ओशो की यह वाणी पढ़कर आँखें हो जाएँगी नमः स्त्री इतनी कामुक कभी भी नहीं है, जितने पुरुष कामुक हैं

  • स्त्री की कामवासना को अगर न जगाया जाए तो स्त्री कभी आतुर नहीं होती।
  • स्त्री को दी गईं गालियां, अपमान, अशोभन शब्द अब तक सदव्यवहार क्यों?

आचार्य रजनीशओशो

अगर स्त्रियों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना दुर्व्यवहार है, तो मैं ज़रूर दुर्व्यवहार करता हूं। अब तक साधुसंत स्त्रियों के साथ घृणा का व्यवहार करते रहे हैं, इसलिए वही सदव्यवहार हमें मालूम होने लगा है। साधुसंतों ने आज तक स्त्री को मनुष्य होने की हैसियत नहीं दी है। साधुसंतों ने उसे नरक का द्वार समझा है, साधुसंतों ने उसे कीड़ेमकोड़ों से बदतर बताया है। साधुसंतों ने उसे सांपबिच्छुओं से खतरनाक समझाया है। साधुसंतों का अगर वह पैर भी छू ले, तो साधुसंत अपवित्र हो जाते हैं और उन्हें उपवास करके पश्चात्ताप करना पड़ता है। और ये साधुसंत स्त्री से ही पैदा होते हैं। इनकी सारी देह स्त्री से ही निर्मित होती है। इनका खून स्त्री का, इनकी हड्डी स्त्री की, इनके जीवन की सारी ऊर्जा स्त्री से आती है और वही स्त्री नरक का द्वार हो जाती है! मनुष्यजाति जब तक स्त्रियों के साथ ऐसा असम्मानपूर्ण और ऐसा मूढ़तापूर्ण व्यवहार करेगी, तब तक मनुष्य जाति के जीवन में कोई ऊर्ध्वगमन नहीं हो सकता है।

स्त्री के साथ दुर्व्यवहार अब तक रहा है और उस दुर्व्यवहार का कारण? उस दुर्व्यवहार का कारण स्त्री की कोई खराबी नहीं है। क्योंकि जिन बातों के कारण स्त्री को आप दोष देते हैं, आप उन बातों में स्त्री के सहयोगी नहीं हैं? यह बड़े मजे की बात है! पुरुष नरक का द्वार नहीं है? स्त्री अकेली दुनिया में कामवासना ले आती है, पुरुष नहीं? सच्चाई उलटी है। स्त्री इतनी कामुक कभी भी नहीं है, जितने पुरुष कामुक हैं। और स्त्री की कामवासना को अगर न जगाया जाए, तो स्त्री कामवासना के लिए बहुत आतुर भी नहीं होती। और सारी स्त्रियां जानती हैं कि कामवासना में कौन उन्हें रोज घसीटता है, उनका पति या वे स्वयं! कौन उन्हें घसीटता है?

पुरुष चौबीस घंटे सेक्सुअल है। प्रतिदिन सेक्सुअल है, लेकिन दोष है स्त्री का। वह उन्हें नरक ले जाती है। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि स्त्री तो पुरुष पर कोई बलात्कार नहीं कर सकती है, स्त्री तो पैसिव है, स्त्री तो निष्क्रिय है, वह कोई हमला तो कर नहीं सकती पुरुष पर, पुरुष हमला कर सकता है। जो निष्क्रिय है उसको नरक का द्वार कहता है और जो सक्रिय है वासना में, अपने को शायद स्वर्ग का द्वार समझता होगा। स्त्री को दी गईं ये गालियां, ये अपमान, ये अशोभन शब्द अब तक सदव्यवहार समझे गए हैं। और स्त्रियां इतनी मूढ़ हैं कि पुरुष की इन मूर्खतापूर्ण बातों में सहयोगी रहीं और उन्होंने साथ दिया है। उन्होंने कोई इनकार नहीं किया, उन्होंने कोई बगावत नहीं की, उन्होंने कोई विद्रोह नहीं किया। उन्होंने नहीं कहा कि यह तुम क्या कह रहे हो। उसे सह लिया उन्होंने चुपचाप। उसको उन्होंने मान लिया है चुपचाप। क्योंकि उनका न कोई अपना गुरु है, न उनका अपना कोई शास्त्र है, न उनका अपना कोई धर्म है। वे सब पुरुषों के निर्मित हैं, वे पुरुषों के पक्ष में लिखे गए हैं। वे पुरुषों ने लिखे हैं, अपने पक्ष में लिखे हैं।

