
- लाख जतन के बाद आखिरकार रात 10 बजे लग पाया था पेसमेकर
- तड़के सुबह पांच बजे के आसपास लॉरी में ही ली अंतिम सांस
भौमेंद्र शुक्ल
लखनऊ। संतकबीर नगर निवासी सीताराम पांडेय की मौत रविवार की अलसुबह हो गई। वो हृदय रोग की गम्भीर बीमारी के चलते राजधानी लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (KGMU) पहुंचे थे। लेकिन उनकी मौत का जिम्मेदार कौन? KGMU प्रशासन, लॉरी के चिकित्सक डॉ. रविकांत या फिर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था? जेहन में कई सवाल कौंध रहे हैं… जवाब किसी कोने से नहीं मिल रहा है? सूबे की फेल स्वास्थ्य व्यवस्था ने सीताराम पांडेय की हत्या कर दी।
शुक्रवार दोपहर लखनऊ के एक निजी अस्पताल में भर्ती हुए सीताराम पांडेय को वहां के अस्पताल प्रशासन से आनन-फानन छुट्टी कर दी। कहा-‘लॉरी या SGPGI ले जाइये, नहीं तो बचा पाना असम्भव है।’ जब उन्हें गोमतीनगर से लॉरी शिफ्ट कराया गया, तब उनका ब्लड प्रेशर करीब 85/48 था और वो ऑक्सीजन सपोर्ट पर थे। लेकिन लॉरी के डॉ. रविकांत ने क्या देखा कि उन्हें महज घंटे भर के अंदर ही दवा लिखकर घर ले जाने की सलाह दे डाली। केवल सलाह ही नहीं दी, बल्कि अपने परचे पर इको रिपोर्ट का सार लिखा, EF लेवल- 35 फीसदी। उन्होंने दो टूक लहजे में कहा कि 15 दिन बाद ले आइये। ओपीडी में दिखाइए और तब देखा जाएगा कि क्या करना है। तब तक खून में जमे थक्के भी गाढ़े से पतले हो जाएंगे।
घर के परिजन जब रोने लगे तो स्वास्थ्य मंत्री से दोबारा गुहार लगाई गई, उनके फोन पर किसी तरह एक रात लॉरी में वो बिता पाए। लेकिन तड़के उन्हें लारी से बाहर कर दिया गया और तब उनका ब्लड प्रेशर 73/43 था। तीन घंटे लॉरी के फर्श पर लिटाने के बाद जब परिजनों ने मेडिसिन विभाग में दिखाया तो वहां तैनात डॉ. सतीश ने उन्हें ताबड़तोड़ ट्रामा सेंटर में एडमिट कर लिया और तुरंत लाइफ सपोर्ट देनी शुरू की। सवाल उठता है कि हृदय रोग से पीड़ित मरीज को मेडिसिन विभाग ट्रामा में एडमिट कर सकता है तो लॉरी के चिकित्सक ने उन्हें घर भेजने का निर्णय क्यों लिया? क्या उनके लिए कई सिफारशी फोन आए थे… इसलिए या फिर वो उनकी ‘सेटिंग’ रेंज से बाहर से थे, इसलिए। या फिर वो केवल कामचलाऊ व्यवस्था के तहत बिठाए गए थे।
स्वास्थ्य मंत्री को शनिवार दोपहर में दोबारा अवगत कराया गया तो उन्होंने सीएमएस और ट्रामा के इंचार्ज को फिर से फोन किया तो थोड़ी सी हरकत हुई। लेकिन जब एक आंखों देखी रिपोर्ट मैंने चलाई तो एक बड़े अफसर का फोन आया। उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि KGMU में सिफारिश केवल तीन जगह से प्रभावी होती है, यदि कर सकते हो तभी करना चाहिए। पहला- सीएम दफ्तर, दूसरा- गृह विभाग और तीसरा पुलिस महानिदेशक। मंत्री की कुछ नहीं चलती, इसलिए उनके यहां से पैरवी न कराया करो।
उन्हीं के सूत्र वाक्य पर सीएम कार्यालय में कुछ साथी पत्रकारों से फोन कराया गय़ा, तब KGMU प्रशासन हरकत में आया और आनन-फानन उन्हें ट्रामा सेंटर से लॉरी एक विशेषज्ञ चिकित्सक की देखरेख में ट्रांसफर कराया गया और वहां उन्हें वो सारी सुविधाएं दी गईं, जिसका एक आम आदमी हकदार होता है। रात 10 बजे के आसपास डॉक्टरों ने पेसमेकर भी लगा दिया, लेकिन वो छह घंटे बाद जिंदगी की जंग हार गए। दो दिन लॉरी और ट्रामा के चक्कर में डॉक्टरों ने उन्हें घनचक्कर बना दिया और वो दुनिया से चले गए। सवाल यह उठता है कि उनकी मौत का जिम्मेदार कौन? KGMU प्रशासन, लॉरी कार्डियोलॉजी के चिकित्सक या सूबे की फेल स्वास्थ्य व्यवस्था…?
