दो टूक : शाह ने एक बार फिर देश को नेहरू के नाम पर की गुमराह करने की कोशिश

राजेश श्रीवास्तव

दो दिन पूर्व भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में एक बयान दिया कि नेहरू की नीतियों की खामी के चलते पीओके बना। अगर पंडित नेहरू ने ब्लंडर नहीं किया होता तो पीओके नहीं बनता। केंद्रीय गृह मंत्री ने 1948 में तत्कालीन केंद्र सरकार की ओर से जल्द संघर्ष विराम और मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने को नेहरू की दो ऐतिहासिक गलतियां बताया। गृह मंत्री के आरोपों के पर कांग्रेस और नेशनल कांफे्रंस ने पलटवार किया। कांग्रेस ने गृह मंत्री पर जानबूझकर उत्तेजक और पूरी तरह से गलत बयान देने का आरोप लगाया।

वहीं, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला ने दावा किया अगर आज पुंछ और राजौरी अगर भारत का हिस्सा हैं तो वो नेहरू की वजह से, नहीं तो वह भी पाकिस्तान में चला गया होता। ऐसे में सवाल उठता है कि गृह मंत्री ने जिन दो मुद्दों को नेहरू की गलतियां बताईं वो हैं क्या? आखिर कश्मीर के लिए संघर्ष विराम कब हुआ था? कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में कब और कैसे पहुंचा? संघर्ष विराम लागू करने के वक्त नेहरू का क्या रुख था? कश्मीर में युद्ध की शुरुआत कैसे हुई थी? दरअसल कहानी तब शुरू हुई जब दूसरे विश्वयुद्ध में हुए भारी आर्थिक नुकसान और खराब होती अर्थव्यवस्था के चलते ब्रिटिश साम्राज्य तेजी से सिकुड़ रहा था। दो जून 1947 को वाइसरॉय एडमिरल लॉर्ड लुइस माउंटबेटेन ने एलान किया कि भारत की आजादी के लिए ब्रिटेन तैयार हो गया है। इसके साथ यह भी तय हुआ कि भारत को आजादी के साथ उसके दो टुकड़े भारत और पाकिस्तान होंगे।

आजादी से पहले देश में देश की 5०० से अधिक रियासतों को यह चुनने का विकल्प मिला की वह भारत के साथ जाना चाहती हैं या पाकिस्तान के साथ जाना चाहती हैं। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ तो उससे एक दिन पहले पाकिस्तान अस्तित्व में आ चुका था। जोधपुर से जूनागढ़ तक और भोपाल से हैदराबाद तक कई ऐसी रियासतें थीं जो शुरुआत में भारत के साथ नहीं जाना चाहती थीं, लेकिन सरदार पटेल की कुशल रणनीति के चलते ये सभी भारत का हिस्सा बनीं। कुछ रियासतें पाकिस्तान के साथ भी गईं। इन सभी के बीच कश्मीर रियासत के राजा हरि सिह ने भारत और पाकिस्तान दोनों के ही साथ नहीं जाने का विकल्प चुना। यहीं से पूरी कहानी शुरू हुई। अस्तित्व में आते ही सामरिक रूप से बेहद अहम कश्मीर पर कब्जे के लिए पाकिस्तान साजिश रचने लगा। महज दो महीने बाद ही 24 अक्तूबर 1947 में पाकिस्तानी सैनिकों ने कबायलियों के भेष में कश्मीर पर हमला कर दिया। महाराजा हरि सिह के पास न तो इतनी सेना थी न ही इतने हथियार कि इनका मुकाबला कर सकते। उनकी सेना पीछे हटने लगी। कबायली मारकाट करने लगे। दो दिन के भीतर कबायली बारामूला तक पहुंच चुके थे। उनका अगला पड़ाव श्रीनगर और फिर वहां का एयरबेस था। पूरे कश्मीर के हालात हरि सिह के नियंत्रण से बाहर हो चुके थे।

