राजधानी तिरुवनंतपुरम में राजशक्ति के दो स्थलों के दरम्यान प्रधानमंत्री ने अमन सर्जा दिया। एकदम सरल और सीधा उपाय। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को सागरतट से गंगातट भेज कर। मार्क्सवादी पिनरायी विजयन की जिद बनी रही। राज्यपाल आरिफ भाई की मर्यादा भी। राजभवन की प्रतिष्ठा भी। मगर प्रधानमंत्री से अपेक्षा है कि इन दो गरिमापूर्ण संवैधानिक पदों में सुलह रहे स्थायी रूप से। सात दशक पूर्व रचे गणतंत्रीय संविधान में डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे मनीषियों ने भी विवाद-निराकरण का उपाय नहीं सुझाया था। इतिहास इसका गवाह है। आजकल जब संविधान का बारंबार राग अलापा जा रहा है तो संसद से आशा गहराती है कि केरल जैसे बवाल से देश बचे। जयपुर की ही दुर्घटना याद कर लें। बहुमत न होने पर भी कांग्रेस पार्टी के नेता का राज्यपाल बाबू संपूर्णानंद ने मुख्यमंत्री पद की (1967) शपथ दिलवा दी। राजधानी की सड़कों पर पुलिस गोलीबारी मे लाशें बिछ गई थीं। गणपतराव तपासे ने (1980) हरियाणा में ऐसा ही निर्णय किया था। नतीजा हिंसा में हुआ।
राज्यपाल रोमेश भंडारी ने तो दो मुख्यमंत्रियों को एक साथ नामित कर उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत सिद्ध कराने का आदेश दिया था। कल्याण सिंह और जगदंबिका पाल को। इतिहास लंबाता जाएगा। भारतीय गणराज्य में राज्यपाल के अधिकारों का पहला दुरूपयोग जवाहरलाल नेहरू के समय में हुआ। केरल विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी का स्पष्ट बहुमत था, बल्कि मानव इतिहास में पहली बार विश्व में अगर मुक्त मतदान द्वारा कम्युनिस्ट सरकार कही बनी थी तो वह ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की थी। तथाकथित जनान्दोलन, जो वस्तुतः हिन्दू नायर जाति और ईसाई पादरियों की साम्प्रदायिक मुहिम थी, का 1958 में बहाना बनाकर कांग्रेस अध्यक्ष इन्दिरा गांधी के दबाव में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नम्बूदरीपाद की निर्वाचित, बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया था। राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया।
फिर केरल जैसी हरकत आन्ध्र प्रदेश में 1984 दुहरायी गयी। तेलुगु देशम के दो तिहाई बहुमत वाली एन.टी. रामाराव की पहली सरकार को राज्यपाल ठाकुर रामलाल ने बर्खास्त कर दिया। तब इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री थी। हैदराबाद में शान्ति तभी स्थापित हुई जब डा. शंकर दयाल शर्मा राज्यपाल बनकर गये और रामाराव को दुबारा शपथ दिलवाई। गोवा के राज्यपाल राजा भानुप्रकाश सिंह तो नमूना बन गये। उन्होंने कांग्रेसी मुख्यमंत्री डा. विलप्रेड डीसूजा को बर्खास्त कर दिया, जबकि विधानसभा में कांग्रेस का बहुमत था। राज्यपाल ने अपनी मर्जी से रवि नायक को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी जबकि कांग्रेस विधान मण्डल दल ने नया नेता चुना ही नहीं था। राज्यपाल के निर्णय का जानामाना कारण यही था कि डिसूजा को वे सख्त नापसंद करते थे। सर्वाधिक अवमानना राज्यपालों की तब हुई जब जनता पार्टी की सरकार ने 1977 में उन्हें थोक में बर्खास्त किया। सत्ता में फिर आने पर इंदिरा गांधी ने इसी तरह जनता पार्टी द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाया। तमिलनाडु के राज्यपाल और बड़ौदा डाइनामाइट केस में जेलयाफ्ता प्रभुदास पटवारी को तो इंदिरा गांधी ने बड़े बेआबरू तरीके से निकाला। कारण यही था कि प्रभुदास पटवारी मोरारजी देसाई के बहुत नजदीकी मित्र थे।