पुरुषों ने अपने ग्रंथों में लिख लिया है कि अगर पति मर जाए तो स्त्री को सती होना चाहिए, लेकिन किसी पति को भी कभी सती होना चाहिए, यह बात उन्होंने नहीं लिखी। स्वभावतः वर्गीय दृष्टिकोण है, वह पुरुष का अपना दृष्टिकोण है। वैसा उसने लिख लिया है। साधु और संन्यासी स्त्री के प्रति क्यों इतना दुर्व्यवहारपूर्ण रहा है? उसका एकमात्र मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि साधु और संन्यासी को, भीतर उसकी कामना की स्त्री बहुत पीड़ित और परेशान करती है। उसके भीतर स्त्री घूमती है। वह बेचारा परमात्मा को बुलाना चाहता है। जब भी परमात्मा को बुलाता है तभी पत्नी आ जाती है। वह जब भी रामरामरामराम जपता है तभी भीतर कामकाम, कामवासनाकामवासना चलती है। वह घबड़ाया हुआ है भीतर की स्त्री से। वह उस भीतर की स्त्री से परेशान है, उसके बदले में वह स्त्री को गाली देता है, उसके बदले में बाहर की स्त्री से भयभीत होता है कि बाहर की स्त्री ने अगर हाथ छू दिया, तो मरे, जान निकल गई, क्योंकि भीतर जो स्त्री बैठी है वह जग जाएगी, वह खड़ी हो जाएगी। बाहर की स्त्री के हाथ में ऐसा क्या है जिसे छू देने से किसी संन्यासी में कुछ अपवित्र हो जाएगा? और संन्यासी के शरीर में ऐसा कुछ क्या है जो स्त्री के शरीर से ज्यादा पवित्र है और छूने से अपवित्र हो सकता है? शरीर में क्या है? इतना भय क्या है? इतना भय स्त्री का भय नहीं, अपने भीतर छिपी हुई सेक्सुअलिटी का, कामवासना का भय है।

साधु और संन्यासी को, भीतर उसकी कामना की स्त्री बहुत पीड़ित और परेशान करती है। उसके भीतर स्त्री घूमती है। वह बेचारा परमात्मा को बुलाना चाहता है। जब भी परमात्मा को बुलाता है तभी पत्नी आ जाती है। वह जब भी राम-राम-राम-राम जपता है तभी भीतर काम-काम, कामवासना-कामवासना चलती है।

