लमही! आजमगढ़ वाराणसी मार्ग पर महान कथाकार मुंशी प्रेम चंद का यह गांव वाराणसी से महज 7-8 किमी पहले लबे सड़क स्थित है। इनके वंशज अब प्रयागराज के वाशिंदे हो चुके हैं लेकिन उनकी शिनाख्त लमही गांव से ही है। लमही जाने की बड़ी उत्सुकता थी क्योंकि उस गांव को देखने की चाहत इसलिए थी कि मुन्सी प्रेम चंद की लगभग सभी कहानियों में गांव और उसका परिवेश,वहां के लोग और उनके जानवर मुख्य किरदार में होते थे। मुंशी प्रेम अपने गांव के कूंए पर बैठ कर लोगों से मिलते थे,बातें करते थे और इसी में वे अपनी कथा ढूंढ लेते थे।
“दो बैलों की जोड़ी” किसान के कितने उपयोगी है इसकी व्याख्या उन्होंने शब्दों के जिस शिल्पकारी से की है उसका कोई जोड़ नहीं है। और जब उसी बैल को कोई मंगनी मांग कर ले जाता था तो उस वक्त की बैलों पर गुजरी यातना के विवरण का भी कोई जोड़ नहीं है। उधार के सामानों की वह चाहे वस्तु हो या पशु उधार मांगने वाला उसकी कितनी हिफाजत करता है,इस सौतेले व्यवहार का पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी है दो बैलों की जोड़ी! बहरहाल मुंशी प्रेम चंद के गांव जाकर घोर निराशा हुई। इसलिए आकाश से कहीं ऊंचे इस कथाकार का गांव में स्थित स्मारक बहुत छोटा व उपेक्षित है। गांव में मुंशी प्रेम चंद का दो तीन कमरे का छोटा घर है। इसी घर के अलग अलग कमरों में उनके दिनचर्या की स्मृतियां जुड़ी हुई है। घर के सामने जो शायद अग्र भाग का हिस्सा रहा होगा उसी में स्मारक स्थित है।
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सी परिसर में मुंशी प्रेम चंद की छोटी प्रतिमा स्थापित है जिस पर यदा कोई माला चढ़ा आता है। स्मारक के एक कमरे में मुंशी प्रेम चंद द्वारा उपयोग में लाई जाती रही चरखा,रेडियो,टार्च और उनके लिखित कहानियों की पांडुलिपियां इत्यादि मौजूद है। सांस्कृतिक और पर्यटन विभाग के अधीन इस स्मारक की देखभाल के लिए एक चपरासी तक मुहैया नहीं है।
स्मारक के संरक्षक सुरेश चंद्र द्विवेदी यहां हर वक्त मौजूद मिलेंगे। वे यहां निशुल्क सेवा देते हैं। यहां गाइड की भूमिका के साथ वे इस स्मारक के रख रखाव की जिम्मेदारी संभालते हैं। यहां आने वाले लोग मुंशी प्रेम चंद की एकाध किताबें खरीदते हैं,यही सुरेश चंद्र द्विवेदी के आय का जरिया है। मुंशी प्रेम चंद के चाहने वाले साहित्यकारों की संख्या लाखों में है,कह नहीं सकता कि इन लोगों ने इस स्मारक के सुंदरीकरण की मांग कभी उठाई या नहीं!
कहने को मुंशी प्रेम चंद स्मारक के बगल में ही प्रेम चंद शोध संस्थान का विशालकाय भवन बनकर तैयार है। यह तत्कालीन केंद्रीय मंत्री महेंद्र पांडेय के प्रयास से संभव हुआ था। इसके स्थापना के पीछे उद्देश्य प्रेम चंद साहित्य पर शोध,नाटक आदि होना था। अफसोस 2016 से स्थापित इस भवन पर आज की तारिख तक सिर्फ एक गार्ड भर तैनात है। हैरत है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अधीन इस शोध संस्थान का काम आगे इसलिए नहीं बढ़ पा रहा है क्योंकि संबंधित यह विभाग धनाभाव का रोना रोता रहता है। यूं कहेें तो जीवन भर आम आदमी की जुबान बनकर उनकी कहानी उकेरने वाले मुंशी प्रेमचंद का नाम तो किताबों में बहुत है, लेकिन लमही में वो कुछ भी नहीं है, जो होना था।