कभी अमित शाह ने गरजते हुए कहा था कि नीतीश के लिए भाजपा के दरवाजे बंद है और आज वह दिन आ गया जब वह खुद ही नीतीश का थाल सजाकर स्वागत करने को आतुर हैं। आखिर ऐसा एक साल में क्या हो गया कि नीतीश भाजपा की मजबूरी बन गये, यह समझना होगा। किन शर्तों के साथ भाजपा नीतीश कुमार को अपने साथ लाएगी। क्या बिहार में एक बार फिर से बीजेपी नीतीश कुमार की ताजपोशी करने की तैयारी कर रही है? इसके पीछे की राजनीति को समझें तो दरअसल भाजपा चुनाव से पहले इंडिया गठबंधन को खत्म करना चाहती है। लोकसभा चुनाव में उख्घ् के सामने सबसे बड़ी चुनौती नीतीश कुमार ही पेश कर रहे थे। विपक्ष के बिखरे कुनबे को एक मंच पर लाने का श्रेय नीतीश कुमार को जाता है। ये नीतीश कुमार ही थे जिन्होंने सबसे पहले कांग्रेस को गठबंधन के लिए तैयार किया।
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इसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश, बंगाल, दिल्ली,महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु जैसे राज्यों का ताबड़तोड़ दौरा किया। उन्होंने ममता बनर्जी और अखिलेश यादव को कांग्रेस के साथ आने के लिए राजी किया। जुलाई 2023 में वे ही पटना में भाजपा विरोधी नेताओं को औपचारिक तौर पर एक प्लेटफॉर्म पर लाए। नीतीश कुमार देशभर की 400 लोकसभा सीटों पर भाजपा के खिलाफ वन वर्सेज वन कैंडिडेट उतारने के फॉर्मूले पर काम कर रहे थे। उनका सबसे ज्यादा फोकस बिहार की 40, यूपी की 80, झारखंड की 14, और बंगाल की 42 लोकसभा सीटों पर भाजपा को पटखनी देनी की थी।
भाजपा ये भी जानती थी कि अगर विपक्ष का ये फॉर्मूला कामयाब होता तो भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिशन 400 को बड़ा झटका लग सकता था। ऐसे में नीतीश अगर एनडीए में शामिल हो जाते हैं तो इंडिया का कुनबा लगभग पूरी तरह बिखर जाएगा। ममता बनर्जी बंगाल में, अखिलेश यादव यूपी में और आप पंजाब में पहले ही अकेले लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं। कांग्रस के अलावा नीतीश कुमार ही एक ऐसे नेता हैं, जिनकी पकड़ पूरी हिदी पट्टी में है। इतना ही नहीं, नीतीश का संबंध देश की सभी क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं से भी बेहतर हैं। नीतीश के अलावा इंडिया गठबंधन में किसी नेता की इतनी पकड़ नहीं है कि वे सभी पार्टियों के साथ समन्वय स्थापित कर सकें।
नीतीश कुमार मतलब 16% वोट की गारंटी, ये भाजपा भी जानती है। नीतीश कुमार की ताकत को भाजपा से ज्यादा बेहतर तरीके से कोई दल नहीं जानता। 2014 लोकसभा चुनाव को छोड़कर कभी भी नीतीश कुमार का वोट प्रतिशत 22% से नीचे नहीं रहा है। नीतीश को 2014 की मोदी लहर में भी 16% वोट मिले थे। नीतीश का प्रभाव केवल बिहार तक सीमित नहीं है। वे पड़ोसी राज्य झारखंड और उत्तर प्रदेश में भी असर डाल सकते हैं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा अकेले लड़ी और 16.04% वोट लाने में कामयाब रही। तब पार्टी को दो सीट मिली थीं और मोदी लहर में 36.48% वोट पाकर एनडीए 31 सीटों पर जीती था, लेकिन भाजपा को पता है कि उनको इतनी बड़ी जीत तब मिली थी, जब मुकाबला त्रिकोणीय हुआ था। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने जैसे ही भाजपा से हाथ मिलाया, भाजपा का वोट शेयर करीब 18% बढ़कर 54.34% हो गया। प्रदेश की 40 सीटों में से एनडीए को 39 सीटें मिलीं और विपक्ष से सिर्फ कांग्रेस 1 सीट ही जीत सकी थी। यही वजह है कि भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव में किसी भी हाल में नीतीश का साथ नहीं छोड़ना चाहती।
सूत्रों की मानें तो भाजपा का प्रदेश नेतृत्व किसी भी सूरत में नीतीश कुमार की अगुआई में बिहार में सरकार नहीं बनाना चाहता। उनका मानना है कि इसका सीधा असर कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यहीं पर आ रही है कि उन्हें किस तरह बिहार से बाहर निकाला जाए। भाजपा सूत्रों की मानें तो उन्हें एनडीए संयोजक का पद ऑफर दिया जा सकता है। इसके साथ ही लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें राज्यसभा और जदयू को दो केंद्रीय मंत्री के साथ एक राज्य मंत्री का पद दे सकती है। हालांकि, भाजपा के कोई नेता इस पर खुलकर बोलने के लिए राजी नहीं हो रहे हैं। वहीं, नीतीश कुमार किसी भी सूरत में मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं। इस स्थिति में भाजपा लोकसभा चुनाव तक CM बनाए रख सकती है।
इसके साथ भाजपा के दो डिप्टी CM होंगे। सूत्रों की मानें तो सुशील मोदी की एक बार फिर से बिहार सरकार में वापसी हो सकती है। इनके अलावा जदयू कोटे से 7-8 मंत्री बनाए जा सकते हैं। हालांकि, ये नए चेहरे होंगे या पुराने को ही रिपीट किया जाएगा, इस पर फिलहाल पार्टी के कोई नेता स्पष्ट बोलने से बच रहे हैं। भाजपा नेताओं की मानें तो बिहार हो रहे पूरे सियासी हलचल की बागडोर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह खुद अपने हाथ में रखे हुए हैं। पूरे अभियान को सीक्रेट रखा जा रहा है। भाजपा के किसी नेता को पब्लिक में बाइट देने से मना किया गया है। यही कारण है कि कोई भी नेता न तो नीतीश कुमार के खिलाफ कोई भी सख्त बयान दे रहे हैं और न ही गठबंधन पर कुछ भी खुलकर बोल रहे हैं।
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