ईश्वर, समय, औक़ात सबकी कुछ न कुछ कीमत, क्योंकि… कीमत हमारी सोच है

  • भगवान को अगर धन, आभूषण पसंद होता तो वो ख़ुद न बना लेते, उनसे बड़ा कलाकार कौन?
  • मानव से बड़ा मूर्ख कौनः उसने जो खूबसूरती हमें दी है, इसकी शोभा हम पदार्थ से बढ़ाना चाहते हैं

अपनी सुंदरता को हम पदार्थ की चमक के आगे फीका समझते हैं और अपने शरीर की कीमत हम पदार्थ से कर बैठते हैं। हम जितना पदार्थ इकट्ठा कर लेते हैं, अपने आप को उतना ही धनवान और होशियार समझते हैं। हम अपना बड़प्पन प्रकृति की संरचना से नहीं अपनी सोच के अनुसार निर्धारित करते हैं। अपने को भौतिक बाजार में बेचकर गर्व महसूस करते हैं। मनुष्य की यही सोच आज उसे ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया कि वह हर चीज की कीमत लगाने लगा। उसे यह नहीं पता कि प्रकृति के किसी भी पदार्थ का मोल भाव करने का उसका कोई अधिकार नहीं है।

कवि कामेश

कहा जाता है कि “जो समय की कीमत नहीं समझते, समय उनका साथ नहीं देता।” कितनी अजीब बात है, कीमत हर चीज की लगाई जाती है। व्यक्ति की, पदार्थ की यहां तक की समय की कीमत लगाई जाती है। बेशक कुछ चीज बिकाऊ नहीं होती। मगर हम अपनी आदत से बाज नहीं आते। आज का परिवेश, माहौल और परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गई हैं, जहां कीमत न हो तो कोई पूछने वाला ही नहीं। एक पदार्थ की महत्ता उसकी बाजारू कीमत से ही मानी जाती है। जैसे सोना को ही ले लें तो आज का पूरा मुद्रा बाजार सोने की कीमत पर टिका हुआ है। सोने का भाव गिरा तो मुद्रा की कीमत गिरी। सोने का भाव उठा तो मुद्रा की कीमत बढ़ी। जबकि सोना कुछ और नहीं बस हमारे मानव समाज का एक वहम है। हम कह सकते हैं कि हमारी रूग्ण मानसिकता का परिणाम है। हम अपने मनोमस्तिष्क में एक ऐसे पदार्थ को कीमती मान बैठे हैं जो प्रकृति की आगोश में जमीन के नीचे सदियों से पड़ा हुआ है। हम उसे निकाल कर बाजार में बेच दिए उसके कुछ ऐसे सामान तैयार कर लिए जो हमारे शरीर की सजावट के काम आने वाला हो गया। बस इसी से बढ़ गई कीमत।

दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो हम सोने की नहीं बल्कि अपने शरीर की सुंदरता की कीमत लगाते हैं। हम सोने नाम के एक पदार्थ पर ईश्वर की बनाई यह कलाकृति जो कि हमारा शरीर है, इसे बेच देते हैं। हम इसे सजाना चाहते हैं। हमें यह नहीं पता कि जो सृष्टिकर्ता ने हमे बनाया है। वह सबसे बड़ा कलाकार है। उसने जो खूबसूरती हमें दी है, इसकी शोभा हम पदार्थ से बढ़ाना चाहते हैं। भला सोचने की बात है कि हम कौन होते हैं किसी पशु, जमीन या पेड़ पौधों को बेचने खरीदने वाले। वो भी चंद रुपयों के लिए। हम कीमत लगाने लगे। पदार्थ, जीव और यहां तक ईश्वर की भी कीमत लगा बैठे हैं। आज हम जिस सभ्यता को समाज में प्रतिष्ठित कहते हैं, जिसे हम मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि समझते हैं कि मनुष्य प्रजाति ही प्रकृति की ऐसी जीव प्रजाति हैं जो सभ्यता के साथ जीवन जीता है। लोगों को लगता है कि हम अन्य जीवों की अपेक्षा सभ्य हैं तो सोने की बात है कि क्या वास्तव में हम सभ्यता में जी रहे हैं या फिर विकृति में जी रहे हैं। हमारी सोच हमारी भाव भंगिमा क्या वास्तव में सभ्यता की ओर अग्रसर है या फिर कहीं एक बड़े विनाश की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं।

सवालः क्या मानव भगवान से बड़ा कारीगर है, जिन्होंने पदार्थ बनाया, क्या वो आभूषण नहीं बना सकते।

आज के दौर में देखा जाए तो हम जिस तरह से हर चीज की कीमत लगा रहे हैं। उसमें लोगों के जान की कीमत लगा रहे हैं। साथ ही साथ इस तथाकथित सभ्यता और धर्म की भी कीमत लगी हुई है। आज धर्म को भी हम कीमत से खरीद रहे हैं। हमारी यही सभ्यता है कि हम लोगों को अपने धर्म स्वीकार करने के लिए कीमत देते हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं की बहुत ऐसी संस्थाएं हैं जो कि लोगों की सेवा मुफ्त में करने का विभिन्न उपाय लगाती हैं। नाना प्रकार की ऐसी संस्थाएं चल रही हैं।

