हेमंत शर्मा की “राम फिर लौटे” (प्रभात प्रकाशन) को पढ़ना लाजिमी हैं, अयोध्या के राम से पूर्णतया अवगत होने के हेतु। जो नहीं पढ़ेगा वह भगवान राम से अनजान रहेगा, अयोध्या से नावाकिफ। क्योंकि पुस्तक ही नश्वर विश्व में अमर रहती है। फिर वाल्टेयर ने कहा भी था : “सारे राष्ट्र, सिवाय असम्यों के, किताबों से ही शासित होते हैं।” बहुत श्रम किया है हेमंत ने इस किताब को लिखने में। असीम रिसर्च किया है। खोजे हुए तथ्यों को निपुणता से पिरोया है, तब पेश किया है। हां, यह शोध ग्रंथ है। मात्र किताब नहीं। क्योंकि इसके पृष्ठों में हेमंत की आत्मा बोलती है। एक ऐसा रिपोर्टर जिसने इतिहास देखा है। उसे कलमबद्ध किया है। बाबरी गुंबदों की बुलंदी का दीदार किया। उन्हें ढहते देखा। अब वहीं भव्य रामालय बनते दिखेगा। हेमंत ने सब बनते-बिगड़ते देखा। अब उसे लिख रहे हैं। ढेर सारे दस्तावेज, घटनाएं, व्यक्ति, घुमाव और मौके खुद जाने हैं हेमंत ने। सारा कानों सुनी नहीं, आंखों देखी है। अतः हर शोध छात्र के लिए “राम फिर लौटे” बड़ी मुफीद संदर्भ सामग्री भी है।
अंग्रेजी कहावत कभी पढ़ी थी : “स्टाइल ईज दि मेन” (शैली ही व्यक्ति होती है।) सौ फीसदी हेमंत पर फिट बैठती है। “जनसत्ता” दैनिक को पहचान दी थी लखनऊ में हेमंत ने। लघु वाक्य, बिना क्रिया के, लिखकर अपनी रपट में। नाविक के तीर जैसे शब्द। विशेषण का इस्तेमाल हेमंत ने किया, विशेषता से। उन्होंने बता दिया कि चोटी के खोजी रिपोर्टर हैं। एक बार की घटना है। मुलायम सिंह यादव और उनके समाजवादी जन राष्ट्रीय स्वयं सेवक पर जिहाद चलवा रहे थे। उजबेकी डाकू जहीरूद्दीन बाबर के ढांचे को बचाने में प्राण पण से जुटे थे। मानों आधुनिक यूपी मुगलों का ही हो। हेमंत ने तब एक रपट छापी “जनसत्ता” में। साथ में एक फोटो भी। इसमें संघ की शाखा में डॉ. राममनोहर लोहिया थे। जो बात हजार शब्द में कह न सकें, वही इस फोटो ने बयां कर दी। लोहार की जैसी थी, हेमंत की कलम तो हथौड़ा थी। मगर उस दौर में (6 दिसंबर 1992) कुछ लोग, चंद पत्रकार भी, गमगीन थे। सेक्युलर दिखते थे। गुंबद गिरना उनकी नजर में बाबर पर बर्बरता थी। नजरिया अटल बिहारी वाजपेई-मार्का था। याद रहे संसद में इस भाजपा नेता ने कहा था : “दिसंबर 6 भारत के इतिहास का काला दिवस है।” सटीक जवाब दिया देश की जनता ने। इसे “मुक्ति दिवस” बताया। हालांकि तब तक असली हीरो लालकृष्ण आडवाणी को खलनायक बना दिया गया था। आडवाणी को बाबर से ऊंचा स्थान मिला है भारतीय इतिहास में। मुगल सेनापति मीर बाकी की निशानी ध्वस्त करने पर!
