कामेश
आज धर्म का राजनीतिकरण इस प्रकार हो रहा है कि लोग उन महान विभूतियों के नाम को भी अपने साथ धूमिल करने पर तुले हुए हैं जिन्होंने धर्म के लिए अपना राज्य त्याग दिया और सन्यास धारण कर लिया। उसी में एक नाम है सिद्धार्थ अर्थात भगवान बुद्ध का। सब जानते हैं कि भगवान बुद्ध अपना राजपाट सब त्याग कर संन्यास धारण कर लिए। और दोबारा लौटकर कभी भी इस सांसारिक व्यवस्था में वापस नहीं आए।
भारतीय धार्मिक परंपरा वास्तव में भारत ही नहीं बल्कि समूचे विश्व के कल्याण की धारणा और विचार से परिपूर्ण परंपरा रही है। जब भी भारतीय संस्कृति की बात आती है तो एक ही बात सामने दिखाई पड़ती है- ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ अर्थात सभी सुखी हो। परंतु जब भी धर्म को राजनीति का लाभप्रद मार्ग बनाया जाता है, तब मन व्यथित होता है। फिर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना मंतव्य है। हर कोई अपनी सोच के अनुसार ही कार्यरत होता है। किसी के अनुसार अपनी विचारधारा को प्रभावित करने या चोटिल महसूस करने की आवश्यकता नहीं है। राजनीति का अर्थ ही है राज्य करने की नीति। इसका तात्पर्य ही है कि यदि राज चलाना है तो राजा बने रहने के लिए वह कोई भी मार्ग चुनेगा। उसे सिर्फ सत्ता से मोह है। न कि किसी धर्म या संप्रदाय से।
दूसरे अर्थों में यह भी कहा जा सकता है की राजनीति और धर्म एक दूसरे से अलग है ही नहीं। शासन करने वाला सत्ता सुचारू रूप से चलाने को ही अपना धर्म मानता है। धर्म कोई अलग व्यवस्था नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के विचारयुक्त कर्तव्य का नाम है। जिस व्यक्ति को जो करने में आनंद की अनुभूति होती है, उसके लिए वही उसका धर्म है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने धर्म पर चलने लगे तो हर व्यक्ति धार्मिक ही है, किंतु जब इंसान अपना धर्म भूलकर सामाजिक और परंपरागत धर्म में लिप्त होकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयास करता है तब धार्मिकता को तार-तार करते हुए दिखाई देता है।
बौद्ध धर्म ही एक ऐसा धर्म रहा है, जो कभी भी राजनीति से प्रेरित नहीं हुआ। इसका महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि भगवान बुद्ध राज्य के मोह को त्याग कर ही संन्यास धारण किए। जिस धर्म के बीज में ही राजनीतिक त्याग की ऊर्जा छिपी हो वह भला राजनीति का फल कैसे दे सकता था। भारतीय इतिहास को देखा जाए तो जब भी कोई सत्ता से विमुख हुआ तो वह बौद्ध धर्म का अनुयाई बन गया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सम्राट अशोक हैं। अशोक का जब अंतःकरण परिवर्तित हुआ तो उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। उन्होंने आजीवन हिंसा न करने की विचारधारा का अनुपालन किया। दूसरे रूप में यह भी कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म का बीजारोपण ही राजसत्ता से विमुख होने के कारण हुआ है।
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लेकिन आज के राजनीतिक विचारधारा के कुछ लोगों को जब बौद्ध धर्म के नाम पर राजनीति करते और सत्ता की रोटियां सकते देखता हूं तो मन व्यथित होता है। कम से कम जिसके नाम पर राजनीति करना चाहते हो उसे एक बार पढ़ तो लेना चाहिए। जिस बुद्ध के जीवनचरित को पढ़ने पर अंतःकरण में संन्यास का भाव उठना चाहिए। उसी के नाम पर राजनीतिक सत्ता और पद पाने की प्रेरणा भला कैसे मिल सकती है। इसका तो अर्थ है कि हमने बुद्ध का नाम मात्र सुना है। बुद्ध को न पढ़ा है और न ही जाना है। बुद्ध न तो कोई राजनीतिक दार्शनिक हैं। न ही कोई विचारक। बुद्ध तो प्रकृति का वह उपवन है, जिसके समीप पहुंचने वाले हर व्यक्ति का अंतःकरण शांति और आनंद में सराबोर हो जाता है। बुद्ध तो भवसागर का वह किनारा है जिसके तट पर बैठकर इंसान संसार के समस्त झंझावात से छुटकारा पा जाए।