वह खुद 25 अक्तूबर को ही श्रीनगर से जम्मू चले गए। जम्मू पहुंचकर हरि सिह ने पंडित नेहरू से मदद मांगी। नियम के मुताबिक श्रीनगर में भारतीय सेना तब तक नहीं घुस सकती थी, जब तक कश्मीर का भारत में विलय ना हो जाए। लॉर्ड माउंटबेटन ने इस बारे में स्थिति पहले ही स्पष्ट कर दी थी। इसके बाद हरि सिह के पास भारत में विलय के अलावा कश्मीर को बचाने का दूसरा रास्ता नहीं था। गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल अन्य रियासतों की तरह कश्मीर को भारत में शामिल करने की कोशिश में लगे थे। जैसे ही हरि सिह ने मदद की गुहार लगाई, गृह मंत्रालय की ओर से तैयार किए गए विलय के दो पन्नों के दस्तावेज लेकर गृह मंत्रालय के उस समय के सचिव बीपी मेनन 26 अक्तूबर 1947 को जम्मू पहुंचे। 26 अक्तूबर को ही हरि सिह ने भारत में विलय के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए। अगले दिन 27 अक्तूबर 1947 की सुबह भारतीय फौज श्रीनगर की हवाई पट्टी पर उतरी। इसके बाद कबायलियों के खिलाफ भारतीय सेना ने मोर्चा संभाला। 27 अक्तूबर 1947 से शुरू हुआ यह युद्ध एक साल दो महीने और दो हफ्ते बाद पांच जनवरी 1949 को खत्म हुआ। दरअसल, युद्ध शुरू होने के बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तानी हमलावरों के कब्जे से जम्मू और कश्मीर दोनों में काफी बड़ा क्षेत्र मुक्त कराया। इसमें पूरी कश्मीर घाटी भी शामिल थी। महीनों तक चले अभियान के बाद भारतीय सशस्त्र बलों के पास मौजूद हथियारों, संचार और आपूर्ति जैसी चुनौतियों के चलते आगे का अभियान काफी कठिन हो चुका था। आगे आने वाली लंबी और कठोर सर्दियां इस चुनौती को और बढ़ा रही थीं। यह एक तरह के गतिरोध की स्थिति थी। इससे पहले युद्ध शुरू होने के चार हफ्ते बाद ही थल सेनाध्यक्ष और भारतीय सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर, जनरल सर रॉय बुचर ने उस वक्त के रक्षा मंत्री बलदेव सिह को पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि अब राजनीतिक और सैन्य दोनों तरह से पूरी स्थिति की समीक्षा करने का वक्त आ गया है। जिससे दीर्घकालीन निर्णय लिया जा सके। इन सभी के बीच यह युद्ध जारी रहा।

युद्ध शुरू होने के एक साल बाद भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर की रक्षा की पहली वर्षगांठ मनाने के लिए एक मीडिया विज्ञप्ति जारी की। इसमें भारतीय सेना ने कहा ’’आज, 12 महीने की महंगी लड़ाई के बाद, दुश्मन अपने सैन्य उद्देश्य (श्रीनगर और कश्मीर घाटी पर कब्जा करना) को प्राप्त करने से पहले की तरह बहुत दूर है। भारतीय सेना ने घाटी के चारों ओर मजबूत घेरा बना दिया है, जिस पर आक्रमणकारी महीनों से व्यर्थ हमला कर रहे हैं।’’ नेहरू और बुचर के बीच हुए पत्रचार को लेकर आई रिपोर्ट्स के मुताबिक युद्ध शुरू होने के 13 महीने बाद 22 नवंबर 1948 को बुचर ने नेहरू को सैनिकों की थकान, जूनियर अधिकारियों की कम ट्रेनिग के बारे में जानकारी दी।

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उन्होंने हथियारों की कमी के बारे में भी इस खत में लिखा। इसके जवाब में नेहरू ने अगले ही दिन लिखा कि यह जानते हुए कि पाकिस्तानी सेनाएं कश्मीर के हमले में शामिल हैं ऐसे में राजनीतिक और सैन्य दोनों ही दृष्टिकोण से हमारे पास उन पर हमले का विकल्प है। क्या हम ऐसा करने की स्थिति में हैं? दोनों के बीच हुए पत्राचार से पता चलता है कि नेहरू एक मजबूत समाधान चाहते थे, जबकि बुचर की राय थी यह व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। इस पत्राचार के बाद 31 दिसंबर, 1948 को, बुचर ने पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख जनरल सर डगलस ग्रेसी के साथ युद्धविराम पर सहमति व्यक्त की। एक जनवरी 1949 को संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध विराम की घोषणा की। जिसे पांच जनवरी को लागू कर दिया गया। इस पूरे प्रकरण का गहरायी से अध्ययन करें तो साफ होता है कि उस समय की जो परिस्थितियां थीं उसके लिए नेहरू दोषी नहीं थे। न ही कोई और । युद्ध की परिस्थितियां और तत्कालीन माहौल के चलते कोई भी सरकार होती तो यही करती। मतलब साफ है कि आज की पीढ़ी को अमित शाह पूर्व के राजनेताओं के बारे में पूरी तरह गुमराह ही कर रहे हैं। यह किसी भी सियासत करने वालों के लिए उचित नहीं है क्योंकि अगर आप पूर्व के राजनेताओं के इतिहास को गुमराह कर प्रकट करेंगे तो निश्चित रूप से दुनिया की नजरों में भारत की ही छवि खराब होगी।

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