मकर वाहिनी गंगा आई।
पाप नाशिनी गंगा आई।।१।।
भागीरथ की उग्र तपस्या,
गंगावतरण की महती इच्छा।
पितरों को थी मुक्ति देना।
ठान लिया प्रण नहीं बैठना।।
एक पांव पर खड़े रहे वे।
नारायण का नाम जपे वे।।
ब्रह्मा जी ने यह सुधि पाई।
विष्णु चरण धोकर थी लाई।।
छलकाई जो बूंद कृपा कर।
मुक्ति दायिनी गंगा आई।।२।।
बड़ा कठिन था गंगा लाना।
बेगवती गंगा का लाना।।
ब्रह्मा बोले कौन संभाले?
भला कौन? जो बेग संभाले।।
भागीरथ ने फिर तप कीन्हा।
शिव को तप से खुश कर लीन्हा।।
बोले गंगा की धारा को –
हे शिव शंकर आप संभालो।।
प्रबल बेग गंगा की धारा।
हमसे नहीं संभाली जाई।।३।।
शिव ने बंधी जटा को खोला।
जटाजूट को फिर झकझोरा।।
सादर अपने शीश धर लिया।
घहराती गंगा की धारा।।
स्तुति किया भगीरथ बोले।
हे प्रलयंकर! हे शिव भोले।।
कुछ बुंदे छलका दो स्वामी।
मुक्त करो कुछ जल दो स्वामी।।
एक बूंद की मिली तिहाई।
तब गंगा धरती पर आई।।४।।
गोमुख से लहराती आई।
पंच प्रयाग बनाते आई।।
गंगोत्री से निकली गंगा।
फिर गंगा सागर तक आई।।
मुक्त हुए छूटा भवबंधन।
गंगा जल का पावन परसन।।
इसी बहाने हमने पाया।
गंगा मां का पावन दर्शन।।
धनु से सूर्य मकर गत होते।
हम गंगा अवगाहन करते।।५।।
पाप नाशिनी गंगा आई।।
मकर वाहिनी गंगा आई।।