2568वीं त्रिविध पावनी बुद्ध पूर्णिमा, वैसाख पूर्णिमा (वेसाक्कोमासो) के दिन राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ। कपिलवस्तु नगर के राजा सुद्धोदन थे और महारानी महामाया थी। महामाया के प्रसव की घड़ी नजदीक आई, इसीलिए महामाया ने राजा से कहा कि हे राजन् मुझे प्रसव के लिए अपने मायके देवदह जाने की इच्छा है। देवदह नामक स्थान कपिलवस्तु की पूर्व दिशा में कपिलवस्तु से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह कोलियों के राजा अंजन की राजधानी थी। महारानी महामाया की इच्छा पूरी करने के लिए राजा सुद्धोदन ने अनुमति देकर प्रवास की व्यवस्था करने की आज्ञा थी। दास -दासी, पालकी, अनेक सैनिक लेकर स्वयं अमात्य- महामात्य रानी के साथ देवदह जाने के लिए रवाना हुए।
कपिलवस्तु और देवदह के बीच नेपाल में हिमालय की तराई के जंगल में लुंबिनी नामक एक सुंदर वन आता है। वहां साल वृक्ष प्रचुरता में है। अन्य वृक्षों में फल वाले, पुष्प युक्त सुगंध बिखरने वाले पेड़ है। चारों ओर सुगंध ही सुगंध है। यह देखकर उस स्थान पर कुछ समय के लिए आराम करने के उद्देश्य रानी महामाया ने वहां रुकने का इरादा व्यक्त किया। पालकी से नीचे उतरकर थोड़ी दूर पर स्थित एक साल वृक्ष के पास में पैदल गईं। साल वृक्ष की शाखा वायु के साथ हिंडोले ले रही थी। रानी ने उसमें से एक डाली को पकड़ लिया। परंतु ज्यों ही वह शाखा ऊपर उठी उसके झटके से रानी को प्रसव क्रिया की अनुभूति होने लगी। सेविकाओं ने तुरंत सेवा कार्य आरंभ कर दिया। रक्षक स्त्रियों ने झट से रानी के चारों ओर चादर तान दी, रानी ने उगते सूरज को साक्षी मानकर एक सुपुत्र को यानी राजपुत्र को जन्म दिया। वह दिन था वैशाख पूर्णिमा का पुष्प नक्षत्र था दिन था मंगलवार। ईसा पूर्व 563 का साल था। इसके बाद रानी अपने बालक और दल- बल के साथ कपिलवस्तु लौट आयीं।
संयोग की बात है जिस दिन राजकुमार सिद्धार्थ और राजकुमारी यशोधरा का मंगल परिणय संपन्न हुआ वह दिन भी वैशाख पूर्णिमा का ही दिन था। सिद्धार्थ गौतम का जन्म लुंबिनी में हुआ लेकिन “भगवान बुद्ध” का जन्म बोधगया में हुआ। यह चौथी घटना विश्व में पवित्र मानी जाती है। इसके पूर्व की तीनों घटनाएं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। लेकिन यह चौथी घटना विश्व की मानव जाति के लिए बहुत गौरवशाली है। केवल मानव जाति के लिए ही नहीं बल्कि बल्कि पशु- पक्षी, वनस्पति, सूक्ष्मजीव, सजीव- निर्जीव इन सभी के लिए कल्याण का मार्ग दिखाने वाले तथागत भगवान, अरहंत, सम्यकसम्बुद्ध को “ज्ञानप्राप्ति” हुई।
भगवान बुद्ध ने बोथिवृक्ष की शीतल छांव में कुछ समय व्यतीत किया। यहां पर प्रतीत्यसमुत्पाद का अनुलोम और प्रतिलोम के रूप में मनन और परीक्षण किया। भगवान अनिमेष बोधिवृक्ष की ओर देखते रहे। इसी स्थान पर खड़े हो, बोधि वृक्ष को सप्ताह भर देखते रहे। इस स्थान पर इस समय अनिमेष चैत्य महाबोधि महाविहार बना हुआ है। महाबोधि महाविहार बोधगया की उतरी दीवार के साथ चक्रमण करते रहे। इस स्थान पर आजकल एक चबूतरा और उसके ऊपर पत्थर के साथ पद्म -पुष्प बने हुए हैं, भगवान ने रत्न मंडप वाले स्थान पर साधना करते हुए कुछ समय बिताया। यहां उन्होंने अभिधम्म का अभ्यास किया।
