
तब तक देश पर आपातकाल थोपे एक साल गुजर चुका था। अर्थात् यह 48 वर्ष पूर्व की बात है। हम लोग तिहाड़ जेल में बहस करते थे कि यदि इन्दिरा गांधी प्रधान मंत्री पद छोड़ देंती। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय मान कर रायबरेली से अपने रद्द किये गये लोकसभा के चुनाव पर सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर, प्रतीक्षा करतीं। किसी माकूल कांग्रेसी को प्रधान मंत्री बना देतीं जो वक्त पर उनके खातिर हट जाता। अपनी जनपक्षधर छवि को तब गहरा बना देतीं।
इससे उनके दोस्त दंग और दुश्मन तंग हो जाते। फलस्वरूप नेहरू गांधी परिवार का सत्तावाला सिलसिला अटूट बना रहता और फिर चैदह वर्षौं तक परिवार सत्ता से कटा-कटा नहीं रहता। इस कीर्तिमान को विश्व का कोई भी राजवंश तोड़ न पाता। हालांकि अब यह प्रश्न महज अकादमिक रह गया है। फिर भी इतिहास वेत्ताओं को पड़ताल करनी चाहिये। इस अगर-मगर के सवाल का उत्तर खोजना चाहिए, ताकि भविष्य में सावधानी बरती जा सके।
लेकिन इन प्रश्नों पर मेरी सुनिश्चित राय वैसी ही है जैसी 26 जून, 1975 के दिन थी।
इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री पद कभी भी नहीं छोड़तीं। उनके पैतृक संस्कार, उनकी निजी सोंच, राजनीतिक प्रशिक्षण और कौटुम्बिक कार्यशैली, इन्दिरा गांधी को इस लोकतांत्रिक चिन्तन तथा व्यवहार को अंगीकार करने के लिए कतई कायल न बनातीं।
भारतीय संविधान बनाने वाले महारथियों ने ही वे प्रावधान रचे थे जिनके तहत राष्ट्रपति बस एक हस्ताक्षर से सारी राजसत्ता को समेट कर महात्वाकांक्षी और अधिनायकवादी प्रधानमंत्री को उपहार में दे सकता था। यही हुआ भी। कमजोर फखरुद्दीन अली अहमद ने आधी रात को तन्दिुल मुद्रा में इन्दिरा गांधी के प्रस्ताव को पलक झपकते अनुमोदित कर दिया। बाद में काबीना के गुलदस्तों ने उसे क्लीव स्वीकृति दे दी।
इसीलिए तारीफ़ करनी चाहिए मोरारजी देसाई वाली जनता पार्टी सरकार की। उसने प्राथमिकता के तौर पर इन्दिरा गांधी शासनवाला बयालीसवां संविधान संधोधन (मूलाधिकार खत्म करने वाला) रद्द कर दिया। चैवालीसवें संशोधन (9 मई, 1978) द्वारा आपातकाल थोपने की शर्तों को इतना कठिन बना दिया कि इन्दिरा गांधी फखरुद्दीन अली अहमद वाली हरकत दुबारा कोई तानाशाह कर न सके।
संविधान को मरोड़ना एडोल्फ हिटलर ने भी किया था। बाइमर संविधान को जर्मन राइच (संसद) में ‘‘ऐनेबलिंग एक्ट’’ (अधिकार प्रदान करनेवाले अधिनियम) को पारित कराकर नाजी पार्टी का शासन थोप दिया था। तब जर्मन और हिटलर पर्याय बन गये थे। वही बात जो सत्तासीन कांग्रेसी पार्टी के असमिया अध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने कही थी, ‘‘इन्दिरा ईज़ इण्डिया।’’
एक और मुद्दा हम लोगों की चर्चा में उभरता था। यदि 1975 वाली स्थिति जवाहरलाल नेहरू के समक्ष आ जाती तो वे कैसे निबटते ?
