दो टूक: …जरा चिंतन तो करिये चुनाव किस ओर जा रहा है

राजेश श्रीवास्तव

लोकसभा चुनाव में छह चरण का मतदान पूरा हो चुका है। एक जून को सातवें और आखिरी चरण के लिए वोट डाले जाने हैं। चुनाव की शुरुआत में मुद्दे के नाम पर मोदी बनाम विपक्ष लग रहा था, लेकिन अलग-अलग चरण के मतदान के बीच इस चुनाव में कई मुद्दे आए। छह चरण के मतदान के बाद दो मुद्दे सबसे ज्यादा चर्चा में रहे। पहला आरक्षण का मुद्दा, जब प्रधानमंत्री ने यह कहना शुरू किया कि विपक्ष सत्ता में आया तो पिछड़ों का आरक्षण लेकर मुस्लिमों को दे देगा। तब से यह ज्यादा चर्चा में रहा। दूसरा मुद्दा जो सबसे ज्यादा चर्चा में रहा, वह है संविधान का मुद्दा। इसके साथ ही हिन्दू-मुसलमान का मुद्दा भी चर्चा में रहा। इसके अलावा खटाखट-फटाफट राशन जैसे मुद्दे भी चर्चा में आए।
शुरुआत में लगा था कि यह चुनाव दो बिंदुओं पर होगा। राशन और राम मंदिर, लेकिन बाद में दोनों पक्ष से अलग-अलग मुद्दे आते गए। फ्री बिजली, शिक्षा से लेकर पांच की जगह 10 किलो अनाज देने की बात तक सामने आई। पहली बार ऐसा हो रहा है, जब दोनों पक्ष अपनी-अपनी बातों पर स्थिर नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने जैसे मंगलसूत्र का जिक्र किया तो वह चर्चा में आ गई। राहुल गांधी ने जब खटाखट पैसे आने की बात उठा दी वो चर्चा में आ गई। जिस तरह से राहुल गांधी और कांग्रेस ने जो पिच बनाई, उस पर भाजपा को आने से बचना चाहिए था। इन सबके बाद भी लगता है कि कोई ऐसा एक मुद्दा नहीं जो पूरे चुनाव को प्रभावित करता।

अगर पिछले दो चुनावों की बात करें तो 2014 में यूपीए सरकार की विफलताएं और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे रहे। 2019 में सर्जिकल स्ट्राइक जैसा मुद्दा हावी रहा। इस चुनाव में ऐसा कोई मुद्दा नहीं है। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री के पास कोई मुद्दे नहीं हैं तो राहुल गांधी की भी यही स्थिति है। अगर कोई पार्टी अपने घोषणापत्र में किसी बात का जिक्र करेगी तो उस चर्चा तो होगी ही। राहुल गांधी ने लगातार अल्पसंख्यक की बात की तो उस पर चर्चा तो होगी ही। कलकत्ता हाईकोर्ट का जो फैसला आया है, उसमें सरकारों ने जो किया वह मुद्दा तो बनेगा ही। इस चुनाव को अगर हम इस रूप में देखते हैं कि बड़े मुद्दे नहीं हैं तो यह हमारी भूल होगी। मुद्दें हैं लेकिन नेता उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं और जनता खुद को ठगा महससू कर रही है।

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राम मंदिर साल 1988 के बाद हर चुनाव में मुद्दा रहा है। कभी मुखरता से कभी थोड़ा कम चर्चा के साथ। 22 जनवरी को जब प्राण प्रतिष्ठा हुई, उसके बाद लग रहा था कि इस बार चुनाव में राम मंदिर बड़ा मुद्दा होगा। इसलिए जब भाजपा ने 400 पार का नारा दिया तो पूरी बहस इसके आसपास आ गई थी, लेकिन आज जब हम बात करते हैं तो दोनों तरह के नरेटिव हैं। 300 वाले लोग भी हैं दूसरी तरफ 250 आएंगी की 220 आएंगी 230 आएंगी इस पर बहस शुरू हो गई है। यह चर्चा क्यों शुरू हुई, इसे समझना होगा। सबसे बड़ा सवाल ये है कि पूरे लोकसभा चुनाव में क्या मोदी की गारंटी चलेगी या राहुल का न्याय लोग स्वीकार करेंगे। क्या राम मंदिर पर संविधान में बदलाव की आशंका भारी पड़ेगी या विकसित भारत, समान नागरिक संहिता का वादा और हिदुत्व के नारे अपना असर दिखाएंगे या बेरोजगारी, महंगाई, जातिगत जनगणना, अग्निवीर, महिला सुरक्षा और किसानों को एमएसपी की गारंटी जैसे मुद्दे दिल्ली की सत्ता बदलने का रास्ता तैयार करेंगे। इसका फैसला चार जून को लोकसभा चुनावों के नतीजे तय करेंगे।

