लखनऊ। आजकल योग एवं योगाभ्यास चलन, प्रचलन एवं फैशन में है। आधुनिक योग शिविर एवं योग केंद्र शनैः शनैः व्यवसायिक रूप ले रहे हैं और इन्हें सहज रूप से सर्वत्र सुलभ कराने के प्रयास जारी हैं। इस परिवेश में योग की समस्त विधाएं शारीरिक स्वास्थ्य एवं सौष्ठव का पर्याय बनती जा रही हैं। फलस्वरूप योग एवं योगाभ्यास का स्वरूप एवं चिंतन अत्यंत संकुचित एवं सीमित होता जा रहा है। प्राचीन काल में जब हमारे ऋषि मुनि जंगलों में रहते थे और आधुनिक चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी, तब उन्होंने अपने आसपास के प्राकृतिक परिवेश, जीव -जगत, वनस्पति -जगत की विशेषताओं का सूक्ष्मता पूर्वक गहन मनन एवं विश्लेषण किया और शरीर के समस्त अंगों एवं प्रत्यंगों को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक शारीरिक क्रियाकलापों एवं औषधियों की खोज की। इसी क्रम में स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर के विभिन्न वाह्य एवं आंतरिक अंगों के लिए हितकर आसनों का अभ्यास भी अपनाया। तीर की तरह आकाश की ओर उन्मुख ताड़ के वृक्ष से ताड़ासन, विराट व विशाल पर्वत की चोटियों से पर्वतासन, सर्प को निगल कर उसे पचाने की क्षमता रखने वाले मयूर से मयूरासन, विष को शरीर में धारण करने के बावजूद उसके दुष्प्रभाव से मुक्त भुजंग से भुजंगासन, शव के समान शरीर को निष्प्राण- सा छोड़कर शरीर को शिथिल करने वाले श्वास से शवासन आदि आदि विधाओं का अभ्यास शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के लिए अपनाया। जीव जगत से शलभाषन, कुक्कुटासन, मर्कटासन, गोमुखासन, आसपास के परिवेश से हलासन, नौकासन, धनुरासन, शरीर के विभिन्न वाह्य एवं आंतरिक अवयवों पर प्रभाव डालने वाले पद्मासन, शवासन, सिद्धासन, वज्रासन, सर्वांगासन आदि इसी क्रम में विकसित हुये।
यह सही है कि स्वस्थ शरीर ही हमारी अधिकांश गतिविधियों एवं क्रियाकलापों का मूल आधार है, लेकिन योगाभ्यास की उपरोक्त विधाएं साध्य न होकर साधन मात्र ही है। योग का वास्तविक स्वरूप महर्षि पतंजलि ने योगश्चित्तवृत्ति निरोधः के रूप में परिभाषित किया है अर्थात् चित्त की वृत्तियों को वश में करना योग है। पढ़ने व कहने में यह अत्यंत आसान सा लगता है, परंतु क्या हमने कभी गंभीरतापूर्वक जानने का प्रयास किया है कि हमारे शरीर में चित्त कहां पर स्थित है? और उसकी वृत्तियां, स्वभाव अथवा आदत क्या है ? बिना इसे समझे हम चित्त कीवृत्ति के निरोध की शुरुआत कैसे करेंगे? हमारे मनीषियों ने योग साधना के संदर्भ में अंतःकरण चतुष्टय अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार का उल्लेख किया है। हमारे अंतःशरीर का प्रमुख संचालक मन है, जो अत्यंत गतिमान एवं चंचल है। मन के संकल्प विकल्प में अच्छे से अच्छे व बुरे तथा घृणित विचार व भावनाओं का चक्र निरंतर चलता रहता है। मल से लेकर मोहनभोग तक प्रतिपल विचरण करने वाले मन को नियंत्रित करना कितना दुःसाध्य हो सकता है, कल्पना ही की जा सकती है। मन हमारी इंद्रियों का राजा है। वह कर्मेंद्रियों व ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श सुख का उपभोग करता है। अंतःकरण चतुष्टय का मन निरंतर संकल्प एवं विकल्प में तल्लीन रहता है। इंद्रियों के सभी विषयों का रसास्वादन इंद्रियों का राजा मन ही करता है। मन निरंतर संकल्प एवं विकल्प में तल्लीन रहता है। बुद्धि संकल्प विकल्प को निश्चय में बदलती है और चित्त उसकी प्राप्ति का उपाय ढूंढता है तथा अहं भाव अर्थात् मैं इसे प्राप्त करके उपलब्ध कराता है। उपरोक्त क्रिया से प्राप्त वस्तु से सुख का अहसास होने पर वासना का जन्म होता है। कालांतर में यह वासना इच्छा के रूप में परिवर्तित होकर पुनः संकल्प को जन्म देती है। इस प्रकार कामना से लेकर वासना और वासना से आरंभ होकर कामना तक का चक्र चलता रहता है।
संकल्प से वासना तक की यात्रा में जिस सुख का हम अनुभव करते हैं, उसे मूलतः श्रेय एवं प्रेय दो श्रेणियों में रखा गया है। इन दोनों से ही हमें सुख एवं आनंद की अनुभूति होती है। श्रेय अथवा श्रेष्ठ या श्रेयस्कर विषय हमें वास्तविक, आंतरिक व स्थायी सुख- शांति प्रदान करते हैं जबकि प्रेय अर्थात् इंद्रियों को प्रिय लगने वाले विषय भोग क्षणिक, अस्थायी सुख प्रदान करने वाले हैं। हम संसारी शरीरी जीव भोग विलास का आनंद नहीं उठाते हैं, बल्कि क्षणिक सुख व आनंद देने वाले कर्म व विचार हमारे शरीर व मन का शोषण करते हैं। भोग – लिप्सा व भौतिकता, अश्लीलता असहिष्णुता व प्रमाद को बढ़ावा देती है, जो हमारी सामाजिक, पारिवारिक व व्यक्तिगत गतिविधियों तथा क्रियाकलापों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
अंतः करण चतुष्टय मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार से सूक्ष्म अंतरात्मा है, जो हमें उचित अनुचित, नैतिक अनैतिक, श्रेय व प्रेय के प्रति किसी न किसी रूप में पल भर के लिए सचेत करती रहती है। अंतरात्मा के संकेत को समझने व उस पर अमल करने के लिए विषय वासनाओं पर लगातार विवेक का अंकुश लगाने की आवश्यकता है, अन्यथा हमारी स्थिति महाभारत के पात्र दुर्योधन की हो जाती है, जो कहता है कि धर्म क्या है, उचित क्या है, यह मैं जानता हूं लेकिन उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं, रुचि नहीं। अधर्म क्या है, अनुचित क्या है, यह भी मैं जानता हूं लेकिन उससे निवृत्ति अथवा छुटकारा नहीं प्राप्त कर पाता हूं। फलस्वरूप दुर्योधन अंतरात्मा के संकेत के बावजूद एक के बाद एक लगातार गलत निर्णय लेता है, अन्यायपूर्ण कार्य में प्रयुक्त रहता है और अंततः कुटुम्बजनों, सहायकों, बंधु बांधवों सहित स्वयं का भी नाश कर लेता है। यह एक असहाय स्थिति है ।उपरोक्त स्थिति चित्त की वृत्तियों के निरोध न होने से ही उत्पन्न होती है।
अतः अपने विवेक को जागृत कर चित्त की वृत्तियों को प्रेय की ओर से क्रमशः हटाते हुए श्रेय की ओर सतत् उन्मुख करना ही योग का वास्तविक उद्देश्य है। पनपा