रंजन कुमार सिंह
इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है, अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।
यथा..
तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक:
(शब्द कल्पद्रुम कोष)
अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह। (भाव प्रकाश)
अर्थात् : तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात पित्त कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
होलिका : किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं, जैसे चने का पटपर (पर्त) मटर का पटपर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिद्दी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती (माता निर्माता भवति ) है। यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पटपर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पटपर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना मटर) को बचा लिया। अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम होलिकोत्सव है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है।
यथा वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ।
इसका दूसरा नाम नव सम्वतसर है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है;
(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी।
इसी को क्रमश : वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है।
तो कहा गया है…
अग्निवै देवानाम मुखं अर्थात् अग्नि देवों पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा। हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं,
(1) आषाढ़ मास,
(2) कार्तिक मास (दीपावली)
(3) फाल्गुन मास (होली)
यथा
फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।
समीक्षा : सभी प्रतिवर्ष होली जलाते हैं,उसमें आखत डालते हैं । जो आखत हैं, वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं। अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। लोग जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रूपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। लोग जो गुलरियाँ बनाकर अपने अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हैं, यह प्रक्रिया छोटे छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।
ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते : अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझा जा सकता है कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।
पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है: होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है। होली उत्सव यज्ञ का प्रतीक है। स्वयं से पहले जड़ और चेतन देवों को आहुति देने का पर्व हैं। इसके वास्तविक स्वरुप को समझ कर इस सांस्कृतिक त्योहार को मनाइए। होलिका दहन रूपी यज्ञ में यज्ञ परम्परा का पालन करते हुए शुद्ध सामग्री, तिल, मूंग, जड़ी बूटी आदि का प्रयोग कीजिये।