छिति, जल, पावक, गगन, समीर,
पाँच तत्व मिल बना अग़म शरीर,
सत, रज, तम गुण मानव तन के,
मन रहता इनसे ही अति अधीर ।
गीता ज्ञान यही देता है, क़र्म योग
कर देता है जीवन का नीर छीर,
भौतिक चका-चौंध का घना
तिमिर उपजाता है सुख-पीर ।
राग, द्वेष, इच्छा, घमंड, सुख-
दुःख, धैर्य पनपें मानव मन के,
परमात्मा अंश बसे, आत्मा
बनकर इस नश्वर तन में।
सत्कर्म और दुष्कर्म किये जाते,
तन- मन के अपने ही विवेक से,
जीवन काया इस मानव जन्म की,
उत्तम होती सब जीवों के जीवन से।
क़र्म तो करे मानुष तन मन के,
ईश्वर अंश आत्म- विवेक से,
अपनी अंतर आत्मा के दर्शन
करना पड़ता अपने ही विवेक से।
आत्म परिष्कृत होने का इस
जीवन का सुंदर लक्ष्य बने,
मोक्ष तभी है जन्म से मिलता,
धर्म, अर्थ से जब काम करे।
पर हम पाश्चात्य दिखावे की
बनावटी दुनिया से ठगे गये,
इधर के रहे न उधर के, त्रिशंकु
बन कर, हम मूरख ही बने रहे।
समृद्धि संस्कृति, अपना गौरव,
इतिहास अलौकिक भूल चले,
आधुनिकता की भौतिक़ता में
आदित्य सनातनी छले गये।