जब भी कभी या कहीं धर्म और दर्शन की बात चलती है तो हमारे मन-मस्तिष्क में बौद्ध धर्म और बौद्ध दर्शन अपना अग्रणी स्थान रखता है। बुद्ध किसी परिपाटी के पथिक नहीं बल्कि प्रारंभ है। बुद्ध किसी परंपरा के सेवक नहीं अपितु प्रतिपादक है। बुद्ध मौलिक हैं। बुद्ध न तो कल्पनाओं के आकाश में विचरण करने वाले हैं। न ही यथार्थ की धरती पर जड़ है। बुद्ध वास्तव में आकाश में विचरण करने वाले वह प्रतिमान है, जिसके कदम यथार्थ के धरातल में गहरी उतरी हुई हैं। बुद्ध न तो आस्तिक हैं और न ही नास्तिक। बुद्ध कभी भी आस्तिक बनकर किसी की प्रशंसा नहीं करते और न ही नास्तिक बनकर किसी की निंदा करते हैं। बुद्ध इन दोनों स्थितियों से निकले हुए एक देदीप्यमान वह प्रकाश हैं, जिसकी रश्मियों से वाह्य जगत प्रकाशित होता है और अंतर्जगत का अंधेरा मिट जाता है।
यदि कहा जाए की अनेक अनेक ऋषि मुनियों में या दार्शनिकों में तुलनात्मक अध्ययन करने हैं तो वास्तव में बुद्ध अपनी स्थिति में कहीं न कहीं सभी के मध्य चमकते सितारे होंगे। जैसे आकाश में अनगिनत तारों के मध्य एक ध्रुव तारा चमक रहा हो। ऐसा हमने इसलिए कहा क्योंकि बुद्ध के अलावा और जो भी महापुरुष या दार्शनिक हुए हैं उन सबको देखना और अध्ययन करने से पता चलता है यह मात्र एक पथिक है। बुद्ध पथिक नहीं, अपितु एक पाठ हैं। एक मार्ग हैं। एक ऐसा मार्ग जो आज से प्रारंभ होता है और अनंत की मंजिल तय करता है। इसका कहने का कारण मेरा यह है कि जैसे महावीर, कृष्ण, राम, ईसा मसीह, मोहम्मद साहब या कोई भी हो इन सब के पीछे एक लम्बी कतार दिखाई देती है।
महावीर ने जो कहा वह कुछ नया नहीं था। उनसे पहले उनके 23 और तीर्थंकरों ने वही कहा था। महावीर ने उसे आगे बढ़ाया। वह किसी भवन की नींव नहीं है, बल्कि चमकता हुआ कलश हैं। कृष्ण ने जो कहा उनसे पहले अनेक ऋषि, मुनि, वेद, शास्त्र, पुराण कह चुके थे। उसमें भी कुछ नया नहीं था। एक परम्परा को आगे बढ़ाने और मार्ग बस थोड़ा बहुत साफ और सरल किया है। कृष्ण किसी मार्ग के प्रारंभ नहीं है। बस मार्ग पर पड़ने वाला एक तीर्थ हैं, जहां हम ठहर सकते हैं। आराम कर सकते हैं। लेकिन हमें आगे बढ़ जाना होगा। ईसा और मोहम्मद भी इसी तरह एक परंपरागत से विघटित हुए हैं। टूटे हुए यह किसी मार्ग की शुरुआत नहीं बल्कि मार्ग से निकली हुई शाखा मात्र है। जो पीछे यहूदियों ने कहा उसी का नया रूपांतरण है। मगर बुद्ध खुद किसी भी परम्परा का योग या खंडन नहीं है, बल्कि एक नई धारणा नए विचार और नई विधि का प्रारंभ है।
बुद्ध को यदि एक वैज्ञानिक भी कहा जाए तो भी कहीं न कहीं ठीक ही होगा। बुद्ध ने मानव को कभी बदलने की प्रेरणा नहीं दिया। बस उन्होंने जो जैसे है उसी रूप में अपने भीतर किस तरह प्रवेश कर सके, उसका प्रयोग करते हैं। इसीलिए बुद्ध का एक वाक्य अत्यंत प्रकाश में आता है (अप्प दीपो भव)। बुद्ध कहते हैं तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम खुद में प्रवेश करो। खुद में खोजो। अपने प्रकाश खुद बनो। तुम किसी की न सुनो। न मानो। तुम मेरी भी मत मानो। बस तुम खुद को मान लो। अपने भीतर प्रवेश करो। तुम्हें सब पता चल जाएगा। बुद्ध सिद्धांतवादी नहीं है बल्कि व्यक्तिवादी हैं। उनका मानना है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण है सिद्धांत नहीं। सिद्धांत सभी पर लागू नहीं किया जा सकता। व्यक्ति की अपनी मौलिकता होती है। अतः व्यक्ति पहले है सिद्धांत बाद में।
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बुद्ध के अनुसार व्यक्ति को अपने सिद्धांत बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती। अन्य जो भी दार्शनिक या धर्मगुरु हुए सबने सिद्धांत को अधिक महत्व दिया और व्यक्ति को बदलने की बात की है। सभी यह सीखते हैं कि व्यक्ति को इस तरह रहना चाहिए, उसी तरह से करना चाहिए। बुद्ध कहते हैं तुम्हें बदलने की आवश्यकता नहीं। तुम जो हो, वहीं रहो। बस तुम क्यों हो, खुद को जान लो। होशपूर्ण हो जाओ। तुम भीतर कुछ और बाहर कुछ मत रहो। जो हो पूर्ण रहो। तुम्हें सिद्धांत पर चलने की आवश्यकता नहीं। खुद में ठहरने की आवश्यकता है।