आडवाणी ने राष्ट्रीयता बचायी! वर्ना विदेशी राज लौट आता!!

के. विक्रम राव

भारत रत्न मिल जाना चाहिए था आडवाणी जी को 20 वर्ष पूर्व ही (अप्रैल 1999 पर)। तब दिल्ली के तख्त पर लालचंद्र किशनचंद्र आडवाणी ने एक विदेशी को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने और तीन मूर्ति भवन पर कब्जा करने से रोका था। आडवाणी जी के साथ समाजवादी विपक्ष के पुरोधा, लोहियावादी, मुलायम सिंह यादव को भी तभी पद्म विभूषण मिलना चाहिए था। सैफई (इटावा) के इस पहलवान ने कुश्ती वाले दांव धोबी पाटा से ही सोनिया गांधी को पटखनी दी। उनके अरमान दिल में मर गए। वर्ना इतिहास लिखता कि लॉर्ड माउंटबेटन के बाद दूसरा यूरोपीय राष्ट्राध्याक्ष इटली से आया था। यह घटना अप्रैल 1999 की है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार, अटल बिहारी वाजपेई वाली, बस एक वोट से गिर गई थी। उड़ीसा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग द्वारा भुवनेश्वर से दिल्ली लाकर वोट डलवाया गया। उन्हीं का एक वोट था। राष्ट्रपति के. आर. नारायण ने अटलजी से लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया था। कारण था कि अन्नाद्रमुक नेता की जे. जयललिता ने राजग सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। बहुमत नहीं रहा।

मगर ऐसी स्थिति आई कैसे ? धोखा देने के खेल में सरकार के चेहरे पर वक्त से पहले ही मुस्कान आ गई थी। लेकिन कुछ लोगों ने नोट किया कि किसी ने लोकसभा के सेक्रेट्री जनरल एस गोपालन की तरफ़ एक चिट बढ़ाई है। गोपालन ने उस पर कुछ लिखा और उसे टाइप कराने के लिए भेज दिया। उस कागज़ में लोकसभाध्यक्ष जीएमसी बालयोगी द्वारा दी गई रूलिंग थी जिसमें काँग्रेस साँसद गिरधर गोमाँग को अपने विवेक के आधार पर वोट देने की अनुमति प्रदान की गई थी। गोमाँग फ़रवरी में ही ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे लेकिन उन्होंने अपनी लोकसभा की सदस्यता से तब तक इस्तीफ़ा नहीं दिया था।
अटलजी की सरकार गिरने के पीछे एक नारी का हाथ था। राजग सरकार को समर्थन देने के ऐवज में अन्ना द्रमुक के नेता जे. जयललिता ने संकट पैदा कर रखा था। जयललिता चाहती थीं कि उनके ख़िलाफ़ सभी मुकदमे वापस लिए जाएं। तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार को बर्ख़ास्त किया जाए। इसके अलावा वे सुब्रमण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनवाने पर भी ज़ोर दे रही थीं। वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं हुए। जयललिता चाहती थीं कि उनके ख़िलाफ़ चल रहे इन्कम टैक्स केसों में उन्हें मदद मिले।
इतना सारा नाटक होने के बाद 21 अप्रैल को सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति नारायणन से मिलकर दावा किया कि उन्हें 272 साँसदों का समर्थन प्राप्त है। लगभग उसी समय मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आगे किया।

सीपीएम 1996 के विपरीत इसके लिए तैयार भी दिखी लेकिन काँग्रेस इस बार किसी दूसरी पार्टी को नेतृत्व देने के लिए राज़ी नहीं हुई। बाद में मुलायम सिंह ने काँग्रेस का साथ देने से साफ़ इंकार कर दिया। इस फैसले में बहुत बड़ी भूमिका रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस की रही। लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई कंट्री, माई लाइफ़’ में इसका ब्योरा देते हुए लिखा है : “21 या 22 अप्रैल को देर रात मेरे पास जॉर्ज फ़र्नांडिस का फ़ोन आया। उन्होंने कहा लालजी मेरे पास आपके लिए अच्छी ख़बर है। सोनिया गाँधी अगली सरकार नहीं बना सकतीं। विपक्ष के एक बड़े नेता आपसे मिलना चाहते हैं। लेकिन ये बैठक न तो आपके घर पर हो सकती है और न ही मेरे घर पर।

आडवाणीजी ने लिखा : “तय हुआ कि ये मुलाकात जया जेटली के सुजान सिंह पार्क वाले घर में होगी। जब मैं जया जेटली के घर पहुंचा तो वहाँ मैंने मुलायम सिंह यादव और जॉर्ज फ़र्नांडिस को बैठे हुए पाया। फ़र्नांडिस ने मुझसे कहा कि मेरे दोस्त ने मुझे आश्वस्त किया है कि उनके 20 साँसद किसी भी हालत में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने के प्रयास को समर्थन नहीं देंगे। मुलायम सिंह यादव ने भी ये बात मेरे सामने दोहराई। लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि आडवाणी जी इसके लिए मेरी एक शर्त है। मेरी इस घोषणा के बाद कि हमारी पार्टी सोनिया गांधी को सरकार बनाने में मदद नहीं करेगी, आपको ये वादा करना होगा कि आप दोबारा सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करेंगे। मैं चाहता हूँ कि अब नए चुनाव करवाएं जाएं।

तब तक एनडीए के घटक दलों का भी मन बन चुका था कि फिर से सरकार बनाने के बजाए मध्यावधि चुनाव का सामना किया जाए। राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी को राष्ट्रपति भवन तलब किया और उनको सलाह दी कि वो लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश करें। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश की लेकिन इस सिफ़ारिश में साफ़ लिखा गया कि वो ऐसा राष्ट्रपति नारायणन की सलाह पर कर रहे हैं। राष्ट्रपति भवन इससे खुश नहीं नज़र आया लेकिन तब तक वाजपेयी को इस बात की फ़िक्र नहीं रह गई थी कि राष्ट्रपति इस बारे में क्या सोच रहे हैं। इस सारी उठापटक के दौरान सोनिया गांधी के मैके से सारे कुटुंब जन 10 जनपथ, नई दिल्ली आ गए थे। कहावत है कि प्याले और ओंठ के दरम्यान फासला होता है। सत्ता का प्याला छूट गया। सोनिया जहां थीं वहीं रह गईं। मगर लालकृष्ण आडवाणी ने जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह के साथ भारत पर दुबारा यूरोपीय राज नहीं आने दिया।

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