
- महंत आदित्यनाथ शिवराज नहीं जो आसानी से छोड़ दे मुख्यमंत्री की कुर्सी
- ‘संघ का हाथ, योगी के साथ’ देश में हिंदुत्व के सबसे बड़े चेहरे हैं योगी
राजेश श्रीवास्तव
उन्हें हिंदुत्व का सबसे मज़बूत ब्रांड अम्बेसडर कहा जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयं संघ (RSS) अपनी रणनीति के लिए उन्हें सबसे फ़िट मानती है। उत्तर प्रदेश के बाहर भी उनकी लोकप्रियता जनता में सिर चढ़कर बोल रही है। पूर्वोत्तर के राज्यों में उन्हें ‘भगवान’ का दर्जा प्राप्त है और दक्षिण के राज्यों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज़्यादा प्रभावशाली व्यक्तित्व हैं। यूपी में हार का मलाल उन्हें भी है, लेकिन इतना नहीं कि कुर्सी छोड़ दें। वह साल 2027 में BJP को प्रचंड बहुमत दिलाने के लिए आतुर हैं। रोज़ अफशरसाही पर नकेल कस रहे हैं। नेताओं को क्षेत्र में पहुँचने की हिदायत दे रहे हैं और ख़ुद 24 घंटे मेहनत कर रहे हैं। इसके बाद भी पार्टी में छिड़ी जंग उन्हें दुख पहुँचा रही है और मन मसोस कर काम करने को मजबूर रही है। हालात क्या हैं और कैसे बदल रहे हैं… जानिए दो टूक लहजे में यह रिपोर्ट…
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की जो सरकार पिछले सात साल से मजबूती के साथ खड़ी दिखाई पड़ रही थी, अब अचानक लड़खड़ाती नज़र आने लगी है। इसकी वजह है एक अरसे से पनप रहा असंतोष, जो मौका देखकर अब बाहर आना चाहता है। लगता है कि पार्टी ने इस मसले को काफी गंभीरता लिया है। लोकसभा चुनाव में BJP को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिलने का सबसे बड़ा कारण था, उत्तर प्रदेश। पहली नज़र में यह साफ लगता है कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है, अन्यथा ऐसे परिणाम नहीं आते। यह तब है जब लोकसभा में यूपी को कम सीटें मिलीं। यूपी भाजपा में कोई हार का ठीकरा अपने सिर पर नहीं लेना चाहता। सब एक–दूसरे पर जिम्मेदारी डालना चाहते हैं। दोनों उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य और बृजेश पाठक मुख्यमंत्री को दोषी ठहरा रहे हैं तो सहयोगी दल भी खेल रहे हैं।
इसके पहले भी ‘नया लुक’ ने लिखी थी यह रिपोर्ट…

बहरहाल, दिल्ली में सरकार बनने के एक महीने बाद, पार्टी ने पराभव के कारणों को समझने के लिए अंतर्मंथन शुरू किया है, तो अंतर्विरोध भी खुलने लगे हैं। बयानबाज़ी ज्यादा हो रही है, प्रतीकों में बातें तो नहीं हो रही हैं। पहली नज़र में दिखाई पड़ रहा है कि गुटबाज़ी गहराई पकड़ रही है। इसी प्रक्रिया में यह असंतोष भी बाहर निकलकर आया है। पिछले रविवार को प्रदेश की विस्तारित कार्यकारिणी की बैठक में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने ‘संगठन हमेशा सरकार से बड़ा होता है’ कहकर इन हलचलों को तेज कर दिया। शायद इसी वजह से मंगलवार को केशव मौर्य और पार्टी–अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से बातचीत के लिए अलग–अलग दिल्ली बुलाया गया। भीतर क्या बातें हुईं, इसे लेकर भी कयास हैं, पर मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कहा कि पार्टी के हित में इस मसले पर बयानबाज़ी नहीं की जानी चाहिए। औपचारिक रूप से केंद्रीय नेतृत्व ने अभी तक कुछ कहा नहीं है।
इस एक सवाल का जवाब तो योगी से भी बनता है…
आज भी आला कमान ने मुख्यमंत्री व दोनो उपमुख्यमंत्रियों को तलब किया। कोशिश की जा रही है कि अंतर्कलह को कम किया जा सके। भाजपा आलाकमान भी जानता है कि अगर इसे रोका न गया तो आने वाली 10 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में उसे खासे नुकसान को उठाना पड़ सकता है। आलाकमान भले ही दोनों डिप्टी सीएम को शह देता हो पर वह अभी फिलवक्त मुख्यमंत्री से पंगा लेने की स्थिति में नहीं है। पूरे देश में ब्रांड योगी अब मोदी के ऊपर हो गया है। अगर योगी को छेड़ा गया तो भाजपा को अकेले यूपी ही नहीं कई राज्यों में हिंदुत्व की प्रखर छवि पर गहरी चोट लग सकती है। सीएम योगी शिवराज नहीं हैं कि यूपी में कोई दूसरा सीएम हो जायेगा और भाजपा को नुकसान नहीं होगा। आलाकमान को अच्छी तरह पता है कि महंत आदित्यनाथ के साथ संघ भी है। इसीलिए शनिवार को गृहमंत्री अमित शाह ने दोनों डिप्टी सीएम से मुलाकात कर उन्हें तरह–तरह की नसीहत दी और कहा कि बयानबाजी और शक्ति प्रदर्शन से बाज आयें।