भगवान बुद्ध ने अजपाल वृक्ष के नीचे ध्यान भावना करके बिताया। इसी वृक्ष के नीचे भगवान ने ब्रह्म विहार भावना, करुणा, मैत्री, अपेक्षा, और मुदिता से प्रेरित होकर अपने ज्ञान को जन- जन तक पहुंचाने का निर्णय लिया। कुछ समय मुचलिंद झील वाले स्थान पर ध्यान लगाया था। यहीं पर मार ने तूफान व वर्षा द्वारा उनकी समाधि को भंग करने का असफल प्रयास किया गया था। उसी समय झील के निकट रहने वाले नागराज मुचलिंद वहां आए और भगवान के शरीर को लपेटकर उनके सिर पर सात फनो द्वारा छाया की। इससे भगवान बिना किसी बाधा के समाधि में लीन रहे। भगवान बुद्ध ने राजायतन वृक्ष के नीचे भी कुछ समय व्यतीत किया।
अतः यह घटना “न भूतों न भविष्यति” के रूप में विख्यात एवं महत्वपूर्ण है भगवान बुद्ध को वैशाख पूर्णिमा के ही दिन ज्ञान प्राप्त हुआ, वैशाख पूर्णिमा के ही दिन भगवान बुद्ध का 80 वर्ष की आयु में महापरिनिर्वाण हुआ। यह तीनों घटनाएं एक ही दिन, वैशाख पूर्णिमा को हुई थी, इसीलिए इसे त्रिविध पावनी कहते हैं। भगवान बुद्ध ने 45 वर्षों तक अविरल अपने पवित्र धम्म की देशना की। बौद्ध धम्म में जो गुण हैं वे श्रेष्ठ है, सत्य की खोज, उत्कृष्ट नैतिक गुणों की शिक्षा, कारण और कार्य की पारस्परिक अभिन्नता का प्रतीत्यसमुत्पाद चक्र, चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग आदि। इन गुणों के कारण बौद्ध धम्म अतिशीघ्र सर्वत प्रचारित हो गया।
अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक तथागत ने प्रचार किया, चारिका किया। भगवान धम्मदूत की तरह सर्वत्र विचरण करने लगे थे। श्रावस्ती और राजगृह उनके धर्म प्रचार के मुख्य स्थान थे। उन्होंने 25 वर्षावास श्रावस्ती में पूरे किये। उन्होंने अपने जीवन के 46 वर्षवासों में से 25 वर्षावास श्रावस्ती में इसलिए बिताएं कि, उन्हें श्रावस्ती की प्राकृतिक छटा सबसे प्रिय थी। उन्होंने 24 बार राजगृह में आगमन किया। कपिलवस्तु एवं वैशाली भी छह बार गये। इसके अलावा वे अनेक स्थानों पर गये। जैसे-उकट्टा,नादिका,अस्सपुर, घोसिताराम, नालंदा,सूनापरांत आदि स्थान पर भी गये। भगवान प्रचार के लिए ओपसाद, इच्छानंगल, चांडालकप्प, कुशीनगर गये थे। इस तरह वे संपूर्ण बिहार और उत्तर प्रदेश गये थे। उन्होंने पदयात्राएं की थी। यात्रा के समय तथागत तीन चीवर अपने साथ रखते थे। दिन में एक बार भोजन करते थे।
प्रातः घर- घर जाकर भिक्षा लेते थे। रात हो जाने पर किसी वृक्ष के नीचे विहार करते थे। बाद में जब उपासकों ने उन्हें विहार बना कर दे दिया, तब वह विहार में निवास और वर्षावास पूरे करने लगे थे। वहां विहार कर वे अनुयायियों को प्रवचन देते थे। भिक्षुओं को देशना करते। जिसके मन में धम्म के बारे में शंका होती, उनकी शंकाओं का समाधान करते। विरोधियों के तर्क का उत्तर देते थे। जिनकी उन पर अगाध श्रद्धा थी, उन्हें वे सुमार्ग दिखाते थे।