इसलिए संन्यासी भागता रहा है, घबड़ाता रहा है, दूरदूर भागता रहा है। स्त्री छू ले तो पाप, स्त्री छू ले तो अपवित्रता। और इसको बाकी पुरुष बहुत आदर देते रहे हैं क्योंकि बाकी पुरुषों का मन स्त्री को छूने के लिए लालायित है। वे देखते हैं कि एक आदमी स्त्री को नहीं छूता है, दूरदूर भागता है, वे कहते हैं : है महापुरुष, है तपस्वी, क्योंकि हमारा तो मन नहीं मानता बिना छुए हुए। हमारा मन होता है कि छुएंछुएंछुएं। किसी तरह रोकते हैं, संस्कार, शिष्टाचार, सब तरह से अपने को सम्हालते हैं, लेकिन मौका मिल जाए, भीड़ मिल जाए, मंदिर हो, मस्जिद हो, गिरजा हो, तो थोड़ाबहुत धक्का दे ही देते हैं, वह दूसरी बात है। लेकिन सामने शिष्टाचार रखते हैं, दूरदूर बच कर चलते हैं। इतना बच कर चलना सबूत किस बात का है? इतना बच कर चलना छूने की इच्छा का सबूत है और किसी बात का सबूत नहीं है। इतनी घबड़ाहट सबूत किस बात का है? तो बाकी पुरुष देखता है कि यह है संन्यासी, यह महाराज। ये स्त्री को छूने नहीं देते, दूर से ही चिल्लाते हैं, दूरदूर, दूरदूर, दस कदम दूर रहना। अभी मैंने सुना कि एक महाराज को यहां मुम्बई में किसी स्त्री ने छू दिया, तो उन्होंने तीन दिन का उपवास किया। और उससे उनकी इज्जत बहुत बढ़ी। क्योंकि कामवासना से भरे हुए समाज में ऐसे ही लोगों की इज्जत हो सकती है। कामवासना से भरे हुए समाज में ऐसे ही लोगों की इज्जत हो सकती है। क्योंकि हम कामवासना से भरे हैं, हमें लगता है कितना महान त्याग किया कि एक स्त्री ने छुआ और उन्होंने इनकार कर दिया कि नहीं छूने देंगे। यह हमारी सेक्सुअल मेंटेलिटी का सबूत है। और इसको अगर सदव्यवहार समझते हैं, तो मैं स्त्रियों के साथ ऐसा सदव्यवहार करने से इनकार करता हूं।

लेकिन बड़े मजे की बात है, बड़ी आश्चर्य की कि एक बहन ने पूछा है, किसी पुरुष ने पूछा होता तो मेरी समझ में आ सकता था। यह बहन बड़ी मर्दानी होगी। इसकी बुद्धि पुरुषों से निर्मित होगी। वह कैंप में जो बहन मेरे आकर हृदय से लग गई, उस क्षण में उसकी प्रार्थना, उसका प्रेम, उसका आनंद, उसकी पवित्रता अदभुत थी, अन्यथा हजार लोगों के सामने वह मेरे हृदय से आकर जुड़ जाने की हिम्मत भी नहीं कर सकती थी। उसका पति बगल में खड़ा था, वह घबड़ाता रहा। अभी उनके पति मुझे मिले और कहने लगे, मैंने इससे पूछा कि पागल तूने यह क्या किया? उसने कहा कि मुझे तो पता ही नहीं था। यह तो जब मैं अलग हट गई तब मुझे खयाल आया कि लोग क्या सोचेंगे, लेकिन उस क्षण में मुझे सोचविचार भी न था। उस क्षण मुझे लगा कि कोई दूर की पुकार मुझे खींच रही है और मैं पास चली गई। उसी स्त्री को मैं धक्का दे दूं इस खयाल से कि कोई अखबार का रिपोर्टर फोटो नहीं उतार ले। उसे कह दूं कि नहीं दूर। उसे दूर कह कर मैं सिर्फ इतना सिद्ध करूंगा कि मेरे भीतर भी वासना उद्दाम वेग से खड़ी है, अन्यथा भय क्या है? अन्यथा डर क्या है? अन्यथा चिंता क्या है? वह स्त्री कहीं कोई एकांत अंधेरे कोने में मुझसे गले आकर नहीं मिली थी। हजार लोग चारों तरफ खड़े थे, वहां फोटो उतारी जा रही थी।

