जौं अस करौं तदपि न बड़ाई।
मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥
सदा रोगबस संतत क्रोधी।
बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी।
जीवत सव सम चौदह प्रानी॥
बालि तनय अंगद रणबीरा,
रावण सभा धरेउ पग धीरा।
कोउ न सक पग अंगद टारा,
तब रावण निज हाथ उतारा॥
अंगद कहेउ दशानन, शीश न मोहिं झुकाहु।
चरण पकड़ श्रीराम के, जन्म सफल करवाहु॥
त्रेता में शान्ति दूत बन अंगद
ने रावण का मद तोड़ दिया,
दस मुकुट दशानन के भूमि परे,
अंगद ने राम सभा में फेंक दिया॥
द्वापर में श्री कृष्ण स्वयं
युद्ध टालने की ख़ातिर,
कुरु सभा में गए, पांडवों
के शान्ति दूत बन कर ।
दुर्योधन ने कहे अहंकार वश,
अपशब्द उन्हें अपमानित कर,
त्रिलोकनाथ श्रीकृष्ण को उसने,
अपना मद दिखलाया क़ैद कर॥
ज़ंजीरें टूट गयीं, दुर्योधन का
अहंकार सब ध्वस्त हो गया,
पाँच गाँवँ नहीं कुरु साम्राज्य
सारा का सारा चला गया॥
रावण के एक लाख सुत एवं
सोने की लंका सब नष्ट हुये,
धृतराष्ट्र के सौ बेटे एवं सैनिक
अठारह अक्षौहिणी सब नष्ट हुए।
ज़र, ज़मीन, नारी की ख़ातिर,
राम- रावण, महाभारत युद्ध मचे,
अंतिम चिता में मुखाग्नि देने को,
उस पर रोने को भी कोई नहीं बचे॥
शान्तिदूत में युद्धोन्माद नहीं, युद्ध
रोकने के महायोद्धा की ताक़त होती है,
उसको अपमानित करना हर युग में,
सारे विनाश का कारण होती है ॥
शान्तिदूत श्रीकृष्ण, अंगद सी क्षमता
व ताक़त आज महाभारत रोकने की,
इक्कीसवीं सदी के इस भारत में है,
आदित्य दिखलाई देती नही किसी की।