क्रिकेट में आत्मसम्मान जीता था! वानखेड़े का वार रंग लाया था !!

के. विक्रम राव 

तीव्र वर्ण संघर्ष के अंजाम में जन्में मुंबई के मशहूर वानखेडे क्रिकेट स्टेडियम की आज (19 जनवरी 2025) स्वर्ण जयंती है। पुराने ब्रेबोर्न स्टेडियम (1937) के पदाधिकारियों से अतिरिक्त टिकट मांगने पर झड़प के कारण मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन ने तय (1975) किया था कि उनका अलग से स्टेडियम बने। बंबई राज्य के अंग्रेज गवर्नर लॉर्ड माइकेल ब्रेबोर्न (1939) के नाम पर रखा यह पुराना स्टेडियम तभी बेरंगत हो गया। स्वाभिमान और स्वदेश प्रेम का परिणाम है वानखेडे स्टेडियम। हालांकि नया स्टेडियम 1.87 करोड़ रुपये की लागत से एक साल से भी कम समय में बनकर तैयार हो गया था। इस स्टेडियम को तीन तरफ से खुला छोड़ दिया गया था और इसमें एक क्लब हाउस और मात्र एक स्टैंड है जिसमें 7000 लोग बैठ सकते थे। इसकी बैठने की क्षमता को बाद में बढ़ाकर 45,000 लोगों तक कर दिया गया।

यूं तो बंबई साक्षी है कि ब्रिटिश राज ने क्रिकेट द्वारा भी भारत के टुकड़े करने की साजिश रची थी। यहां गुलामी के दौर में पेंटागन (पंचकोणीय) क्रिकेट प्रतियोगिता आयोजित होती थीं। हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई और यूरोपियन टीमें सांप्रदायिक गुटों के रूप में भिड़ती थीं। अंग्रेजी उपनिवेशवाद की साजिश के तहत। हालांकि स्वाधीन भारत में ब्रेबोर्न स्टेडियम भारतीय था पर कुछ निहित हाथों में। तभी की बात (फरवरी 1973 की) है। महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर और बंबई क्रिकेट एसोसिएशन अध्यक्ष शेषराव वानखेड़े और ब्रेबोर्न स्टेडियम के प्रबंधकों के बीच एक अंतरराष्ट्रीय मैच के टिकटों की साझेदारी पर विवाद हुआ। तब ब्रेबोर्न स्टेडियम के संचालक विजय मर्चेन्ट ने वानखेड़े से कहा : “आप खुद अपना स्टेडियम क्यों नहीं निर्मित कर लेते ?” बात का बतंगड़ बना स्वदेश भक्ति ने जोर मारा। बस वानखेड़े के प्रयास का अंजाम है आज का भव्य नया स्टेडियम। निडर वानखेड़े ने स्टेडियम के मालिकों से ठान ली थी। वे सब शक्तिशाली क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया के पदाधिकारी थे।

ब्रेबोर्न स्टेडियम, अपने शाही मुखौटे के साथ, कालातीत भव्यता की आभा बिखेरता है। दक्षिण मुंबई की चहल-पहल भरी सड़कों के बीच बसा यह स्टेडियम एक ऐसे अवशेष की तरह खड़ा है, जहाँ क्रिकेट के दिग्गज कभी इसके बेदाग मैदान की शोभा बढ़ाते थे। अपनी बेहतरीन पिच के लिए मशहूर इस स्टेडियम ने 1948 से 1972 के बीच कई टेस्ट मैचों की मेज़बानी की है।
अध्यक्ष वानखेडे का करिश्मा था कि इस नवनिर्मित स्टेडियम (1975) में वेस्टइंडीज से पहला मैच खेला गया था। श्रमिकों की करिश्माई मेहनत थी कि स्टेडियम वक्त पर तैयार हो गया। खुद विजय मर्चेन्ट (ब्रेबोर्न स्टेडियम वाले) जिन्होंने वानखेड़े की खिल्ली उड़ाई थी, केवल 1500 टिकट मांगने पर चकित होकर बोले : “इतना बड़ा लक्ष्य इतने कम वक्त में ?

यूं भी बंबई प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अठारवें अध्यक्ष स्वर्गीय शेषराव कृष्णराव वानखेड़े अध्ययनशील ज्यादा रहे। वे दलित महार जाति के थे, डॉ. भीमराव अंबेडकर की तरह। उन्होंने इंग्लैंड से कानून की पढ़ाई की फिर भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में गांधीजी के साथ शामिल हो गए। हालांकि 1942 में अंबेडकर ब्रिटिश वायसराय की सरकार में मंत्री थे। वानखेडे नागपुर में मेयर तथा मध्य प्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष भी रहे। बाद में नागपुर का महाराष्ट्र में शामिल होने पर मुंबई में विधानसभा के वे अध्यक्ष चुने गए। वे बड़े मिलनसार थे। तब मुंबई में “टाइम्स आफ इंडिया” का रिपोर्टर होने के नाते, मुझे वरिष्ठ साथी संजीव बंगेरा उनके पास ले गए थे। मुझे याद है हर भेंट पर वानखेड़े जी रुचिकर समाचार अवश्य देते थे। जैसे आज भी, पचासवीं वार्षिकी पर स्टेडियम के विषय में।

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