दूसरी तरफ मोर्चा खोले मौर्य की जमीनी हकीकत कितनी है, यह साफ है। वह भले 2014 में BJP को प्रचंड जीत दिला चुके हों लेकिन बीते चुनाव में वह अपनी सीट भी नहीं बचा सके थे। वहीं दूसरे बृजेश पाठक हैं, जिन्होंने एक विधानसभा के बाद दूसरी बार सीट ही बदल ली। उनको पता था कि अगर वह दोबारा लखनऊ मध्य से लड़ते तो चुनाव जीतना मुश्किल था। इसीलिए भाजपा हाईकमान दोनों के भरोसे मुख्यमंत्री से हाथ नहीं धोना चाहता। सूत्र तो यह भी बताते हैं कि अगर दोनों बाज नहीं आये तो उन्हें अपनी कुर्सी भी गंवानी पड़ सकती है। मुख्यमंत्री योगी ने राज्य में विधानसभा की 10 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव की रणनीति तैयार करने के लिए लखनऊ में बैठक बुलाई। बैठक में उन्होंने जो रणनीति बनाई है, उससे दोनों उपमुख्यमंत्रियों को अलग रखा गया है। इस रणनीति के अनुसार इन दसों चुनाव–क्षेत्रों में सघन प्रचार के लिए उन्होंने 30 मंत्रियों की एक टीम बनाई है, जिसमें दोनों डिप्टी सीएम नहीं हैं। यह एक प्रकार की जवाबी कार्रवाई है।
इस खींचतान के समानांतर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की एका पहले से ज्यादा मजबूत होती जा रही है, क्योंकि उन्हें BJP के भीतर के टकराव में अपने लिए बेहतर संभावनाएं नज़र आ रही हैं। इतना ही नहीं BJP के सहयोगी दलों ने भी अपने स्वरों को मुखर करना शुरू कर दिया है। कहा जा रहा है कि योगी–प्रशासन में अफसरशाही हावी है, जिसके कारण भाजपा कार्यकर्ताओं को उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है। पार्टी के विश्वस्त कार्यकर्ताओं का अपमान हो रहा है, वगैरह।पर यह मूल कारण नहीं है।

साल 2017 में जब महंत आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने थे, तबसे ही असंतोष की चिंगारी एक वर्ग के भीतर बैठी हुई है। कहना मुश्किल है कि यह असंतोष बड़ी ज्वाला की शक्ल ले पाएगा या नहीं। पर हालात यहां तक पहुंचे हैं, यह भी कम नहीं है। लोकसभा चुनाव में विफलता के कारण असंतुष्टों को विरोध व्यक्त करने का मौका मिला है। पार्टी के सहयोगियों की आवाजें भी अब मुखर हो रही हैं। ये वो सहयोगी हैं, जो अपने बूते एक सीट नहीं जीत सकते। जिनका अस्तित्व केवल और केवल BJP से है। यदि भाजपा के बाहर किसी पार्टी के साथ गए तो भी इन्हें हार नसीब नहीं होगी। सोशल इंजीनियरिंग बिठाने के फेर में इन्हें मंत्रिमंडल में जगह मिली हुई है। ये खैरात की चीज पर अपना हक समझ बैठे हैं। कुछ दिनों पहले दो नेता गए थे। लौट के आए और मंत्री बन गए, बस यही कमी है। ये निर्णय किसका है, अब बीजेपी के लोग जानें। लेकिन ये तय है कि रास्ते का कूड़ा-करकट हमेशा आपको बढ़िया रास्ता नहीं देता है। कभी-कभी कूड़े पर सड़क बनती है। कभी-कभी कूड़े से सजावटी सामान बनते हैं। कहीं की मिट्टी कहीं का रोड़ा, भानुमती का कुनबा जोड़ा, कहावत हमेशा फिट नहीं बैठती।
अभी कुछ दिनों पहले की बात है। निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद ने कहा, गरीब को उजाड़ेंगे, तो वह हमें उजाड़ेगा राजनीति में। उन्होंने सूबे की ‘बुलडोज़र राजनीति’ पर भी टिप्पणी की है। ये वही निषाद है, जो संतकबीरनगर लोकसभा में करारी हार लेकर लौटे हैं। केवट बाहुल्य जगह पर उनकी हार यह साबित करती है कि वो अपनी जाति के ‘खुदा’ नहीं है। इसके पहले अपना दल (एस) की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने सीएम को पत्र लिखकर कहा था कि राज्य में OBC और अनुसूचित जाति के कोटे की सीटों पर सामान्य कैटेगरी के लोगों की नियुक्तियां की जा रही हैं। जो बातें पहले दबे–छिपे कही जा रही थीं, वे अब मुखर होकर कही जा रही हैं। अनुप्रिया पटेल कभी अपने बूते विधानसभा तक नहीं पहुंच पातीं। आज वो केंद्र में मंत्री हैं, लेकिन खुद को आपे से बाहर समझ रही हैं।
लोकसभा चुनाव में BJP की सोशल इंजीनियरिग की विफलता, प्रत्याशियों के चयन में नासमझी और विरोधी दलों के प्रचार की काट कर पाने में विफलता को लेकर अब सवाल किए जा रहे हैं। इन सवालों के जवाबों में ही पक्ष और प्रतिपक्ष पढ़े जा सकते हैं। लेकिन परिणाम में बहुत परिवर्तन की उम्मीद न करिये पर इतना तय है कि एक उपमुख्यमंत्री ज़रूर खतरे में हैं। हां, अगर बीजेपी में आपसी टकराहट नहीं रुकी तो साल 2027 में करारी हार तय है, तब संघ अपनी पसंद-नापसंद अपने पास रखे और BJP आलाकमान अपनी पसंद-नापसंद अपने पास।