कुछ बन्दीजन, जो अटल बिहारी बाजपेयी के प्रभाव में रहते थे, की राय थी कि नेहरू उदार थे अतः पद छोड़ देते।
मेरा पूर्ण विश्वास था कि नेहरू 1975 वाली परिस्थिति में इन्दिरा गांधी से बेहतर करते। वे अपना एकाधिकार ही नहीं सम्राटनुमा शासन देश पर लाद देते। आजादी के पूर्व ‘‘माडर्न रिव्यू’’ में नेहरू ने छद्म नाम से लेख लिखा था, कि सत्ता पाकर क्या नेहरू तानाशाह बन जायेंगे ?
यह एक शगूफा तब नेहरू ने छोड़ा था कि कांग्रेसी उनके बारे में कैसी आशंकायें रखते हैं।
संविधान बनने के बाद लखनऊ के काफी हाउस में एक ने राममनोहर लोहिया से पूछा था कि ‘‘कौन अधिक शक्तिशाली है ? राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री ?’’
लोहिया का उत्तर था; ‘‘निर्भर करता है कि जवाहारलाल नेहरू किस पद पर आसीन रहते हैं।’’
इतिहास गवाह है कि अधिकार और सत्ता पाने के लिए नेहरू ने क्या नहीं किया। कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू के बाद गांधीजी की अस्वीकृति पर लाहौर अधिवेशन (1930) में जवाहर लाल खुद अध्यक्ष बन गये। त्रिपुरी अधिवेशन में निर्वाचित अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस को दरकिनार कर अपना वर्चस्व लौटा लिया। अपार पार्टी समर्थन के बावजूद सरदार बल्लभभाई पटेल को महात्मा गांधी के समर्थन से काटकर नेहरू खुद कांगे्रस अध्यक्ष और फिर प्रधान मंत्री बन बैठे। जब बेटी को चुनौती की आशंका बढ़ी तो कामराज योजना रचकर (1964) सारे प्रतिद्व़न्द्वियों को पदच्युत करा दिया। ठीक वही काम जो इन्दिरा गांधी ने 1984 में अपीन हत्या के चन्द महीनों पूर्व किया था।
जब नारायणदत्त तिवारी तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री तथा पार्टी प्रमुख नामित किया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को कोई अन्य चुनौती देनेवाला न रहे। प्रणव मुखर्जी राज्यसभा में ही आते रहे। कभी भी प्रत्यक्ष मतदान में नहीं जीते थें। वे कैसे प्रतिस्पर्धी बनते।
ऐसी ही नेहरू-इन्दिरा स्टाइल में पण्डित अटल बिहारी बाजपेयी ने भी जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी मे ंकिया। जिस किसी से चुनौती की आशंका थी वाजेपयी जी ने उन्हें बनवास दिलवा दिया, जैसे पण्डित मौलीचन्दु शर्मा, प्रोफेसर बलराज मद्योक, डा. सुब्रमण्यम स्वामी और लालचन्द्र किशिनचन्द आडवाणी। भाजपा ने भी वहीं किया जो कांग्रेस ने किया था। जिस नेता को प्रधान मंत्री बनना चाहिए था उसे उपप्रधान मंत्री के पायदान पर ढकेल दिया।
आपातकाल के दौरान तथा गिरफ्तारी के पूर्व हमारे साथी इस विचार मंथन से भी गुजर चुके थे कि तानाशाह का वध कर दिया जाय। धार्मिक पुस्तकों में इसकी अनुमति है। प्रधानमंत्री पुष्यमित्र शंुग ने जालिम सम्राट को मारकर जनवादी काम किया था। मगर इस मुद्दे पर मेरा तर्क साथियों ने विवेकपूर्ण ढंग से स्वीकार किया। तानाशाह के तिरोभूत होने मांत्र से लोकशाही नहीं लौट आती है। इन्दिरा गांधी जाती तो संजय गांधी बाट सोहता रहता। व्यवस्था तो वही रहती।