लखनऊ। भारतीय किसानों को उनकी उपज के अंतिम बिक्री मूल्य का केवल एक-तिहाई हिस्सा ही मिलता है, बाकी कमाई का मजा व्यापारी, थोक व खुदरा विक्रेता मिलकर लूटते हैं। इस संबंध में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र के निष्कर्ष भी मेरी कुछ पुरानी धारणाओं की पुष्टि करते हैं। किसानों को एकजुट करने और उन्हें बाजार से जोड़ने से समस्या का हल करने में मदद मिल सकती है। इसी इरादे से राज्यों में कृषि उपज बाजार समितियों (APMC) के तहत बाजार स्थापित किए गए थे, पर परिणाम वैसा नहीं निकला, जैसा सोचा गया था। इसने केवल बिचौलियों की संख्या बढ़ा दी, जिससे किसानों पर बोझ बढ़ गया। वैसे हम यह भी देखते हैं कि कई राज्यों में किसानों ने APMC तंत्र के बिना भी बेहतर प्रदर्शन किया है। किसानों की एक सहकारी समिति अमूल ने भारत के डेयरी क्षेत्र में एक वैकल्पिक मॉडल के रूप में बहुत अच्छा काम किया है। अमूल ने साल 2023-24 में 59,445 करोड़ रुपये का डेयरी कारोबार किया, जबकि समूह का कुल कारोबार 80,000 करोड़ रुपये का रहा। गुजरात के 18,600 गांवों के 36 लाख किसान इससे जुड़े हैं, जो हर दिन लगभग तीन करोड़ लीटर दूध की आपूर्ति करते हैं।
भारत में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में और भी अच्छी किसान सहकारी समितियां हैं। कर्नाटक और केरल में सुपारी व कोको उत्पादकों की सहायता के लिए स्थापित सेंट्रल सुपारी व कोको विपणन एवं प्रसंस्करण सहकारी लिमिटेड (कैम्पको) का योगदान उल्लेखनीय है। मसाला बोर्ड केरल ने भी किसानों के लिए बेहतर लाभ सुनिश्चित किया है। इन निकायों ने उत्कृष्ट सामाजिक बुनियादी ढांचा बनाने में भी मदद की है, ये कई प्रकार से किसानों की मदद करते हैं। वास्तव में, सफल सहकारी समिति बनाने के लिए दूरदर्शिता की जरूरत पड़ती है। अब इस क्षेत्र में सफलता की कहानियां भी कम होती जा रही हैं। एक व्यावहारिक सहकारी आंदोलन खड़ा करने के लिए वास्तविक समाजवादी लक्ष्य वाले दूरदर्शी लोगों की जरूरत पड़ती है। ऐसी किसान समितियों की सफलता की एक और कुंजी शुरुआती वर्षों में किसी भी सियासी हस्तक्षेप की अनुपस्थिति है। जैसा चीनी सहकारी समितियों के अनुभव से देखा गया है, सियासी हस्तक्षेप किसानों की आजीविका में सुधार को पटरी से उतार सकता है। गुजरात में हुए प्रयोग को अगर देखें, तो वहां दूध की कीमत का लगभग 80-82 प्रतिशत दुग्ध उत्पादक किसान को वापस चला जाता है, उस किसान की सहकारी समिति में हिस्सेदारी भी होती है । सहकारी समिति ने एक स्थानीय जिला सहकारी बैंक नेटवर्क भी तैयार किया है, जो उनकी बचत को प्रसारित करता है और ग्रामीण स्तर पर ऋण सुविधाएं प्रदान करता है।
भारत सरकार ने देश भर में सहकारी आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए एक सहकारिता मंत्रालय बना रखा है और RBI ने भी सहकारी बैंकों की निगरानी बढ़ा दी है। कई पारंपरिक क्षेत्रों में किसान सहकारी मॉडल बढ़ने की उम्मीद है। भारतीय बीज सहकारी समिति, नेशनल कोऑपरेटिव ऑर्गेनिक्स और नेशनल कोऑपरेटिव एक्सपोर्ट जैसे संस्थानों से सहकार से समृद्धि के दृष्टिकोण के तहत जैविक खेती, कृषि निर्यात और बीज उत्पादन को बढ़ावा मिलने की उम्मीद की जाती है। कृषि ऋण देने के लिए अब वाणिज्यिक बैंक भी आगे आने लगे हैं। किसानों के बीच तकनीक के इस्तेमाल से भी अन्य संस्थानों के साथ उनका जुड़ाव बढ़ा है।
बताया गया है कि विश्व स्तर पर भी किसान सहकारी आंदोलन कामयाब हुए हैं। चाहे वह नीदरलैंड में राबो बैंक हो या यूक्रेन, रूस के सहकारी निकाय। इन देशों में समृद्ध कृषि व्यवस्था बनाने में सहकारी समितियों का बड़ा योगदान है। ये देश गेहूं, मक्का, सूरजमुखी और कुछ अन्य फसलों के सबसे बड़े उत्पादक हो गए हैं। ध्यान रखना चाहिए, भारत में श्वेत क्रांति की नींव रखने वाले वर्गीज कुरियन ने अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘मैं उन लोगों में से एक हूं, जो दृढ़ता से मानते हैं कि हमारे शहर गांवों की कीमत पर फलते-फूलते हैं; हमारे उद्योग कृषि का शोषण करते हैं, पर अब शोषित होने की जरूरत नहीं है। आज भारतीय कृषि का भविष्य उज्ज्वल है।