राजेश श्रीवास्तव
अयोध्या में राम मंदिर के भव्य उद्घाटन की तारीख तय हो गयी है-22 जनवरी 2024 । इस तारीख में जो वर्ष जुड़ा है, यह वर्ष ही सारे प्रकरणों का कारण है। कभी विपक्ष भाजपा से पूछता था कि राम मंदिर वहीं बनायेंगे लेकिन तारीख नहीं बतायेंगे तो अब भाजपा ने तारीख बता दी है। वह भी ऐसी तारीख जिसके सप्ताह भर बाद से ही देश में आदर्श आचार संहिता लोकसभा चुनाव के मद्देनजर लागू हो जायेगी। यानि यह वह महोत्सव होगा और भाजपा का सबसे बड़ा इवेंट जिसको लेकर भाजपा चुनाव में झूमेगी। कभी भाजपा जिस मुद्दे राम मंदिर को लेकर ही दो से प्रचंड बहुमत तक पहुंची थी, एक बार फिर इसी मुद्दे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तीसरी पारी का अमोघ अस्त्र बना लिया है। दिलचस्प यह भी है कि भाजपा की पिच पर ही खोलने का काम अब मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी कर रहा है। जहां भाजपा कह रही है कि मंदिर उसने बनवाया। तो कांग्रेस यह कह रही है कि मंदिर तो सुप्रीम कोर्ट से बना ।
लेकिन राम मंदिर का ताला खुलवाने का काम और मूर्तियां रखवाने का काम हमारी पार्टी ने किया। मतलब साफ है होड़ लगी है क्रेडिट लेने की । इसके पीछे वजह है देश का 8० फीसद हिंदू वोट। भाजपा को पता है कि राम मंदिर ऐसा मुद्दा है जो भले ही आस्था का विषय हो लेकिन उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि उत्तर भारत और खासकर हिंदी पट्टी वाले राज्यों में राम मंदिर का खासा क्रेज है और कहीं न कहीं सबको लगता है कि भाजपा ने इसकी लड़ाई लड़ी है। भले ही परिणाम सुप्रीम कोर्ट से आया हो लेकिन सभी हिंदुओं के मन में इस मुद्दे के प्रति भाजपा के लिए साफ्ट कार्नर है। यूं ही नहीं भाजपा हिंदू-मुस्लिम की राजनीति करती है। जब हिंदुओं के ब्रांड एम्बेसडर उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुलकर कहते हैं कि मैं मस्जिद के उद्घाटन पर नहीं जाऊंगा तो हर हिंदू उनको सिर-माथो लगाता है। यानि यह साफ है कि भाजपा जानती है कि हिंदुओं के चलते उसे सत्ता में आने से कोई रोक नहीं सकता है।
भाजपा जानती है कि केवल विकास से चुनाव नहीं जीता जा सकता। अक्सर भावनात्मक मुद्दे की भी जरूरत पड़ती है. ‘इंडिया शाइनिग’ नारे के बावजूद, 2००4 के चुनावों में हार के बाद पार्टी को इसका एहसास हुआ। जब लालकृष्ण आडवाणी तीसरी बार भाजपा अध्यक्ष बने, तो उन्होंने कहा कि पार्टी सुशासन और चुनावी नतीजे के बीच सीधा संबंध मानने में गलत थी। भाजपा की हाशिए से राजनीतिक मंच के केंद्र तक की यात्रा में, हमने कई उम्मीदें जगाईं, कुछ बेहद भावनात्मक। हम उनमें से कुछ को पूरा करने में असमर्थ रहे। अयोध्या में एक भव्य मंदिर का निर्माण एक ऐसा मुद्दा था, उन्होंने कहा था। मोदी आडवाणी की रथयात्रा का हिस्सा थे जहां उन्होंने लोगों की नब्ज पहचानना सीखा। 30 सितंबर, 1990 को शुरू हुई अपनी रथयात्रा के साथ आडवाणी ने अयोध्या मुद्दे को भारत के राजनीतिक विमर्श में सबसे आगे ला दिया। मूल सारथी भले ही राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गया हो, लेकिन उनकी पहल का प्रभाव देश पर स्थायी प्रभाव पड़ा है।
देश की राजनीति और राष्ट्रीय चेतना। यह मोदी ही थे जिन्होंने उस सपने को साकार किया। जबकि राम मंदिर भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक-सांस्कृतिक परियोजना रही है, वह मतदाताओं के साथ अपने जुड़ाव को गहरा करने के प्रयास में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, उज्जैन में महाकाल कॉरिडोर और करतारपुर कॉरिडोर जैसे अन्य धार्मिक स्थलों को विकसित करने के लिए भी उत्सुक है। इसीलिए भाजपा फूंक-फूंक कर बयान दे रही है कि राम मंदिर भाजपा के लिए कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है। यह इसकी प्रतिबद्धताओं में से एक है। सिर्फ भाजपा ही नहीं हर दल इसके साथ खड़ा है कोई राम मंदिर के विरोध में बोलने का साहस नहीं कर पा रहा है। इसका मतलब है कि अन्य राजनीतिक दलों के पास इसका समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अधिकांश राजनीतिक दलों ने राम मंदिर के निर्माण की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया।
उदाहरण के लिए, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में राम मंदिर की प्रतिकृति बनाई और आरती का आयोजन किया। आगामी चुनावों के लिए भाजपा का हथियार सांस्कृतिक और आध्यात्मिक राष्ट्रवाद द्बारा समर्थित कल्याणवाद और विकास है। जबकि विपक्ष को लगता है कि दूसरे मुद्दे उठाकर मसलन समाजवादी पार्टी पीडीए की बात करती है। उसको लगता है कि पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक उसके साथ ही। यानि सपा को मालुम है कि अगड़ा उसके साथ नहीं जायेगा और वह भाजपा के साथ है। दिलचस्प यह भी है कि सपा पीडीए का ऐलान कर चुकी है। लेकिन उसने घोसी में अभी ठाकुर प्रत्याशी सुधाकर सिंह को उतारा और वह उसके विधायक हैं। यानि पीडीए सिर्फ बयानों में है और अगर उसे लगता है कि अगड़ा उसको जिताने में सक्षम है तो पीडीए सिर्फ नारों और बयानों में रहेगा। अब देखना है कि 2०24 में राम मंदिर से मिली ऊर्जा इंडिया गठबंधन को हवा में उड़ायेगी या फिर लोगों की आस्था सियासत पर भारी नहीं पड़ेगी। परिणाम यह भी बतायेंगे कि क्या हिंदी पट्टी राज्यों ने सियासत और धर्म की लकीर का अंतर समझ लिया है।