बलराम कुमार मणि त्रिपाठी
हिंदी से संस्कृति जुड़ी है, हिंदी से सनातन जुड़ा है और हिंदी भारत के भाल की बिंदी कही जाती है। लेकिन इसे अभी भी वो हक़ नहीं मिल पाया, जो यूरोप में अंग्रेज़ी को मिली। जो फ़्रांस में फ़्रेंच को मिली। जो अन्य देशों में उनकी भाषाओं को मिला। इस देश में हिंदी अभी भी दूसरे पायदान पर है। एक उदाहरण देखिए– फलाने कम्पनी में फ़ोन करने के लिए आपको धन्यवाद।यदि आप अंग्रेज़ी में बात करना चाहते हैं तो एक दबाइये। अगर आपको हिंदी में बात करना है तो दो दबाइये। अब सोचिए, हिंदुस्तान में रहकर भी हिंदी को दोयम दर्जे की मान्यता प्राप्त है।
आजादी के बाद भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी हो, इस पर बड़ा जोर दिया गया। किंतु यह मात्र राजभाषा होकर रह गई। साल 1979 में जबर्दस्त आंदोलन हुआ। भारत के बहुत सारे प्रांतों में उनकी अलग–अलग भाषायें होने से सर्व सहमति न बन पाई। वे अंग्रेजी के हिमायती रहे। इसलिए हिंदी दोयम दर्जे की भाषा बनी रही। मुझे स्मरण है उस समय मैं पांडिचेरी (पुड्डुच्चेरी) व दक्षिण भारत की यात्रा पर था। जगह–जगह अंग्रेजी के पक्ष मे पोस्टर लगे रहे। ट्रेन के रिजर्वेशन आफिसर ने मुझसे कहा– ‘Please talk in Engilsh. I don’t know Hindi’। क्षेत्रीय भाषा न समझ पाने के कारण इशारे में पानी मांगना पड़ता था।
लोग दलीलें देते हैं और यह सच भी है। हर देश की अपनी भाषा है। भारत की एक मातृभाषा नहीं। फिर सहज रूप में 15,भाषा़ओ के साथ हिंदी और संस्कृत मे राष्ट्रीयता के समूहगान लिख कर उसका जगह–जगह प्रशिक्षण दिलाकर राष्ट्रीय चेतना जगाने का काम किया गया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में पूरे देश के स्कूलों और कालेजों में राष्ट्रीय भावना के समूहगीत सिखाये गए। जिसमे मैं भी एक मंडलीय प्रशिक्षक रहा।
हिंदी भाषा का उद्गम संस्कृत है तथा कालांतर मे इसने कुछ क्षेत्रीय और कुछ प्रांतीय बोलचाल की भाषा को भी अंगीकार कर लिया। उर्दू और अंग्रेजी के तमाम शब्द इसने स्वीकार कर लिए। इस हिसाब से देखा जाय तो हिंदी पर्याप्त उदारवादी रही है। यह देखने–सुनने का बाद आसानी से कहा जा सकता है। यह भाषा तेजी से पूरे राष्ट्र मे समझी जाने लगी है, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि कालांतर में राजभाषा से इसका दर्जा राष्ट्रभाषा बन सकेगा।
कंप्यूटर और डिजिटलाईजेशन के युग मे अंग्रेजी के अंक हू–ब–हू इसमें स्वीकार कर लिए गए है। अब हिंदी पहाड़ा और हिंदी अंकों की पहचान स्कूलों से भी तेजी से पलायन कर रही है। लेकिन भाषा और लिपि में कोई बदलाव नही आया है। आजादी के बाद संत विनोबा भावे ने देवनागरी लिपि का प्रयोग अपने भूदान यज्ञ और सर्वोदय पत्रिकाओं में किया था, किंतु वह ज्यादे दिन तक टिक न सकी।