लेकिन सर्वप्रथम जवाहरलाल नेहरू ने ही अपने आलोचकों या जिन कांग्रेसी नेताओं को वे राजनीति से दूर करना चाहते थे उन्हें राज्यपाल पद पर नियुक्त किया था। सरदार पटेल के निधन के तुरंत बाद नेहरू ने पटेल समर्थकों को केंद्र से हटा कर राजनीतिक रूप से निष्क्रिय बनाने के लिए राजभवनों में भेज दिया था। इनमें प्रमुख थे पूर्व कांग्रेसाध्यक्ष पट्टाभि सीतारामय्या (मध्यप्रदेश), केएम मुंशी (उत्तर प्रदेश), श्रीप्रकाश (मुंबई) आदि। दूसरे दौर में लोकसभा चुनाव में पराजित लोगों को राज्यपाल बनवाया जिनमें खास थे वीवी गिरि (उत्तर प्रदेश) के। इंदिरा गांधी ने राज्यपालों को केंद्र का राजनीतिक एजेंट बनवा कर प्रदेश सरकार पर अंकुश बनाए रखा। जैसे चेन्ना रेड्डी (उत्तर प्रदेश), श्रीमन्नारायण (गुजरात), रामलाल (आंध्र प्रदेश), उमाशंकर दीक्षित (पश्चिम बंगाल) आदि। इस मायने में पीवी नरसिंह राव की प्रशंसा में इतना तो कहना ही होगा कि उन्होने विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मनोनीत राज्यपालों को नहीं हटाया। जैसे समाजवादी मधुकर दिघे (मेघालय), कृष्णकांत (आंध्र प्रदेश), बी. सत्यनारायण रेड्डी (उत्तर प्रदेश), केवी रघुनाथ रेड्डी (त्रिपुरा), वीरेंद्र शर्मा (हिमाचल प्रदेश) आदि। शायद पहली बार प्रधानमंत्री के बदलने पर राज्यपाल नहीं बदले गए थे।
एक अन्य नमूना (29 मार्च 2008) है मेघालय के राज्यपाल द्वारा सात दिनों में दो मुख्यमंत्रियों को शपथ दिलवाने से फिर वही पुराना विधानिक मसला उभरा है कि राजभवन के अधिकार कैसे हो और उनका सही उपयोग कहां तक सुनिश्चित हो सके। शिलांग में जो हुआए उसकी गुंज बीते सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय में सुनी गई। आवाज उठाने वाले थे पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पूर्णो ए. संगमा। उनका आरोप था कि बहुमत से दूर कांग्रेस विधायक दल के नेता डी.डी. लेपांग को राज्यपाल एस.एस. सिद्ध ने दिल्ली में विराजे कांग्रेसी दिग्गजों के दबाव में बिना विचारे मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। लेकिन सदन में बहुमत साबित करने के पूर्व ही लेपांग ने पद से त्यागपत्र दे दियाए क्योंकि उन्हें ‘आयाराम’ विधायक पर्याप्त नहीं मिल रहे थे। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के साथ भी ऐसा हुआ था। तब केंद्र में भाजपा-नीत राजग की सरकार थी। लेकिन मुलायम सिंह केंद्र के चहेते नहीं थे। इसीलिए सर्वाधिक सीटें जीतने के बावजूद सपा को राजभवन में आमंत्रण नहीं मिला। पर कुछ समय बाद मुलायम सिंह यादव को बिना उनके समर्थक-विधायकों की सूची मंगवाए राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी थी। राजभवन की ऐसी अवसरवादी नीति का अंजाम कई बार बुरा हुआ है। वैसी स्थिति में कई बार तो राजभवन का ही घेराव हो जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में अब नये सिरे से राज्य.केन्द्र सम्बन्धों के सन्दर्भ में राज्यपाल की भूमिका पर बहस होनी चाहिए। संविधान सभा में तत्कालीन विधि मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने आशा व्यक्त की थी कि राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। संविधान बड़ा लचीला है, इसलिए व्यावहारिक दिक्कतें कम आयेंगी। उन्होंने यह भी कहा था : “यदि कोई गड़बड़ी हो भी जाती है तो जिम्मेदार संविधान नहींए वरन क्रियान्वयन करने वाला आदमी होगा।