हेमंत की भाषा में निर्बार्ध रवानगी है। मानो रेखाओं को कोई निपुण रंग साज रूप दे रहा हो। हेमंत ने मेरे आत्मबंधु पी. वी. नरसिम्हा राव के साथ न्याय किया। वे लिखते हैं : “6 दिसंबर, 1992, दोपहर करीब 1 बजकर 40 मिनट पर बाबरी मस्जिद का पहला गुंबद गिराया गया। तब पामुलापति वेंकट नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री थे। दोपहर दो बजे के आसपास नरसिम्हा राव का फोन घनघनाता है। यह फोन कांग्रेस नेता और कैबिनेट मंत्री माखनलाल फोतेदार का था। वह चेतक हेलीकॉप्टर से कारसेवकों पर आँसू गैस छोड़ने की सिफारिश कर रहे थे। बाबरी विध्वंस को रोकना चाहते थे। नरसिम्हा राव पूजा पर बैठे थे। राव ने फोतेदार की परेशानी का कोई हल नहीं दिया। बात राष्ट्रपति तक पहुंची। कैबिनेट की मीटिंग बुलाई गई। बहुत हंगामा हुआ। आंसू बहाए गए। लेकिन नरसिम्हा राव बुत बनकर बैठे रहे। यह सारी कहानी खुद फोतेदार ने बताई। नरसिम्हा राव को बाबरी मस्जिद का पूर्वानुमान था। राव चाहते तो कारसेवकों को रोका जा सकता था। राव विध्वंस के वक्त पूजा कर रहे थे। फोतेदार की बातें सच है या झूठ पता नहीं लेकिन इतना जरूर है कि नरसिम्हा राव बहुत पहले से किसी पूजा में लीन रह रामकाज के आतुर थे। 1991 से ही बाबरी विध्वंस की आवाजें उठ रही थीं। नरसिम्हा राव सब कुछ जानते थे।
आखिर विष्णु के ही पर्याय तो थे नरसिम्ह भी। इस प्रधानमंत्री ने अपना नाम सार्थक कर दिया। यह तेलुगुभाषी नियोगी विप्र उस कश्मीरी पंडित की इस्लाम-परस्ती से ग्रसित नहीं था। अतः हेमंत शर्मा को इस न्यायप्रिय नरसिम्हा राव की पूरी तसवीर भी कभी लिखकर रूपित करनी चाहिए। प्रभात प्रकाशन से यह मेरा अनुरोध भी है। यूं हेमंत शिखर पत्रकार हैं। ख्यात और प्रतिष्ठित। फिर भी उनके बारे में उल्लेख हो। बी.एच.यू. से हिंदी में डॉक्टरेट। बाद में वहीं विजिटिंग प्रोफेसर भी हुए। सोलह साल तक लखनऊ में रह “जनसत्ता” तथा “हिंदुस्तान” में संपादकी की। फिर दिल्ली में टी.वी. पत्रकारिता। अयोध्या आंदोलन को काफी करीब से देखा। ताला खुलने से लेकर ध्वंस तक की। अयोध्या में मौजूद इकलौते पत्रकार। हेमंत को शायद पता हो कि 25 जून 1984 को इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) का राष्ट्रीय अधिवेशन अयोध्या में मेरी अध्यक्षता में हुआ था। स्व. मोरोपंत पिंगले की प्रेरणा थी। तब पांच सौ विदेशी और भारतीय प्रतिनिधियों ने टाट-तले विराजे राम लला के दर्शन किए थे। कई रोए थे। अब वे सब प्रमुदित होंगे। मुझे यह गौरव हासिल हुआ था कि लखनऊ में ही हेमंत के वक्त मैं भी कार्यरत रहा। “टाइम्स आफ इंडिया” संवाददाता के रूप में। तब अखबार दिल्ली से ही छपकर आता था। “राम फिर लौटे” पढ़कर मुझे लगा पत्रकारिता श्रेयस्वी हो गई। बधाई साथी हेमंत, प्रिय अनुज।