प्रधा

इन लोकसभा चुनावों में महिला सुरक्षा और सम्मान भी एक मुद्दा है। पहले प. बंगाल में संदेशखाली की शर्मनाक घटना को मुद्दा बनाकर भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी समेत पूरे इंडिया गठबंधन को घेरा। लेकिन कर्नाटक का हासन कांड, जिसमें आरोपों के घेरे में भाजपा के सहयोगी दल जनता दल(एस) के प्रथम परिवार देवेगौड़ा परिवार सदस्य प्रांजल रेवन्ना और उनके पिता एच डी रेवन्ना हैं, ने भाजपा को बचाव की मुद्रा में ला दिया। कांग्रेस ने हासन कांड के साथ साथ मणिपुर और महिला पहलवानों के मुद्दे को भी जोड़ दिया है। अब महिला सुरक्षा और सम्मान पर पक्ष विपक्ष एक दूसरे पर हमलावर हैं।

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सवाल है कि चुनाव किस ओर जा रहा है। क्या हर चुनाव में अपना विमर्श चलाकर माहौलबंदी करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस चुनाव को भी हिदुत्व और धार्मिक ध्रुवीकरण के अपने पुराने बहु परीक्षित सियासी एजेंडे पर लाकर उसे केंद्रित करने में कामयाब हो रहे हैं या फिर चुनाव पूरी तरह से विकेंद्रित होकर स्थानीय समीकरणों, मुद्दों और राहुल गांधी द्बारा उठाए जा रहे जातीय जनगणना, पांच न्याय जैसे वादों और इरादों के इर्द गिर्द घूम रहा है। चुनाव प्रचार की रैलियों और रोड शो में सारे दल एक से बढ़कर एक दिख रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ़ पिछले दो चरणों में मतदाता उदासीन दिखा।

जमीन पर भी चुनावों में इस बार वैसी लहर या हवा नजर नहीं आ रही है जो साल 2014 और वर्ष 2019 में साफ दिखाई देती थी और जिस पर सवार होकर भाजपा व नरेंद्र मोदी ने दो बार सरकार बनाई। जहां पिछले दोनों लोकसभा चुनावों में बदलाव, राष्ट्रीय सुरक्षा, हिंदुत्व की चाशनी में राष्ट्रवाद की घुट्टी और हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण जैसे राष्ट्रीय विमर्श और केंद्रीय मुद्दों का जोर रहा। उन दोनों चुनावों में मतदाताओं ने न जाति देखी न दल, सिर्फ देखा तो नरेंद्र मोदी का चेहरा और भरोसा किया तो उनके वादों और इरादों पर। लेकिन इस बार का चुनाव किसी एक या दो राष्ट्रीय मुद्दों पर न होकर पूरी तरह विकेंद्रित हो गया है।

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हर राज्य हर लोकसभा क्षेत्र में अलग-अलग मुद्दे अलग-अलग समीकरण और परिस्थितियों का जोर है। कहीं सांसदों के ख़िलाफ़ गुस्सा है तो कहीं जातीय समीकरण भारी हैं। इस चुनाव में कांग्रेस के विमर्श पर भाजपा और प्रधानमंत्री रक्षात्मक होकर जवाब दे रहे हैं। अब चार जून को देखना है कि इन मुद्दों और समीकरणों पर जनता किसके साथ जाती है। 400 पार होगा या 300 पार। बहुमत मिलेगा या विपक्ष को मिलेगी संजीवनी। अगर 2014 या 2019 जैसे परिणाम आते हैं तो विपक्ष की शक्ति में जबरदस्त ह्रास होगा।

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