- फार्मा कम्पनियों के रोज रेट बढ़ाने पर लगाम क्यों नही?
- शुगर की गोली, इन्सुलिन को जीवनरक्षक की श्रेणी में क्यों नहीं लाती सरकारें?
- GST से केवल राष्ट्रीय सुरक्षा ही नहीं, नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा भी जरूरी
विजय श्रीवास्तव
भगवान के बाद धरती पर अगर किसी को भगवान का दर्जा मिला है तो वे डॉक्टर हैं। आज के समय में ये डॉक्टर पैसों के लालच में किसी भी स्तर तक चले जा रहे हैं। इन डॉक्टरों को केवल पैसा चाहिए वो भी किसी भी हालत में। कुछ प्राइवेट अस्पतालों के बारे में ऐसी खबरें अक्सर मिला करती हैं कि इलाज के नाम पर मरीजों को लूटा जा रहा है। मरने के बाद भी आईसीयू और वेंटीलेटर की फीस जबरिया अस्पताल वसूल रहे हैं, ऐसी भी खबरें आम हैं। इतना ही नहीं, डॉक्टरों के नाम पर अनट्रेंड लोग मरीजों का इलाज कर रहे हैं। इन खबरों के मिलने के बाद पुलिस हरकत में आती है और फिर पुलिस उन अस्पतालों पर पर छापा मारती है। उसके बाद मामला फिर से शांत हो जाता है। कई बार तो अस्पताल में मुर्दे के इलाज की खबरें भी देखने पढ़ने को मिल ही जाती हैं।
लेकिन अभी हम बात कर रहे हैं शूगर जैसी भयानक बीमारी के बारे में। डायबीटिज एक साइलेंट किलर (बीमारी) है, जिसका कोई स्थाई इलाज नहीं है। खान-पान, संयम और अगर जरूरत पड़े तो फिर दवाओं का सेवन करके ही हम अपना जीवन बचा सकते हैं। इसमें ब्लड शुगर बढ़ने लगता है जिससे कई स्वास्थ्य समस्याएं होने लगती हैं। शुगर के मरीज शुगर को कंट्रोल में रखकर स्वस्थ जीवन जी सकते हैं। अब तो छोटे बच्चे भी इस बीमारी की चपेट में आने लगे हैं। पहले के लोग आम बोलचाल की भाषा में इसे राजरोग भी कहते थे। अब तो अनुमानित हर घर में इसके एक दो मरीज मिल जाते हैं।
सवाल उठता है कि इतनी भयावह बीमारी होने के बावजूद सरकार इसकी दवाओं को जीवनरक्षक दवाओं की श्रेणी में नहीं डाल पाई है। कारण भी साफ है, आयुष्मान कार्ड सबका बन नही सकता। उसके लिए मानक पूरा करना सभी के लिए आसान नहीं। केन्द्र सरकार के जन-औषधि केन्द्र पर शुगर की अच्छी लेटेस्ट दवाओं का अभाव है। शुगर की कोई अच्छी दवा जो कुछ समय पहले मात्र 80 रुपये में 10 टेबलेट आती थीं। आज 200 रूपये से कम नही। जो इन्सुलिन इंजेक्शन कुछ समय पहले छह सौ रूपये का था आज 1200 रूपये में मिल रहा है। कारण आप हम सभी जानते हैं। फार्मास्युटिकल कम्पनियों पर केन्द्र व प्रदेश सरकारों का कोई नियंत्रण नही है। वो जब, जितना चाहती हैं, दवाओं पर एमआरपी अपनी मर्जी से बढ़ा लेती हैं। डॉक्टरों की फीस, दवा और जांच इतनी महंगी हो गई है कि आम आदमी बहुत दिनों तक इलाज नही करवा सकता। इस कारण लोग असमय काल के गाल में समाते जा रहे हैं।
शुगर की जांच करवाकर डायग्नोसिस करने वाले एंडोक्राइन डायबिटीज, थाइराइड का इलाज करने वाले स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की फीस लखनऊ में तकरीबन 1000 रूपये है। वो मात्र सात दिनों की वैलिडिटी के साथ। जांच के नाम पर प्राइवेट डॉक्टरों का तगड़ा नेक्सस काम कर रहा है। ये डाक्टर बिना महंगी जांच के कोई दवा लिखते ही नही हैं। सिर्फ पैसों के लिए मरीजों की जान चली जाने के बाद भी उन्हें आईसीयू में रख कर इलाज का ड्रामा करने की शिकायतें तो अक्सर सुनने में आती हैं, लेकिन इसके बाद भी डॉक्टरों के भीतर मानवता नहीं जग रही। चिकित्सकों का कहना है कि जब रक्त शर्करा बहुत अधिक हो जाती है, तो अतिरिक्त शुगर रक्त से मूत्र में चली जाती है। इससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू होती है जो शरीर से बड़ी मात्रा में तरल पदार्थ खींचती है। यदि इसका उपचार नहीं किया जाता है, तो यह जीवन के लिए ख़तरनाक निर्जलीकरण और मधुमेह कोमा का कारण बन सकता है।
जानकार बताते हैं कि सरकार का जीएसटी कर लगाने का मतलब है देश के नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य व शिक्षा की गारंटी देना। लखनऊ के एक शुगर स्पेशलिस्ट डॉक्टर के यहां लाईन में खडे दर्जनों सीनियर सिटीजन पीड़ित मरीजों ने पूछने पर भरे गले से कहा कि शुगर जांच के साथ ही डॉक्टरों को अपनी फीस कम करनी चाहिए। केंद्र व प्रदेश सरकारों को डायबिटीज की दवाओं व इंसुलिन इंजेक्शन को जीवन रक्षक की श्रेणी मे लाकर इसे टेक्स फ्री कर इनका नियंत्रण अपने हाथ मे लेना चाहिए। जिससे इन दवाओं का मूल्य पीड़ितों के लिए आसान सुलभ हो सके। शुगर को महामारी मानकर कोरोना वैक्सीन जैसा मुफ्त इलाज नही तो सस्ती दवा व इंसुलिन आम जनमानस को उपलब्ध करवाना चाहिए। इस तरह का कदम उठाकर ही “जनता की चुनी सरकार जनता के दिलों तक” की सोच सार्थक होगी।
धरती के भगवान के नाम से मशहूर डाक्टर चाहे तो शुगर, हृदय, किडनी, लीवर और कैंसर के मरीजों की फीस कम कर सकते हैं। वहीं सरकार को भी इस पर गम्भीरता से विचार करना होगा। देश में कोरोना के बाद सबसे ज्यादा मृत्यु हार्ट अटैक, शुगर, किडनी, लीवर कैंसर आदि से हो रही हैं। इसलिए ये दवाऐं इतनी महंगी क्यों? वैसे तो केंद्र सरकार ने डिपार्टमेंट ऑफ प्राइस कंट्रोल आर्गनाइजेशन (DPCO) के तहत लगभग दो सौ दवाओं को अपने अंडर ले लिया है, लेकिन परिणाम ‘ढाक के ढाई पात’ जैसा ही दिखाई पड़ता है। आखिर किसी को क्यों नहीं सूझ रहा कि गम्भीर बीमारियों की दवाएं सस्ती बिकनी चाहिए। आप इंसानी जान को दांव पर रखकर पैसे कमाने की कैसे सोच सकते हैं। क्या मानवता दम तोड़ चुकी है या फिर इंसान के जान की कीमत शेष नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश के कई नामचीन अखबारों में रह चुके हैं)