मुझमें भी थोड़ी बुद्धि तो है। लेकिन इस निर्बुद्धि समाज के सामने ऐसा लगता है कि चाहे कुछ भी सहना पड़े, जो ठीक है, जो सही हैचाहे अनादर सहना पड़े, चाहे अपमान सहना पड़े, जो ठीक है, सही है वही करना है, वही किए चले जाना है। मुझे नहीं लगता कि कोई पुरुष मेरे पास प्रेम से आकर जब गले मिलता है तो उसे मैं नहीं रोकता, तो एक स्त्री को मैं कैसे रोक सकता हूं। जब कोई पुरुष को मैं नहीं रोकता तो स्त्री को कैसे रोक सकता हूं। और स्त्री और पुरुष के बीच इतना फासला करने की जरूरत क्या है? प्रयोजन क्या है? क्या हमें शरीर के

अतिरिक्त कभी कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता? वह जिस फोटोग्राफर ने चित्र उतारा होगा और जिस संपादक ने छापा होगा, वह फोटो मेरे और उस स्त्री के बाबत कम, उस फोटोग्राफर और संपादक के संबंध में ज्यादा बताते हैं। उसकी बुद्धि वहीं अटक रही, उस घंटे भर के ध्यान के बाद उसे यही दिखाई पड़ा, इतना ही दिखाई पड़ा! उन बहन ने यह भी पूछा है कि गांधीजी तो ऐसा दुर्व्यवहार कभी स्त्रियों के साथ नहीं करते थे। तो शायद बहन को गांधीजी का कुछ पता नहीं। गांधीजी इस दुर्व्यवहार को शुरू करने वाले महापुरुष हैं। हिंदुस्तान में गांधी ने पहली बार स्त्री को सम्मान दिया है। हिंदुस्तान के महापुरुषों में स्त्री को सम्मान देने वाले गांधी के मुकाबले सिवाय महावीर को और कृष्ण को छोड़ कर और कोई भी नहीं है। बुद्ध भी नहीं। बुद्ध तक भयभीत हो गए इस बात से जब स्त्रियों ने आकर कहा कि हमें भिक्षुणी बना लो, तो बुद्ध ने कहा कि नहींनहीं, यह नहीं हो सकता।

साधु और संन्यासी स्त्री के प्रति क्यों इतना दुर्व्यवहारपूर्ण रहा है?

बुद्ध भयभीत हो गए इस बात से कि स्त्रियां अगर भिक्षुणी बनेंगी भिक्षुओं के साथ रहेंगी, तो खतरा है। महावीर ने जरूर कोई चिंता नहीं की, बात ही नहीं की, स्त्रियों को भिक्षुणी बनाया। और हैरान होंगे जान कर आप कि महावीर के भिक्षु थे केवल बारह हजार और भिक्षुणियां थीं चालीस हजार। न मालूम कितने लोगों ने महावीर पर एतराज किया होगा कि चालीस हजार स्त्रियों से घिरा हुआ है यह आदमी। जरूर एतराज किया होगा, क्योंकि आदमी सदा आप ही जैसे हमेशा से थे। आपसे बदतर। क्राइस्ट पर लोगों ने शक किया कि मैरी मैग्दलिन नाम की वेश्या इसके चरणों में आकर चरण छूती है। लोगों ने कहा कि नहीं इस स्त्री को चरण मत छूने दो। क्राइस्ट ने कहा, लेकिन स्त्री का पाप क्या है कि चरण न छुए? लोगों ने कहा, स्त्री थी तो भी ठीक, यह वेश्या है। क्राइस्ट ने कहा, वेश्या मेरे पास नहीं आएगी तो कहां जाएगी? और अगर मैं वेश्या को इनकार कर दूंगा, तो फिर वेश्या के लिए उपाय क्या है? मार्ग क्या है?

