुहूर्त नही हैं अगले बरस तक। शायद भगवान की इच्छा के आगे कोई मुहूर्त क्या था। वह दिन गोपाष्टमी का था। जब श्रीकृष्ण ने गैया पालन शुरू किया। उस दिन माता ने अपने कान्हा को बहुत सुन्दर तैयार किया। मौर मुकुट लगाया, पैरों में घुंघरू पहनाये और सुंदर सी पादुका पहनने दी लेकिन कान्हा ने वे पादुकायें नहीं पहनी। उन्होंने मैया से कहा अगर तुम इन सभी गैया को चरण पादुका पैरों में बांधोगी, तब ही मैं यह पहनूंगा। मैया ये देख भावुक हो जाती हैं और कृष्ण बिना पैरों में कुछ पहने अपनी गैया को चारण के लिए ले जाते। इस प्रकार कार्तिक शुक्ल पक्ष के दिन से गोपाष्टमी मनाई जाती हैं। भगवान कृष्ण के जीवन में गौ का महत्व बहुत अधिक था। गौ सेवा के कारण ही इंद्र ने उनका नाम गोविंद रखा था। इन्होने गाय के महत्व को सभी के सामने रखा। स्वयं भगवान ने गौ माता की सेवा की।
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कथा-2 : कहा जाता है कृष्ण जी ने अपनी सबसे छोटी ऊँगली से गोबर्धन पर्वत को उठा लिया था, जिसके बाद से उस दिन गोबर्धन पूजा की जाती है। ब्रज में इंद्र का प्रकोप इस तरह बरसा की लगातार बारिश होती रही, जिससे बचाने के लिए कृष्ण ने जी 7 दिनन तक पर्वत को अपनी एक ऊँगली में उठाये रखा था। गोपाष्टमी के दिन ही भगवान् इंद्र ने अपनी हार स्वीकार की थी, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने गोबर्धन पर्वत नीचे रखा था।
कथा-3: गोपाष्टमी ने जुड़ी एक बात और ये है कि राधा भी गाय को चराने के लिए वन में जाना चाहती थी, लेकिन लड़की होने की वजह से उन्हें इस बात के लिए कोई हाँ नहीं करता था। जिसके बाद राधा को एक तरकीब सूझी, उन्होंने ग्वाला जैसे कपड़े पहने और वन में श्रीकृष्ण के साथ गाय चराने चली गई। कृष्ण जी के हर मंदिर में इस दिन विशेष आयोजन होते है। वृन्दावन, मथुरा, नाथद्वारा में कई दिनों पहले से इसकी तैयारी होती है। नाथद्वारा में 100 से भी अधिक गाय और उनके ग्वाले मंदिर में जाकर पूजा करते है। गायों को बहुत सुंदर ढंग से सजाया जाता है।