युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैं स्वामी विवेकानन्द

    डॉ. सौरभ मालवीय

स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय दर्शन से विश्व को परिचित करवाया। वह ज्ञान का अथाह भंडार थे। उनकी शिक्षाएं अनमोल हैं, तभी तो वह आज भी विश्व में करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं। उनका आदर्श वाक्य है- “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।” यह केवल एक वाक्य नहीं है, अपितु यह सफलता का मंत्र है। यदि हम इसे अपने जीवन में धारण कर लें, तो किसी भी कार्य में सफलता निश्चित है।

शिक्षा प्रणाली : स्वामी विवेकानन्द भारतीय शिक्षा के संबंध में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को महत्व देते थे। वह वैदिक एवं संस्कारों युक्त शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वह कहते थे कि शिक्षा वही है, जो बालक के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं चारित्रिक गुणों का विकास कर सके। शिक्षा गुरुगृह में ही प्राप्त की जा सकती है। शिक्षा मनुष्य को उसके आदर्श और असीम विकास की ओर ले जाने की प्रक्रिया है। शिक्षा बालक का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास करता है। पढ़ने के लिए आवश्यक है एकाग्रता, एकाग्रता के लिए आवश्यक है ध्यान, ध्यान से ही हम इंद्रियों पर संयम रखकर एकाग्रता प्राप्त कर सकते है। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें वहीं वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। उनका मानना था कि मनुष्य अंतिम श्वास तक सीखता है। इसलिए वह कहते थे कि जब तक जीना, तब तक सीखना, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। स्वयं को कभी कमजोर मत समझो, क्योंकि ये सबसे बड़ा पाप है। दिन में एक बार स्वयं से अवश्य बात करो, अन्यथा आप विश्व के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति से बात करने का अवसर खो देंगे। इसका तात्पर्य है कि मनुष्य स्वयं से भी प्रेम करे, स्वयं को भी मान दे। यदि वह स्वयं को मान देगा, तो इससे उसके आत्मविश्वास में वृद्धि होगी।

वास्तव में प्राचीन काल में बालक गुरुकुल में ही निवास करते थे। सदैव गुरु की निगरानी में रहने के कारण बाल्यकाल से ही उनका चरित्र निर्माण आरंभ हो जाता था। यह वह समय होता है जब बालक गीली मिट्टी के समान होते हैं। इस आयु में उन्हें जैसा आकार दिया जाए, वह उसी में ढल जाते हैं। उस समय शिक्षा महादान की भांति थी। विद्यार्थियों को शिक्षा नि:शुल्क प्रदान की जाती थी। इसका संपूर्ण व्यय राजा अथवा शासन वहन करता था। उनके आवास, भोजन, वस्त्र, चिकित्सा आदि की व्यवस्था शासन द्वारा की जाती थी। शिक्षा की यह एक उत्तम व्यवस्था थी। इसे आज भी आदर्श माना जाता है।

आध्यात्मिक शिक्षा : स्वामी विवेकानन्द केवल अक्षर ज्ञान को शिक्षा नहीं मानते थे। उनका कहना था कि शिक्षा आध्यात्मिक जागरूकता प्रदान करने वाली होनी चाहिए, जिससे अधिक शक्ति एवं आत्मविश्वास पैदा हो। वह युवाओं को आध्यात्म और योग के प्रति जागरूक करते थे। उनका मानना था कि आध्यात्म हमारी आत्मा को पवित्र करता है। यह मन को शांति प्रदान करता है। आध्यात्मिक व्यक्ति समाज को आदर्श समाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी प्रकार योग शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है। योग करने से शरीर स्वस्थ रहता है। शरीर के स्वस्थ रहने से मन भी स्वस्थ रहता है।
स्वामीजी आत्मनिर्भरता को महत्व देते थे। उनके अनुसार दूसरों पर निर्भर रहना मूर्खता है। उनका यह कथन सही है। मनुष्य को अपने परिश्रम से सबकुछ अर्जित करना चाहिए। दूसरों पर निर्भर रहने वाले लोग जहां अपना आत्मविश्वास खो देते हैं, वहीं वे समाज में अपने लिए विशेष सम्मान भी अर्जित नहीं कर पाते। उद्यम से सबकुछ प्राप्त किया जा सकता है। स्वामीजी कहते थे कि पवित्रता, धैर्य और उद्यम ये तीनों गुण एक साथ समायोजित होते हैं। बुराई एवं अपवाद की चिंता किए बिना कार्य करो, सफलता अवश्य प्राप्त होगी। शिक्षा केवल परीक्षा उत्तीर्ण करने और कुछ जीविका प्राप्त करने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसी शिक्षा जो केवल आजीविका कमाने में सहायता प्रदान करती है, वह महान मूल्य नहीं रखती है।

