
- स्वयंभू शिव लिंग के ओर छोर का पता नही
- महाभारत काल मे पांडवो ने की थी पूजा
- पांडवों के अज्ञात वास का था ये जंगली इलाका
- भीमसेन आए थे गुरु गोरखनाथ को राजसूय यज्ञ मे बुलाने
बीकेमणि
जय बाबा तामेश्वर नाथ। सावन मे नेपाल तक से लोग बाबा तामेश्वरनाथ का दर्शन करने आते हैं। जब खलीलुर्हमान खलीलाबाद का चकलेदार था,तभी एक वृद्धा ब्राह्मणी ने ससुराल से मायके जाते समय भोर मे पहली बार खेत मे उभरे हुए ताम्रवर्णी शिवलिंग को देखा था। उसकी सूचना पर आसपास के गांव वाले जुटे और शिवलिंग निकालने की चेष्टा की। पर असफल हुए शिवलिंग के ओरछोर का पता न था। लोगो ने वही पूजन शुरू कर दिया। बाद मे पता लगने पर चकलेदार ने आदमियो को लगाकर मूर्ति निकलवानी चाही,पर माटा,चींटे,बिच्छू आदि निकलने लगे मजदूर भाग खड़े हुए। तो मजबूरन वहि चबूतरा बनवाना पड़ा। तामा- रामपुर के बीच इस स्वयंभू शिव लिंंग से ज्यो ज्यो मनोकामनाये पूरी होने लगी। आस्था दूर दूर तक फैल गई लोगो ने मंदिर का गर्भ गृह और मंडप बनवाया तत्कालीन बांसी के राजा ने खजनी के पास से गोस्वामी परिवार को बुलाकर मंदिर की पूजा अर्चना सौंपी और इन दो गांवो भे गोस्वामी परिवार को बसाया। जो आज डेढ़ सौपरिवार के करीब होगए है। बारी बारी से ये लोग ही मंदिर की पूजा अर्चना का कार्य संभालते है। इसी परिवार मे एक गोस्वामी जी ने शिव मंदिर के सामने जीवित समाधि ले ली थी। उन्हे आज भी गुड़ भ़गा लोख चढ़ाते है। कालांतर मे यहां एक नागा संन्यासी रहने लगे और साधना करने लगे। जिन्होंने मंदिर के उत्तर कुछ दूरी पर अपनी कुटिया बनाई। वे एक सिद्ध संत थे। उन्होने यहा़ हनुमान मंदिर स्थापित कराया। आज करीब एक दर्जन भर मंदिर यहां स्थापित है। पार्वती जी का भी अलग से मंदिर स्थापित है। बताते है राजकुमार सिद्धार्थ का मुंडन इसी स्थान पर हुआ था। बाद मे इसी मार्ग से वे सिद्धार्थनगर से अपनी पत्नी यशोधरा और बेटे का परित्याग कर सारनाथ की ओर गए थे
पोखरे के समीप यह तामेश्वर नाय मंदिर लोक आस्था से जुड़ा हूआ महाभारत कालीन भगवान तामेश्वर नाथ का मंदिर कहलाता है। जनश्रुति के अनुसार पांच हजार साल पहले अज्ञातवास काल मे पांडवो ने इस शिव लिंग की पूजा की थी। गोरखपुर बस्ती महाराज गंज का क्षेत्र महाराज विराट का राज्य कहलाता था। यहा के जंगली क्षेत्र मे आद्रिवन का लेहरा देवी मंदिर भी है। राजसूय यज्ञ मे गुरु गोरखनात को गोरखपुर से लेजाने के लिए स्वयं भीमसेन पधारे थे। उस समय गुरु गोरखनाथ समाधि मे थे अत: कुछ दिन उन्हें विश्राम करना पड़ा था। आज भी गोरखनथ मंदिर मे भीमसेन की लेटी प्रतिमा देखी जासकती है।