के. विक्रम राव
शिव सर्वहारा के अधिक प्रिय हैं। गांजा भांग जिसका आहार हो, भूतप्रेत जिसके संगीसाथी हों, तन ढकने के पर्याप्त परिधान भी न हो। ऐसे व्यक्ति को कौन सरमायेदार कहेगा? राजमहल की जगह श्मशान, सिंहासन के बजाय बैल, सर पर न किरीट, न आभूषण। बस भभूत और सूखी लटे-जटायें। शिव गरीब नवाज है। महात्मा गांधी भी आधी धोती पहनते थे क्योंकि साधारण जन के समीप थे, बाबा भोलेनाथ की भांति। जोड़कर देखिए लीला पुरूषोत्तम द्वारकाधीश वासुदेव श्रीकृष्ण के पीताम्बर को, मर्यादापुरूषोत्तम अवधपति दशरथनन्दन राम के रत्नजटित वस्त्रों को और प्रचण्ड, प्रगल्भ शिव के बाघाम्बर से। बस यही अदा कैलाशपति की है जो मनमोह लेती है।
शिव मेरी राय में समस्त जम्बू द्वीप के एकीकरण के महान शिल्पी है। जब भाषा, मजहब, जाति और भूगोल को कारण बनाकर भारत को सिरफिरे हिन्दू तोड़ रहे हों तो याद कीजिए कैसे सती के शरीर के हिस्सों को स्थापित कर शक्तिपीठों का गठन हुआ तथा समूचा राष्ट्र-राज्य एक सूत्र में पिरोया गया। उधर पूर्वोत्तर में गुवाहाटी की कामाख्या देवी से शुरू करे तो नैमिष में ललितादेवी और उत्तरी हिमालय तक सारा भूभाग जो प्रदेशों और भाषाओं के नाम से अलग पहचान बनाये है, एक ही भारतीय गणराज्य के भाग हैं। भले ही तमिलभाषी आज हिन्दीभाषियों को दूर का मानते रहे, रामेश्वरम का शिवलिंग इन दो सिरों को जोड़ता है। आज के राजनेता दावा करें, दंभ दिखायें, मगर सत्यता यह है कि अयोध्या के राम ने सागरतट पर शिव को स्थापित कर भारत की सीमायें निर्धारित कर दीं। एक बात की चर्चा हो जाय। रेत का शिवलिंग बनाकर राम ने उसमें प्राण प्रतिष्ठान करने हेतु उस युग के महानतम शिवभक्त, लंकापति दशानन रावण को आमंत्रित किया गया। रावण द्विजश्रेष्ठ था मगर पुत्र मेघनाथ ने पिता को मना किया कि वे शत्रु खेमें में न जायें। प्राणहानि की आशंका है। पर रावण ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय कानून और युद्ध नियमों के अनुसार निहत्थे पर वार नहीं किया जाता है। रामेश्वरम का महज धार्मिक महत्व नहीं हैं। कूटनीतिक और मनोवैज्ञानिक भी है। छ: सदियों पूर्व गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा: “जो रामेश्वर दरसु करिहहिं, ते तनु तजि मम लोक सिधारहि।” इतना बड़ा आकर्षण है कि गंगाजल को रामेश्वरम में अर्पित करे तो मोक्ष मिलेगा। अतः निर्लोभी और विरक्त हिन्दु भी दक्षिण की यात्रा करना चाहेगा।
शिव एक आदर्श गृहस्थ हैं। पार्वती ने कठिन तपस्या से उन्हें पाया और सम्पूर्ण प्यार भी हासिल किया। केवल एक पत्नीव्रती है शिव तथा उनके केवल दो पुत्र है। बड़ा नियोजित, सीमित कुटुम्ब है। अन्य उदाहरण भी हैं। यशोदानन्दन की तीन पत्नियों और राधा तथा हजारों गोपिकायें अलग से सखा थीं। अयोध्यापति ने तो धोबी के प्रलाप के आधार पर ही महारानी को निर्वासित कर दिया था। नारी को सर्वाधिक महत्व शिव ने दिया जब पार्वती को अपने बदन में ही आधी जगह दे दी। अर्धनारीश्वर कहलाये। शिव प्रकृति के, पर्यावरण के रक्षक और संवारनेवाले हैं। किसान का साथी है बैल जिसे शिव ने अपना वाहन बनाकर मान दिया। नन्दी इसका प्रतीक है। पंचभूत को शिव ने पनपाया। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, वे तत्व हैं जिनमें संतुलन बिगाड़कर आज के लोगों ने प्रदूषण, विकीर्णता और ओजोन परत की हानि कर दी है। यदि सब सच्चे शिवभक्त हो जाये तो फिर पंच तत्वों में सम्यक संतुलन आ जाये। भले ही अलगाववादी आज कश्मीर को भारत से काटने की साजिश करे, वे ऐतिहासिक तथ्य को नजरन्दाज नहीं कर सकते। शैवमत कभी हिमालयी वादियों में लोकधर्म होता था। जब शिव यात्रा पर निकले तो नन्दी को पहलगाम में, अपने अर्धचन्द्र को चन्दनवाड़ी में और सर्प को शेषनाग में छोड़ आये। अमरनाथ यात्री इन्हीं तीनों पड़ावों से गुजरते हैं। शिव कला के सृजनकर्ता हैं। ताण्डव नृत्य द्वारा नई विधा को जन्म दिया। नटराज कहलाये। डमरू बजाकर संगीत को पैदा किया। इतने कलावन्त है कि हर कुमारी शिवोपासना करती है कि शिव जैसा पति मिले। जनकनन्दिनी ने ऐसा ही किया था कि राम मिल गये।
एक चर्चा अक्सर होती है। अन्य देवताओं का जन्मोत्सव मनाया जाता है, मगर शिव का विवाहोत्सव ही पर्व क्यों हो गया? शिव दर्शाना चाहते हैं कि सृजन और निधन शाश्वत नियम हैं। उन्हें कभी भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। कृष्ण ने अगहन चुना, मगर शिव ने श्रावण मास को पसंद किया क्योंकि तब तक सारी धरा हरित हो जाती है। सिद्ध कर दिया कि जल ही जीवन है। अगर कार्ल माक्र्स ने औघड़, राख रचाये, बाघचर्मधारी, अर्धनग्न, श्मशानवासी अनासक्त वैरागी महादेव की मात्र फोटो देख ली होती तो वे कभी न लिखते कि आस्था या अकीदा आमजन का अफीम है। करोड़ों के परमाराध्य, लोकवल्लभ शिव कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी तो हैं ही, वे अवघड़दानी भी हैं। कनक महामणियों से भूषित शंकर सही मायने में समतावादी है।