अब नाटक खेलने की उम्र नहीं है,
अब थोड़ा सच मे जी लेने दो,
खुल कर प्रकृति मे सांस लेने दो,
जरा पंच महाभूतों को,
महसूस करने दो अपने भीतर।
पंच प्राणो का पुनर्जागरण होने दो।
मै ईश्वर को महसूस करना चाहता हूं,
अपने भीतर.. और भीतर.. और भीतर।
देखना चाहता हूं,उसका भव्य रूप…
बाहर.. और बाहर.. और बाहर।।
शायद गुरु ने लखाया था,
तब मै अनाड़ी था,
गंवार था.. अश्रद्धालु था।
अल्हड़ था बदमिजाज था।
इसलिए देख न पाया।
आज उम्र के पचहत्तरवे वर्ष,
मुझे जी लेने दौ,
इस विशाल अव्याहत प्रकृति को,
ईश्वर को,
उसके प्रति निष्ठा को।
इतने दिनो से संजोया था,
आज देखने भोगने जीने का मन है,
मेरे ईश्वर तुम कहां हो??
अंतर्मन मे सिर्फ गूंज है,
अनुगूंज..प्रति ध्वनि।।
एकांत और परम शांति।।
शब्द नि: शब्द हैं।
अनुभूति सर्व व्यापक।
अनमिल अनाक्रांत।
अहं ब्रह्मास्मि।।