विवेकानंद हिंदुस्तान लौटे, निवेदिता साथ आ गई, और बस हिंदुस्तान का दिमाग फिर गया। और सारे बंगाल में बदनामी फैल गई कि यह स्वामी और संन्यासी और यह निवेदिता कैसे साथ? निवेदिता की पवित्रता को, निवेदिता के प्रेम को किसी ने भी नहीं देखा! आज जो सारी दुनिया में विवेकानंद का काम फैला हुआ दिखाई पड़ता है, उसमें विवेकानंद का हाथ कम निवेदिता का हाथ ज्यादा है।

निवेदिता भी दंग रह गई होगी। कैसे ओछे लोग थे! कैसी छोटी बुद्धि थी! इतना ही उन्हें दिखाई पड़ा! विवेकानंद को इतना ही समझ पाए वे सिर्फ! गांधी ने तो बहुत हिम्मत की। स्त्रियों को गांधी हिंदुस्तान के घरों से पहली दफे बाहर लाए। स्त्रियों को पुरुषों के साथ खड़ा किया। आपको शायद पता नहीं होगा, वह मेरी ही फोटो छप गई, ऐसा नहीं, मैंने सुना है कि गांधी की एक फोटो यूरोप और अमेरिका में खूब प्रचारित की गई थी। एक फोटो तो उनकी वह प्रचारित की गई, जिसमें वे अपने ही घर की बच्चियों की, जो उनकी नातनीपोतनियां होंगी, उनके कंधों पर हाथ रखे हुए दिखाए गए हैं। वह फोटो प्रचारित की गई कि यह गांधी बुढ़ापे में भी छोकरियों के साथ रासरंग करता है।

शायद उन बहन को पता नहीं होगा कि वह फोटो जिसमें वे लड़कियों के कंघे पर हाथ रख कर घूमने जाते हैं या प्रार्थना में जाते हैं। तो यह बताया गया है कि यह बुड्ढा हो गया, अभी लेकिन इसका लड़कियों में रस है, लड़कियों के कंधों पर हाथ रख कर चलता है। और पूछने वाला पूछ सकता है कि लड़कियों के कंधे पर क्यों लड़कों के कंधों पर क्यों नहीं? बिलकुल ठीक!लेकिन उसे पता नहीं कि गांधी को लड़के और लड़कियों में कोई भी फर्क नहीं भी हो सकता है। यह मत सोचना कि वह फोटो मेरा ही छाप दिया, वह फोटो हमेशा से छापने वाले लोग रहे हैं और रहेंगे। अपनी बुद्धि के अनुकूल ही वे कुछ कर सकते हैं, उससे ज्यादा करने का उपाय भी तो नहीं है। उन पर नाराज होने का कोई कारण भी तो नहीं है।

गांधी अपनी अंतिम उम्र में, बुढ़ापे में, एक बीस वर्ष की नग्न युवती को लेकर छह महीने तक बिस्तर पर सोते रहे। तब उनको पता चलेगा। इतना दुर्व्यवहार अभी मैंने किसी तरह से नहीं किया है। छह महीने तक एक नग्नयुवती के साथ गांधी बिस्तर पर सोते रहे। किसलिए? इस बात की जांच के लिए कि क्या मन के किसी कोनेकातर में, मन के किसी भी अंधकारपूर्ण कोने में स्त्री की कोई वासना तो शेष नहीं रह गई? जो रात में नग्न स्त्री को अकेले में, एकांत में पाकर, बिस्तर पर साथ पाकर जाग आए, तो मैं परीक्षा कर लूं उससे, उससे मुक्त होने का कोई उपाय कर लूं। और उस स्त्री की पवित्रता की कल्पना करते हैं जो छह महीने तक गांधी के साथ नग्न सो सकी। और उसने पीछे कहा कि गांधी के साथ सो कर मुझे छह महीने में ऐसा लगा, गांधी जैसे मेरी मां हैं। जल्दी नतीजे लेना ठीक नहीं है। जिंदगी बहुत गहरी है और बहुत समझने को है। जहां हम खड़े हैं जिंदगी वहीं नहीं है, जिंदगी और आगे है। हम मिट्टी के दीये हैं, जिंदगी की ज्योति मिट्टी के दीये से बहुत ऊपर जाती है। जिनको ऊपर की ज्योति नहीं दिखाई पड़ती उन्हें सिर्फ मिट्टी के दीये दिखाई पड़ते हैं..

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