एक दिन पहले कुछ इस तरह किया था पूरी घटना का जीवंत चित्रण…
क्या लिखूं। क्या न लिखूं। मन व्यथित हैं। सरकार के असहाय होने की खबर लिखूं या मंत्री के खत्म हो चुकी इकबाल की कथा लिखूं। मेडिकल कॉलेज लखनऊ में जर्जर हो चुकी चिकित्सा व्यवस्था पर लिखूं या एक डॉक्टर के अमानवीय चेहरे की कहानी लिखूं। लिख दूं तो आप भी समझ जाएंगे कि सरकार का इकबाल दम तोड चुका है। डॉक्टर अमानवीय हो चुके हैं। पैसे के साठगांठ ने भगवान को शैतान बना दिया है।
कहानी की शुरुआत 18 अप्रैल की शाम छह बजे होती है। एक मरीज सीताराम पांडेय, जिनकी वय 70 साल के आसपास है, को एक प्राइवेट अस्पताल इसलिए रेफर करने पर आमादा हो जाता है क्योंकि उनकी रिपोर्ट HIV पॉजिटिव आ जाती है। लाख मनुहार के बाद भी जब वो नहीं माने तो फैसला हुआ लारी कार्डियोलॉजी चला जाए। अब वहां आसानी से एडमिशन नहीं मिलता, लिहाजा सोर्स सिफारिश शुरू की गई। पहला फोन विधान सभा के OSD डॉ रमेश तिवारी को किया। उन्होंने लारी कार्डियोलॉजी के PRO को फोन किया। PRO एडमिट करा पाएगा, सोच के संशय हुआ। मैंने चिकित्सा विभाग के एक विशेष सचिव को फोन किया। इस आशय से कि रजिस्ट्रार भी उनकी तरह PCS सेवा से होंगे या प्रमोट हुए होंगे। उन्होंने न केवल फोन किया, बल्कि पलट के ये भी बता दिया कि जाइए, फोन आ जाएगा और देख रेख ठीक हो जाएगा।
जब आपका अपना कोई गंभीर हो तो मन हर जगह सपोर्ट चाहता है। मैने लखनऊ के लोकल विधायक और स्वास्थ्य मंत्री ब्रजेश पाठक को फोन किया। फोन का रिस्पॉन्स भी मिला और उनकी तरफ से अरुण ने कहा कि CMS से बात हो गई है, आपको कोई परेशानी नहीं होगी। मैं लारी कार्डियोलॉजी पहुंचा। PRO ने पेपर लिया और डॉक्टर के पास पहुंचा। ड्यूटी पर एक लेडी डॉक्टर थीं, उन्होंने कहा पेशेंट ले आइए। मैं तुरंत गोमती नगर के निजी अस्पताल से उन्हें लारी कार्डियोलॉजी शिफ्ट कराने में जुट गया।
एम्बुलैंस सेवा दिख गई तो मन में आया एक बार हमें भी ये प्रयास करनी चाहिए। लिहाजा 108 डायल किया गया। वहां से झटपट एक एंबुलेंस आई लेकिन वो मरीज को लेकर इसलिए लारी कार्डियोलॉजी नहीं आई, क्योंकि उनके वहां नियम है कि नजदीकी अस्पताल में भर्ती कराया जाएगा। वो बार बार लोहिया ले जाने की जिद कर रहा था। मैंने खुद एक बार 108 डायल किया। कई बार फोन होल्ड पर डालने के बाद फोन वाली लड़की ने कहा मैं अपने सीनियर से बार कराती हूं। फिर कई बार फोन होल्ड हुआ। तब भी उनसे बात नहीं हो पाई। एक बार बात हुई तो उसने अपनी सहमति दी। हम अपने रिश्तेदार को किसी तरह लारी कार्डियोलॉजी शिफ्ट करा पाए।
वहां डॉ रविकांत ने मरीज देखा और एक दो जांच कराई। जांच के बाद सीधे 15 दिन की दवा लिखी और कहा, आप घर ले जाइए। घर के बच्चे परेशान हो गए। रोने लगे। मुझे बताया। मैं आनन फानन लारी पहुंचा। डॉ रविकांत से बात की। उन्होंने मुझे भी समझाया, कहा ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि मैं एडमिट रखूं। आप लोग घर ले जाइए। हम लोग उनसे मिन्नत कर रहे थे। मनुहार करने में जुटे रहे। वो नहीं पसीजे। PRO के पास पहुंचा वो साथ में आए तो उन्हें भी रिस्क बता दिया। लिहाजा थक हार कर मंत्री को फोन