के. विक्रम राव
राजनेताओं को शैक्षणिक विषयों पर तभी बोलना चाहिए जब वे स्वयं उच्च शिक्षा याफ़्ता हो। अर्थात कोई कम पढ़ा मंत्री ज्ञान की बाते करे तो वही होगा जो महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार के साथ विधान परिषद में गतसप्ताह हुआ। सदन में चर्चा हो रही थी कि डॉक्टरेट अनुसंधान (पीएचडी) हेतु उपलब्ध छात्रवृत्तियों में कटौती नहीं होनी चाहिए। इससे शोध कार्य की हानि होती है। परिणामतः मानव ज्ञान पिछड़ेगा। इस पर पवार ने सदन में कह दिया : “पीएचडी करून काये दिवे लावनार आहेत ?” (क्या रोशन कर दिया डाक्टरेट कर के ?”) अर्थात शोधकार्य वृथा है। इस पर कइयों ने अमेरिकी राजनीतिशास्त्री और पत्रकार हेनरी जॉर्ज की उक्ति याद की : “राजनीति केवल राजनेताओं के जिम्मे नहीं छोड़ी जा सकती, जैसे अर्थशास्त्र केवल अध्यापकों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।
ज्यों ही उनकी हास्यास्पद उक्ति सदन के बाहर मीडिया में व्यापी तो इन उपमुख्यमंत्री साहब ने पलटी मार दी। वे बोले वे शोधकार्य के पक्षधर ही हैं। “आवश्यक मानते हैं।” मगर तब तक मुंबई के “दैनिकों” ने अजित पवार को सावधान किया कि वे विधायक हैं, बौद्धिक कसरतों से बचें। ताकि मेधा पर शक न जन्मे। दिमाग के खोखले होने की आशंका किसी को न हो। शोध कार्य का अनावश्यक बताकर उपमुख्यमंत्री ने अपने विवेक पर खुद सवालिया निशान लगा दिया था। अब साठ पार कर चुके, कई बार सांसद और विधायक रह चुके, अजित पवार की बात अकादमिक क्षेत्रों में हास्यास्पद तो मानी गई। तीव्र आलोचना का सबब भी बना। यूं भी उन्हें शिक्षा जगत का ऊंचा अनुभव तो कभी हुआ नहीं। उनके एक आलोचक ने शंका जाहिर कर दी कि कहीं कोल्हापुर के शिवाजी विश्वविद्यालय में कोई स्नातकोत्तर छात्र पीएचडी के लिए उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी पर थीसिस न लिख बैठे। विशद व्याख्या करें कि चाचा शरद पवार और भतीजे अजित पवार ने पार्टी को कैसे तोड़कर बाटा, कमजोर किया। इन पहलुओं पर डाक्टरेट न कर लें। इसी संदर्भ में पुराने छात्रों ने याद भी दिला दिया कि एकदा अजित पवार दसवीं कक्षा में फेल हुए थे। बात बतंगड़ बन रही थी कि पवार ने शोध कार्य की तारीफ करनी शुरू कर दी। तब तक उन्हें कइयों ने पीएचडी की महत्ता से अवगत कराया। मंत्रीजी को बताया गया कि शिक्षा क्षेत्र में शोध कार्य से नई तकनीक का इजाद होता है। इससे वैश्विक स्तर की शिक्षा पाई जाती है। शोध की क्रियाविधि के साथ छात्रों में जागरूकता पैदा की जाती है। उच्च शिक्षा में शोध जरूरी है ताकि शोध के माध्यम से किसी भी विषय की संपूर्ण जानकारी प्राप्त हो, शोध से नई खोज के रास्ते भी खुलते हैं और शिक्षा का क्षेत्र फैलता है। शोध का उपयोग शिक्षा को बोधगम्य बनाने में किया जाना चाहिए, जिससे इसका लाभ आम छात्र को मिल सके।
अकादमिक लोगों ने पवार को समझाया कि शोध-कार्य उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उच्चातर गंभीर,और महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है। स्वीकृत हो जाने पर शोधार्थी के कार्य परं केवल उसे उच्च उपाधि से सम्मानित किया जाता है। उसके प्रबंध को पुस्तकालय में सार्वजनिक ज्ञान को उच्चतम वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह मार्गदर्शन की संभावना और क्षमता से संपन्न माना जाता है। शोध के सार को रेखांकित करके विषय और क्षेत्र सम्बन्धी शोध की वार्षिक सूचियों में शामिल किया जाता है। शोध के अंशों को क्षेत्र सम्बन्धी शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता है। शोध प्रबंध प्रकाशित हो जाए तब तो यह समग्रतः सार्वजनिक संपत्ति बन जाता है। अप्रकाशित रहने की अवस्था में भी अन्तर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर पुस्तकालयों के बीच आदान-प्रदान की सुविधाओं के आधार पर विषय या क्षेत्र के अन्य शोधार्थी प्रबंध का अध्ययन कर सकते हैं। फिलहाल अजित पवार की एक भूल चूक से अकादमिक वर्तुलों में बड़ी जीवंत बहस चल पड़ी है कि आखिर उच्च शिक्षा का मकसद क्या है ? तब मराठी चिंतको ने अजित पवार को याद दिलाया कि हाल ही में बहुत बड़े पैमाने पर छत्रपति शिवाजी की मध्यकालीन शासन व्यवस्था पर शोध हो रहा है। ऊंचे दुर्गों में जल संरक्षण आदि पर काफी लिखा पढ़ा जा रहा है। यदि शोध कार्य न हो तो चिंतन और ज्ञान का भंडार छूट जाएगा। अब यकीन हो चला है कि हर राजनेता अजित पवार से सीख लेगा। अध्ययनशील और चिंतनशील बनेगा।