के. विक्रम राव
अगला अनुभव मेरा हुआ, बिल्कुल निजी और गहरा था। प्रजातांत्रिक गणराज्य में कोर्ट द्वारा गैरकानूनी करार देने के बाद भी प्रधानमंत्री गद्दी से चिपकी रहीं, तो यह अमान्य है। उनका विरोध होना चाहिए। आजादी जिसका मतलब है, उसका यह तकाजा है। मुझ जैसे साधारण श्रमजीवी पत्रकार ने इस दूसरी जंगे-आजादी में प्राणपण से शिरकत की। आरोप था डाइनामाइट से आतंक फैलाने का। पिताश्री की 1942 की याद ताजा हो आयी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण दूसरे गांधीजी थे। मैं तब लोकतंत्र प्रहरी बना। एमर्जेंसी राज था। मैं पांच जेलों में तेरह महीने रखा गया।
मुझ पत्रकार को बडौदा सेंट्रल जेल की तन्हा काल कोठरी में नजरबंद रखा गया था। सर्वाधिक अभाव अखरता था दैनिक अखबार न मिलना। कि “टाइम्स आफ इंडिया” के संवाददाता होने के नाते रोज 15 से 18 अखबार पढ़ता था। अब जीवन बड़ा अवसादग्रस्त हो गया था। यूं भी हम डायनामाइट केस के अभियुक्त को संजाए मौत तय थी। पर जीते जी पत्रकार को अखबार न मिलना ही मौत सरीखा हो गया था। जेलर मोहम्मद मलिक से मैंने प्रार्थना की कि अखबार दिलवा दें।
तभी मैंने जाना एक कर्मठ स्वयंसेवक के बारे में। वे मुझ संकटग्रस्त, पीड़ित नागरिक के बड़े मददगार थे। इसीलिए याद हैं। वे एक स्वयंसेवक तथा लोकतंत्र हेतु जनसंघर्ष में संघर्षरत थे। बात मई 1976 की है। संघ का यह कर्मठ तरुण स्वयंसेवक बड़ौदा में तैनात था। दायित्व था कि जेल में बंद लोकतंत्र प्रहरियों के परिवार की देखभाल करना। जेलर मालिक साहब ने बड़ौदा के संघ कार्यालय तक मेरी दुख की गाथा पहुंचा दी। फिर एक तरुण रोज जेल में समाचारपत्र के बंडल दे जाता था। मुझे पता भी न चलता कि वह तरुण कौन था ? पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती पर (11 अक्टूबर 2015) थी। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में लोकतंत्र-प्रहरियों का सम्मान आयोजित था। स्व. कल्याण सिंह जी भी सम्मानित हुए थे। केंद्रीय मंत्री वेंकय्या नायडू (बाद में उपराष्ट्रपति) समारोह के आयोजक थे। मुझे ताम्रपत्र देते नरेंद्र मोदी ने कहा : “विक्रमभाई आप नहीं जानते होगें, मैं ही बड़ौदा जेल में समाचार पत्र दे जाता था।” मैं प्रफुल्लित हो गया। इतने करुणामय हैं नरेंद्र मोदी। गौरव महसूस होता है कि मेरे स्व. पिता और मैं दोनों भारत को आजाद और लोकतांत्रिक बनाए रखने में क्रियाशील रहे।