महिला शिक्षा : स्वामी विवेकानन्द ने महिलाओं के साथ भेदभाव करने का जमकर विरोध किया। उन्होंने कहा था कि समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए, तभी हमारा समाज इस संकीर्ण सोच से बाहर आएगा। जिस दिन महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार से भेदभाव नहीं किया जाएगा, उस दिन हमारा राष्ट्र एवं समाज विश्व में सर्वोपरि होगा। उन्होंने महिलाओं को शिक्षित करने पर विशेष बल दिया। वे कहते थे कि सभी प्राणियों में वही एक आत्मा विद्यमान है, इसलिए महिलाओं पर अनुचित नियंत्रण सर्वथा अवांछनीय है। वैदिक कालीन मैत्रेयी, गार्गी आदि पुण्य स्मृति महिलाओं ने ऋषियों का स्थान प्राप्त कर लिया था। सभी उन्नत राष्ट्रों ने महिलाओं को समुचित स्थान देकर महानता प्राप्त की है। जो देश, राष्ट्र महिलाओं का आदर नहीं करते, वे कभी बड़े नहीं हो पाए और न भविष्य में बड़े होंगे।

उल्लेखनीय है कि 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के कायस्थ परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर उसे सार्वभौमिक पहचान दिलाई। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध अधिवक्ता थे। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की गृहिणी थीं। वह बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उनके घर में नियमपूर्वक प्रतिदिन पूजा-पाठ होता था। साथ ही नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक वातावरण का उन पर भी प्रभाव गहरा पड़ा। वह अपने गुरु रामकृष्ण देव से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने अपने गुरु से ही यह ज्ञान प्राप्त किया कि समस्त जीव स्वयं परमात्मा का ही अंश हैं, इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है।

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ऐतिहासिक भाषण : स्वामी विवेकानन्द ने 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो की धर्म संसद में ऐसा भाषण दिया था, जिसने समस्त विश्व के समक्ष भारत की गौरान्वित करने वाली छवि प्रस्तुत की थी। अपने भाषण में उन्होंने कई महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए कहा था- “अमरीकी भाइयों और बहनों, आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं, धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं। मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बताया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था।
ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाइयो मैं आप लोगों को एक स्रोत की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं –

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

अर्थात जैसे विभिन्न नदियां भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।“

राष्ट्रीय युवा दिवस : स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार वर्ष 1985 को अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। प्रथम बार वर्ष 2000 में अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस का आयोजन आरंभ किया गया था। संयुक्त राष्ट्र ने 17 दिसंबर 1999 को प्रत्येक वर्ष 12 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस मनाने का अर्थ है कि सरकार युवा के मुद्दों और उनकी बातों पर ध्यान आकर्षित करे। भारत में इसका प्रारंभ वर्ष 1985 से हुआ, जब सरकार ने स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस पर अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। युवा दिवस के रूप में स्वामी विवेकानन्द का जन्मदिवस चुनने के बारे में सरकार का विचार था कि स्वामी विवेकानन्द का दर्शन एवं उनका जीवन भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।

लेखक :  एसोसिएट प्रोफेसर ,पत्रकारिता विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय

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