दुनिया भर के धर्म अपने-अपने धर्म के विस्तार के लिए ऐसे हथकंडे अपना रहे हैं, जिससे लोगों की तादाद बढ़ सके। इस क्रिया में हिंदू, मुसलमान, ईसाई या फिर कुछ गिने-चुने धर्म ही नहीं बल्कि सभी धार्मिक संस्थाएं ऐसा ही कर रही हैं। इसके पीछे भी सोच सिर्फ यह है कि हमारा धर्म विस्तार हो। हमारी सभ्यता में पूरी मनुष्य प्रजाति जीवन जिए। हम देखते हैं कि जो सदियों से पूरी तरह प्राकृतिक रूप से जीवन जी रहे हैं। हमारी यह धार्मिक और सब संस्कृतियों की गिनी-चुनी संस्थाएं, उन्हें भी अपनी इस बीमारी से दूर नहीं रहने देना चाहती हैं। उनके पास भी सेवा के नाम पर मुफ्त चिकित्सा और शिक्षा के नाम पर पहुंचकर अपनी सभ्यता को सिखाने का भरपूर प्रयास करने लगे। कहने को तो ये लोगों को धर्म और सभ्यता सिखा रहे हैं, परंतु उनके पीछे भी कहीं न कहीं धर्म की कीमत लगाई जा रही है। सभ्यताएँ बेची जा रही है। तुम मेरा धर्म स्वीकार करो, हम तुम्हें यह कीमत दे रहे हैं। लॉलीपॉप के नाम पर मनुष्य ने धर्म और संस्कृति को भी व्यापार बना रखा है और खरीद फरोख्त कर रहा है।

सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि हम सभ्यता और धर्म के बीच में भी दलाली खाने से पीछे नहीं है रहे हैं। वहां भी हम बिचौलियों की भूमिका में भरपूर लाभ लेने से नहीं चूकते। आज हम देखते हैं कि मंदिरों में भी उस मंदिर का सबसे अधिक नाम है, जो ज्यादा चढ़ावा वाला मंदिर है। जहां हम धन के अनुसार ईश्वर की शक्ति का भी आकलन करने लगे हैं। हमारे बीच अक्सर ऐसी चर्चाएं होती हैं की फलां मंदिर में बहुत अधिक धन चढ़ता है वहां भगवान के पास जो जाता है मुराद पूरी होती है। अरे उस मंदिर पर रोज लाखों-करोड़ों चढ़ता है। सोचने की बात यह है कि हम चढ़ावे से उस ईश्वर की क्षमता का आकलन करने लगे हैं।

कितनी अजीब बात है कि हम प्रकृति की बनाई हुई चीज नष्ट करके अपनी खुराफाती दिमाग से उसमें कुछ का कुछ बनाते हैं। फिर उसे ईश्वर को देकर सोचते हैं कि हमने उसे मंदिर में दान किया। उसी सोने का गहना बनाकर उसे पहनाते हैं। उसी के पीतल का घंटा बनाकर उसी के पास बजाते हैं। यदि उसे सोने का आभूषण और पीतल के घंटे में ही रुचि होती तो, भला उससे बड़ा कलाकार कौन है। वह खुद सोनी को आभूषण बनाया होता। पीतल का घंटा भी बनाया होता। उसे पदार्थ रूप में क्यों बनाते। उसे यदि धन में रुचि होती तो वह पूरा धन ही बना देता। भला ऐसा क्या है जो वह नहीं कर सकता था। या फिर मनुष्य ऐसा क्या कर देगा उसे दे देगा जिसकी उसे जरूरत है। और वह मनुष्य से अपनी जरूरत को पूरा करने की अपेक्षा लगाए बैठा हो।

मनुष्य भगवान की भी कीमत लगाने लगते हैं, बस उन्हें चढ़ावा ज्यादा दिखे…

जहां भी देखो कीमत की बात होती है। कीमत मनुष्य के सिर पर इस तरह चढ़ गई है कि वह वक्त की भी कीमत लगा बैठा है। हम देखते हैं कि हमारे पास वक्त नहीं होता। हम अपने वक्त को बेच देते हैं। धन के पीछे भागते हैं। कहते हैं वक्त की कीमत जो नहीं समझता वक्त उसका साथ नहीं देता। परंतु यह कहने के भी पीछे बहुत बड़ा राज है। राज यह है कि कहने वाला वक्त की वास्तविक कीमत की बात नहीं करता, बल्कि वह हर वक्त धन कमाने की बात करता है। हमारे बीच में कहावत उसी के लिए प्रयोग किया जाता है जो नौकरी या व्यापार नहीं कर पाता। लोगों की नजरों में वह बेकार होता है जो कहीं कमाने वाला है। उसे लोग समझते हैं कि यह वक्त का सही इस्तेमाल कर रहा है। जो धन कमाने की नहीं सोच रहा है, उसे वक्त की कीमत बताई जाती है कि खाने के पीछे भी कहीं न कहीं कीमत सिर्फ धन की है पदार्थ की नहीं।

वास्तविक कीमत जो समस्त प्राणी को प्रकृति प्रदत्त है, उसे कोई समझ ही नहीं पा रहा है। मनुष्य को नहीं पता है की प्रकृति में भी सभी जीव और सभी पदार्थ कीमती हैं, उसने एक भी रचना निरर्थक नहीं की है। सबका महत्व है। सब प्रकृति के सृजन के सहयोगी अंग हैं। यहां कुछ भी बेकार निरर्थक नहीं है। यदि कुछ बेकार है तो वह सिर्फ मनुष्य की अपनी सोच और अपने अंदर बेकार की खुराफात यदि कुछ बिना मूल्य की है तो वह मनुष्य का अपना अहंकार है। जिसकी प्रकृति में न कोई कीमत है और न ही कोई जरूरत। फिर भी मनुष्य हर पदार्थ के माध्यम से अपने अहंकार को पोषित करने में लगा है। हमारी सोच भी ऐसी बन गई है कि जो जितना बड़ा अहंकारी है हम उसे उतना ही कीमती मान बैठते हैं।

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