किया। मंत्री ने रिस्पॉन्स दिया और मुख्य PRO के पास भेजा। मैं भी तीमारदार के साथ मुख्य PRO के पास पहुंचा। PRO मैडम ठहरी, बड़ी अधिकारी। उन्होंने जाल के अंदर से बात की और एक लड़का भेज दिया साथ। उन्होंने भी मंत्री, विशेष सचिव और विधान सभा के OSD के फोन को इतना ही तवज्जो दिया। मुख्य PRO के संदेश वाहक को भी डॉ रविकांत ने समझा दिया। मुझे लगा अब डॉक्टर मंत्री, नेता, अफसर, विधायक और पत्रकार की नहीं सुनता होगा। इसलिए एक डॉक्टर को कॉल किया। उसने दो टूक लहजे में मना किया कि लारी कार्डियोलॉजी के डॉक्टर मनमानी करते हैं। सॉरी भाई।
मंत्री का संदेश आया है, ये सुनकर डॉक्टर ने रात भर रहने की इजाजत दी, लेकिन अलसुबह छह बजे डिस्चार्ज कर दिया। ऑक्सीजन सपोर्ट और 85/43 ब्लड प्रेशर के मरीज को बाहर भेज दिया। परिजनों ने ART सेंटर में नंबर लगाया तो वहां से डॉक्टर ने इमरजेंसी में एडमिट कराया। अब सीताराम पांडेय ट्रॉमा के मेडिसिन विभाग की इमरजेंसी में जीवन और मौत से जूझ रहे हैं। कहानी खत्म।
सवाल यह कि लारी कार्डियोलॉजी का डॉक्टर मनमानी पर आमादा था या फिर सरकार के इकबाल की उनके जैसे डाक्टरों को कोई डर नहीं है। ऑक्सीजन सपोर्ट के मरीज को जबरिया बाहर कर देने की सजा उसे मिलनी चाहिए या फिर ईनाम। इसे मंत्री का फेल्योर कहना चाहिए या नौकरशाही की असफलता। एक मंत्री क्या कर सकता है फोन, सिफारिश और आदेश। इलाज तो डॉक्टर को करना होता है। वो मनमानी कर रहा है तो उसे किसी न किसी का सपोर्ट होगा। क्या शासन में बैठे किसी अफसर के बूते वो इतनी हनक दिखा रहा है या फिर पैसे के दम पर।
सूत्रों का कहना है कि यहां से अधिकांश डॉक्टरों का निजी अस्पतालो से बड़ा साठगांठ है। वो वहां के मरीजों को सीधे भरती करते हैं। इलाज करते हैं और बड़ा पैसा ऐंठते हैं। दवा कारोबारियों से इनकी बड़ी पटती है। ये उनकी महंगी महंगी दवाईयां लिखते हैं और मोटा कमीशन भी वसूल करते हैं। डॉक्टर PRO की नहीं सुनता। डॉक्टर मंत्री की नहीं सुनता। डॉक्टर अफसर की नहीं सुनता। फिर वो अपना निजी अस्पताल क्यों नहीं चलाता? रजिस्ट्रार और कुलपति क्यों तैनात किया जाता है? क्या ये दोनों पद केवल बजट का हिसाब किताब करने के लिए ही होता है? क्या मंत्री के फोन की इतनी भी इज्जत नहीं कि PRO सीधे डॉक्टर से संवाद कर सके? क्या प्राइवेट गार्ड उनकी दलाली के लिए तैनात रहता है, वही पर्चा हाथ में पकड़े तो डॉक्टर देखेगा?
एक कहानी और
कुछ दिन पहले की बात है। स्थानीय विधायक नीरज बोरा के किसी परिजन की तबियत खराब थी। वो स्वयं आए लेकिन डॉक्टरों ने उनसे बहस कर लिया। सभी डॉक्टर एकजुट होकर चिकित्सा का बहिष्कार करने की धमकी देने लगे। अन्दर के मरीजों और उनके परिजनों को जब लगा कि डॉक्टर आंदोलन पर उतारू हो जाएंगे तो वो भी विधायक का विरोध करने लगे। ये देखकर विधायक पीछे हट गए। ये गर्वित गाथा रविकांत के निजी गार्ड ने सुनाई। एक सवाल और … क्या कोई ऐसा धड़ा है, जो अंदरखाने मंत्री को असफल करने में जुटा हुआ है? क्या कोई ऐसा गुट है जो ये कहता फिर रहा है कि मंत्री की n भी सुनोगे तो तुम्हारा कुछ नहीं होगा? सवाल हजारों हैं, जवाब कौन देगा भगवान जानें।